इंडोनेशिया में पहले हिंदू धर्म प्रचलित था। उस समय इसे जावा और सुमात्रा द्वीपों के नाम से जानते थे। यह भारत की तरह सनातन संस्कृति से ओत-प्रोत था। चीनी यात्री फाह्यान ने अपने लेखों में इसका जिक्र किया है। जावा के शासक ऐरलंग के लेख से पता चलता है कि वह अपनी रानियों के साथ राजसभा में बैठते थे। इसी प्रकार विष्णुवर्धन के बाद उनकी पुत्री ने शासन चलाया था। स्त्रियों को पर्याप्त स्वतन्त्रता थी। भारतीय महिलाओं के समान उन्हें भी अपना पति चुनने का अधिकार था। विवाह को यहां भी पवित्र धार्मिक संस्कार माना जाता था। समाज के लोगों की वेश-भूषा भी भारतीयों जैसी ही थी।
जावा के नरेश विद्वानों के आश्रयदाता होते थे। साहित्य पर कालिदास का प्रभाव दिखाई देता है। जावा के निवासियों ने न केवल संस्कृत का अध्ययन किया, अपितु भारतीय साहित्य के आधार पर अपना एक विस्तृत साहित्य निर्मित किया जिसे इण्डो-जावानी साहित्य कहा जाता है। लगभग 500 वर्ष तक इस साहित्य का विकास होता रहा।
इंडोनेशिया के लोग अपने राजा को विष्णु का अवतार या ईश्वर मानते थे। वह जैसा करता था, जैसे जीता था, रहता था, उसी का अनुसरण करते थे। समाज धर्म-संस्कृति से संपन्न था। वहां चारों दिशाओं से वस्तु और विचार पहुंच रहे थे। इस्लाम भी वहां पहुंचा। जावा और सुमात्रा की युवतियों से मुस्लिमों ने विवाह किया। आम इंडोनेशियाई लोग 13वीं शताब्दी तक इस्लाम से दूरी बनाए हुए थे।
एक मुस्लिम व्यापारी ने सुमात्रा द्वीप की एक मुख्य रियासत समुंदर पसाई, जिसकी राजधानी गंग्गा नगर था, की राजकुमारी से विवाह कर लिया। इसी राजकुमारी के माध्यम से इंडोनेशिया में 1267 ई. में इस्लाम आया। उसके पिता महाराज मारू सीलु महाराज और उनकी पत्नी भी मुसलमान हो गए। यह राजा स्थानीय असेही मूल का था जिनकी आबादी 80-90 प्रतिशत थी और धीरे-धीरे पूरी जनता इस्लाम अपनाने लगी।
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