प्रतीकात्मक चित्र
विख्यात साहित्यकार, शिक्षाविद् और संस्कृतिकर्मी डॉ. देवेन्द्र दीपक ने समान नागरिक संहिता पर एक नए दृष्टिकोण से आलेख लिखा है, जिसे यहां प्रकाशित किया जा रहा है।
समानता की चाहत
लोकतंत्र का पहला पाठ
कैफियत
समान नागरिक संहिता
समानता का घोड़ा एक जगह आकर रुक जाता है और वह बिन्दु है समान नागरिक संहिता- कभी दो कदम, तो कभी चार कदम पीछे। जब से भारत स्वतंत्र हुआ, संविधान निर्माण के समय से आज तक समान नागरिक संहिता का घोड़ा उसी स्थान पर खड़ा है। पूरा देश एक है। हम सब एक जन हैं। हमारे संविधान का प्रारम्भिक पद है ‘हम भारत के लोग।’ सबके लिए एक जैसी दण्ड व्यवस्था, तो समान नागरिक संहिता क्यों एक नहीं। संविधान का “हम ” बहुत व्यापक है। सभी भारत के लोग बिना किसी भेद के इस ‘हम” में शामिल हैं।
यदि ऐसा है तो
प्रश्न केवल वैचारिक सच्चाई और ईमानदारी का है। यदि हम ईमानदार पंथनिरपेक्ष हैं, ईमानदारी से सर्वधर्म सम्भाव में विश्वास रखते हैं, यदि हम ईमानदार समाजवादी और वामपंथी हैं, यदि हम सच्चे अर्थों में गांधीवादी हैं, यदि हम लैंगिक समानता के ईमानदार प्रवक्ता हैं, यदि नारी-मुक्ति के प्रति हम ईमानदार हैं, यदि हमारा दलित-विमर्श केवल दलित जातियों तक सीमित नहीं है तो सबको समान नागरिक संहिता के लिए निर्विकल्प संकल्प के साथ आगे बढ़ना चाहिए।
आज आप सबकी ईमानदारी कसौटी पर है। समाज आपको देख रहा है, सुन रहा है- वह आपकी वैचारिक ईमादारी को प्रत्यक्ष देखना चाहता है। हम जानते हैं कि समान नागरिक संहिता के मार्ग में अनेक कठिनाइयां हैं। इसके लिए जरूरी है कि नागरिक संहिता के ब्यौरे को लेकर व्यापक चर्चा हो। इस चर्चा में न्यायविदों के साथ समाजशास्त्री, शिक्षाशास्त्री मनोविज्ञानी भी शामिल हों। सरकार जो प्रारूप तैयार करे, उसे संसद में लाने से पहले उसे सार्वजानिक करे। ऐसा करने से सभी पक्षों को अपना पक्ष रखने का अवसर मिलेगा। याद रखिए सह चिंतन से ही अच्छे परिणाम मिलते हैं!
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