राजमाता जिया रानी जिन्होंने मुगल सेना से मुकाबला किया

Published by
उत्तराखंड ब्यूरो

एक ऐसी ही भारतीय वीरांगना नारी जिनकी कुलदेवी के रूप में आज भी उत्तराखण्ड राज्य में विशिष्ट पूजा की जाती है। उस वीरांगना का नाम है राजमाता जियारानी उर्फ मौलादेवी पुंडीर, जिन्हें उत्तराखण्ड राज्य के कुमाऊं क्षेत्र की रानी लक्ष्मीबाई भी कहा जाता है।

इतिहास में कुछ ऐसे अनछुए–गुमनाम से व्यक्तित्व होते हैं, जिनके विषय महत्ता के सम्बंध में लोग अधिक नहीं जानते–पहचानते हैं, किन्तु एक क्षेत्र विशेष में उनकी बड़ी मान्यता होती है और वो लोकदेवता के रूप में भी पूजे जाते हैं। एक ऐसी ही भारतीय वीरांगना नारी जिनकी कुलदेवी के रूप में आज भी उत्तराखण्ड राज्य में विशिष्ट पूजा की जाती है। उस वीरांगना का नाम है राजमाता जियारानी उर्फ मौलादेवी पुंडीर, जिन्हें उत्तराखण्ड राज्य के कुमाऊं क्षेत्र की रानी लक्ष्मीबाई भी कहा जाता है।

उत्तराखण्ड राज्य में प्राचीन मायापुरी वर्तमान हरिद्वार के शासक चन्द्रसेन पुंडीर तत्कालिक सम्राट पृथ्वीराज चौहान के बड़े सामन्त थे। भारत पर आक्रमणकारी तुर्को से संघर्ष में चन्द्रसेन पुंडीर और उनके वीर पुत्र धीरसेन पुंडीर और पौत्र पावस पुंडीर ने बलिदान दिया था। सन 1192 में तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज चौहान के पराभाव के पश्चात तुर्कों ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया था। उक्त घटनाक्रम के दो शताब्दी पश्चात तक भी हरिद्वार राज्य में पुंडीर वंश का राज बना रहा। सन 1380 में हरिद्वार राज्य पर अमरदेव पुंडीर का शासन था। जियारानी जिनका बचपन का नाम मौलादेवी था, वह हरिद्वार राज्य के राजा अमरदेव पुंडीर की पुत्री थीं। इस क्षेत्र में कब्जा करने हेतु तुर्कों के हमले लगातार जारी रहे।

हरिद्वार राज्य के साथ गढ़वाल राज्य और कुमाऊं क्षेत्रों में भी बर्बर तुर्कों के हमले होने लगे थे। ऐसे ही एक तुर्क आक्रमण के समय कुमाऊं राज्य के अंतर्गत पिथौरागढ़ के कत्यूरी राजा प्रीतमदेव ने हरिद्वार राज्य के राजा अमरदेव पुंडीर की सहायता के लिए अपने भतीजे ब्रह्मदेव को सेना के साथ सहायता के लिए भेजा था। जिसके पश्चात राजा अमरदेव पुंडीर ने अपनी पुत्री मौलादेवी का विवाह कुमाऊं राज्य के कत्यूरी राजवंश के राजा प्रीतमदेव उर्फ़ पृथ्वीपाल से कर दिया। कत्यूरी राजवंश चंद्र राजवंश से भी पूर्व का माना जाता हैं। कुमाऊं क्षेत्र में सूर्यवंशी कत्युरियों का आगमन सातवीं सदी में अयोध्या से हुआ माना जाता हैं। इतिहासकार कत्युरियों को अयोध्या के सूर्यवंशी राजवंश शालीवान का संबंधी मानते हैं। कत्यूरी राजवंश का प्रथम शासक वासुदेव को माना जाता है। वहीं सबसे पहले वह बैजनाथ आया था। उस समय कत्यूरी शासन उत्तराखंड से लेकर नेपाल तक फैला था। द्वाराहाट, जागेश्वर, बैजनाथ आदि स्थानों के स्थापत्य कला में कत्यूरी शैली के मंदिर कत्यूरी राजाओं ने ही बनाए थे। राजा प्रीतमदेव कत्यूरी राजवंश के 47वें राजा थे। राजा प्रीतमदेव को पिथौराशाही नाम से भी जाना जाता है, उन्हीं के नाम पर पिथौरागढ़ नगर का नाम पड़ा था।

मौला देवी राजा प्रीतमदेव की दूसरी रानी थी। रानी मौलादेवी को धामदेव, दुला, ब्रह्मदेव नामक पुत्र प्राप्त हुए जिनमे से ब्रह्मदेव को कुछ लोग प्रीतमदेव की पहली पत्नी से मानते हैं। मौला देवी को राजमाता का दर्जा प्राप्त हुआ था चूंकि उस क्षेत्र में माता को जिया कहा जाता था इसलिए उनका नाम जियारानी पड़ गया था। कुछ समय पश्चात जियारानी की प्रीतमदेव की प्रथम पत्नी से अनबन हो गयी तो वह अपने पुत्र को साथ लेकर गोलाघाट की जागीर में चली गईं। वहां उन्होंने एक खूबसूरत रानी बाग़ बनवाया, जिया रानी वहां गुफा में बारह वर्ष तक रहीं, यहां जिया रानी की गुफा आज भी मौजूद है। सन 1398 में मध्य एशिया समरकंद के बर्बर हत्यारें तैमुर लंगड़े ने भारत पर हमला किया। वह हत्यारा दिल्ली, मेरठ को रौंदता हुआ वो हरिद्वार जा पहुंचा। उस समय वहां वत्सराजदेव पुंडीर शासन कर रहे थे, उन्होंने बड़ी वीरता से बर्बर तैमूर का सामना किया, मगर शत्रु सेना की विशाल संख्या और भयानक प्रपंचों के आगे उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। हरिद्वार में उस समय भयानक नरसंहार हुआ।

माताओं और बहनों का वीभत्स बलात्कार हुआ। जबरन मतांतरण हुआ। विपरीत परिस्थितियों में राजपरिवार को भी उत्तराखण्ड के पहाड़ी नकौट क्षेत्र में शरण लेनी पड़ी। वहां उनके वंशज आज भी रहते हैं और मखलोगा पुंडीर के नाम से जाने जाते हैं। आक्रांता तैमूर ने सेना की एक टुकड़ी आगे के पहाड़ी राज्यों पर भी हमला करने भेजी, जब उक्त सूचना जिया रानी को मिली तो उन्होंने इसका सामना करने के लिए कुमाऊं क्षेत्र से एक सेना का गठन किया। हत्यारें तैमूर की विशाल संख्या में मुस्लिम सेना और जियारानी की सेना के मध्य रानीबाग़ क्षेत्र में भीषण युद्ध हुआ, जिसमें आक्रमणकारी तैमूर की मुस्लिम सेना की बुरी तरह से हार हुई। इस विजय के पश्चात जियारानी के सैनिक कुछ निश्चिन्त हो गये, परन्तु उसी समय वहां दूसरी अतिरिक्त आक्रांताओं की मुस्लिम सेना आ पहुंची जिससे विपरित परिस्थितियों में जियारानी की सेना की हार हुई। राजा प्रीतमदेव को जब इस आक्रमण की सूचना मिली तो वो स्वयं सेना लेकर आये और आक्रांता मुस्लिम हमलावरों को बुरी तरह से मार भगाया। इसके बाद राजा प्रीतमदेव जियारानी को पिथौरागढ़ ले आये, प्रीतमदेव की मृत्यु के बाद जियारानी मौलादेवी ने बेटे धामदेव के संरक्षक के रूप में शासन भी किया था।

शिला

उत्तराखण्ड राज्य में जियारानी की गुफा के बारे में एक कथा–किवदंती प्रचलित है कि कत्यूरी राजा पृथ्वीपाल उर्फ़ प्रीतमदेव की पत्नी रानीजिया यहां चित्रेश्वर महादेव के दर्शन करने आई थीं। वह बेहद सुन्दर थी ही जैसे ही रानी नहाने के लिए गौला नदी में पहुंची तो वैसे ही आक्रांताओं की मुस्लिम सेना ने वहां घेरा डाल दिया। जियारानी महान शिवभक्त और पवित्र पतिभक्त महिला थी। विकट परिस्थितियों में उन्होंने अपने ईष्ट देवताओं का स्मरण किया और गौला नदी के पत्थरों में ही समा गईं। बर्बर मुस्लिम सेना ने उन्हें बहुत ढूंढ़ा परन्तु रानी कहीं भी नहीं मिली थीं। नदी के किनारे एक विचित्र रंग की पत्थर की शिला है, जिसे चित्रशिला कहा जाता है। इस सम्बंध में धार्मिक मान्यता है कि इसमें त्रिदेव भगवान ब्रह्मा, विष्णु, शिव की शक्ति समाहित है। हिन्दू धर्म साहित्य पुराणों के अनुसार नदी किनारे वट वृक्ष की छाया में ब्रह्मर्षि ने एक पांव पर खड़े होकर दोनों हाथ ऊपर कर तपस्या की थी तब प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने तत्कालीन समय के देवताओं के अभियंता भगवान विश्वकर्मा को बुलाकर इस रंगबिरंगी अद्भुत शिला का निर्माण करवाया था और उसी शीला पर बैठकर ऋषि को मनवांछित वरदान दिया था।

स्थानीय उत्तराखंडी मान्यताओं में कुछ लोग इस शिला को जियारानी का घाघरा कह कर भी पुकारते हैं। जियारानी को यह स्थान बहुत प्रिय था। उन्होंने यहीं अपना बाग लगाया था और यहीं उन्होंने अपने जीवन की आखिरी सांस भी ली थी। जियारानी अपने अस्तित्व, सतीत्व की रक्षा करते हुए सदा के लिए चली गईं। तब से जियारानी की स्मृति में यह स्थान रानीबाग के नाम से विख्यात है। कुमाऊं के प्रवेश द्वार काठगोदाम स्थित रानीबाग में जियारानी की गुफा का ऐतिहासिक महत्व है। कुमाऊं क्षेत्र के साथ सम्पूर्ण उत्तराखण्ड के क्षत्रिय–राजपूत आज भी भारतीय वीरांगना नारी जियारानी पर बेहद गर्व करते हैं, उनकी स्मृति में सम्पूर्ण भारत में दूर-दूर बसे उनके कत्यूरी वंशज प्रतिवर्ष यहां आते हैं, पूजा-अर्चना करते हैं। उत्तराखण्ड की कड़ाके की ठंड–सर्दी में भी पूरी रात माहौल भक्तिमय रहता है।

Share
Leave a Comment