केंद्र की सत्ता में नरेंद्र मोदी के आने के बाद देश की राजनीति की दशा और दिशा बदली है। तो क्या जेपी-लोहिया के समाजवादी प्रयोग की ‘देन’ मुलायम सिंह यादव के निधन के साथ मंडल की राजनीति खत्म हो जाएगी
जब मुलायम सिंह यादव 1967 में पहली बार उत्तर प्रदेश की जसवंतनगर सीट से विधानसभा के सदस्य बने, तब हम में से बहुत से लोग पैदा भी नहीं हुए थे या स्कूल में थे। स्वर्गीय मुलायम सिंह 10 बार विधायक, 1 बार एमएलसी और 7 बार लोकसभा सांसद रहे। आपातकाल से पहले लोकनायक जय प्रकाश नारायण के आंदोलन से युवा नेता के रूप में उभरे मुलायम सिंह उत्तर भारत में मंडल राजनीति का चेहरा बने। तत्कालीन जेपी और लोहियावादी मुलायम सिंह मंडल की राजनीति से उत्तर प्रदेश में पिछड़े वर्गों के रहनुमा बने। क्या उनका निधन मंडल राजनीति के अंत का भी प्रतीक है?
‘धरतीपुत्र’ के रूप में प्रसिद्ध मुलायम सिंह यादव ने सत्ता तक पहुंचने के रास्ते में कुछ गलतियां भी कीं। उनका सामाजिक-राजनीतिक अभियान, जो पिछड़े वर्गों के व्यापक प्रतिनिधित्व के साथ शुरू हुआ, कुछ ही वर्षों में मात्र एक बड़ी ओबीसी जाति, ‘यादवों’ तक सीमित हो गया। भरपाई के लिए उन्होंने मुस्लिम वोट बैंक का सहारा लिया।
अयोध्या में कारसेवकों पर क्रूरता से गोलीबारी के बाद मुसलमानों के बीच उनकी ‘अच्छी छवि’ बनी, जिसका उन्हें लाभ भी मिला। पर इससे एक बड़ा गैर-यादव हिंदू आधार उनसे अलग भी हो गया। दुर्भाग्य से, एक महान समाजवादी प्रयोग के रूप में शुरू हुआ आंदोलन चुनाव जीतने के मुस्लिम-यादव अंकगणित तक सीमित रह गया, जिसे मुलायम की राजनीति के ‘एम-वाई’ सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूला के नाम से भी जाना जाता है। लेकिन एम-वाई का यह फॉर्मूला मुलायम सिंह यादव और उनके परिवार के लिए राजनीतिक रूप से बहुत फायदेमंद रहा। इस फॉर्मूले के जरिए मुलायम सिंह तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और एक बार देश के रक्षा मंत्री बने। वे1996 में गठबंधन के दौर में देश का प्रधानमंत्री बनने का मौका बस जरा सा से चूक गए। इसी फॉर्मूले से उनके बेटे अखिलेश यादव एक बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और मुलायम के कई भाई, उनके बेटे, बहुएं और रिश्तेदार कई बार सांसद और विधायक बने।
मुलायम सिंह जैसे मंडल युग के अधिकांश सफल राजनेताओं ने बड़े पैमाने पर एक प्रमुख पिछड़े वर्ग को पकड़ लिया और एक विजयी संयोजन बनाने के लिए अल्पसंख्यकों को अपनी ओर आकर्षित किया। नरेंद्र मोदी ने उन्हें उनके इस खेल में भी हरा दिया। मोदी के सबसे भरोसेमंद अमित शाह ने यह सुनिश्चित किया कि पिछड़ी जातियों के छोटे से छोटे समूह को भी विभिन्न राज्यों में पार्टी और सरकार में प्रतिनिधित्व मिले।
कई अन्य तथाकथित समाजवादियों की तरह, जो जेपी आंदोलन और मंडल की राजनीति के आधार पर उभरे, मुलायम सिंह और उनके परिवार ने भी सत्ता के रास्ते में समाजवाद की बलि चढ़ा दी। हालांकि साइकिल उनका चुनाव चिह्न बना रहा, लेकिन हकीकत में जल्द ही उनकी पार्टी की राजनीति आलीशान कारों और बड़े महलनुमा घरों में पहुंच गई।
2014 में केन्द्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार के आने के साथ मंडल राजनीति के पुराने क्षत्रपों और उनके युवा उत्तराधिकारियों को कई दशकों में पहली बार कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा। मंडल राजनीति के चरम पर सरकारी योजनाओं का वितरण बेहद खराब था। निजी नौकरी के बाजार में बहुत कम अवसर थे और सरकारी व्यवस्था भ्रष्ट और अपारदर्शी थी। और इसलिए जाति आधारित संरक्षण लोगों के लिए आगे बढ़ने का एकमात्र विकल्प बन गया और मंडल युग के नेताओं ने अपने राजनीतिक उत्थान के लिए इसका बखूबी फायदा उठाया। लेकिन 2014 के बाद से इनमें से कई समीकरणों में भारी बदलाव आया है।
जनधन खाता, आधार और मोबाइल फोन की पहुंच वाली ‘जैम ट्रिनिटी’ का उपयोग करते हुए, मोदी सरकार ने सरकारी योजनाओं के वितरण में क्रांति ला दी है। घरेलू महिलाओं के बैंक खातों में नकद हस्तांतरण के रूप में कई योजनाएं का लाभ सीधे पहुंचाया जाने लगा है। इससे भारतीय जनता पार्टी के लिए जाति की सीमाओं से परे महिलाओं का एक विशाल लाभार्थी ‘मतदाता बैंक’ स्वत: ही बन गया।
2014 के बाद भारत ने व्यापार करने में आसानी (ईओडीबी) को लेकर अपनी रैंकिंग में वृद्धि की और भारतीय निजी क्षेत्र ने बड़े पैमाने पर करियर के अवसर प्रदान करने शुरू कर दिए। मोदी अपने देश के उद्यमियों और स्टार्ट-अप के साथ मजबूती से खड़े रहे। एक नए महत्वाकांक्षी भारत ने भी जाति की राजनीति को एक बड़ी चुनौती दी है। इसके अलावा मंडल युग के नेताओं के युवा उत्तराधिकारी भी मोदी-शाह की मेहनती जोड़ी और समर्पण के आगे टिक नहीं सके।
उदाहरण के लिए, 17वीं लोकसभा में जब तक अखिलेश यादव सांसद रहे, उनकी संसद में उपस्थिति मात्र 37 प्रतिशत थी, जबकि राष्ट्रीय औसत 80 प्रतिशत थी। आंकड़े बताते हैं कि वह न तो संसद गए और न ही अपने संसदीय क्षेत्र आजमगढ़। हाथरस मामले को लेकर जब विपक्ष भाजपा को घेरने की कोशिश कर रहा था, तब अखिलेश यादव लंदन में छुट्टियां मना रहे थे। कोविड संकट के दौरान, जब योगी आदित्यनाथ हर जिले का दौरा कर रहे थे, अखिलेश यादव ट्विटर और प्रेस कॉन्फ्रेंस के माध्यम से स्वदेशी कोविड टीकों के खिलाफ संदेह पैदा कर रहे थे।
2012 के बाद, अखिलेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आने के बाद से ही समाजवादी पार्टी बस हार रही है। सपा 2014 संसदीय चुनाव हारी, 2015 शहरी निकाय चुनाव हारी, 2017 विधानसभा चुनाव हारी, 2019 संसदीय चुनाव हारी, 2021 पंचायत चुनाव हारी और 2022 विधानसभा चुनाव भी हार गई। 2022 के विधानसभा चुनाव के आखिरी एक महीने में भाजपा के कुछ बागी मंत्रियों को समाजवादी पार्टी में शामिल करना अखिलेश का गैर-यादव पिछड़ा आधार बढ़ाने का एकमात्र लड़खड़ता प्रयास था।
मुलायम सिंह जैसे मंडल युग के अधिकांश सफल राजनेताओं ने बड़े पैमाने पर एक प्रमुख पिछड़े वर्ग को पकड़ लिया और एक विजयी संयोजन बनाने के लिए अल्पसंख्यकों को अपनी ओर आकर्षित किया। नरेंद्र मोदी ने उन्हें उनके इस खेल में भी हरा दिया। मोदी के सबसे भरोसेमंद अमित शाह ने यह सुनिश्चित किया कि पिछड़ी जातियों के छोटे से छोटे समूह को भी विभिन्न राज्यों में पार्टी और सरकार में प्रतिनिधित्व मिले।
भाजपा का पिछले 8 वर्षों में राष्ट्रपति, मुख्यमंत्रियों, कैबिनेट मंत्रियों और पार्टी अध्यक्षों के चुनाव में जाति, लिंग और क्षेत्रों का संतुलित प्रतिनिधित्व रहा है। इसके अलावा, पिछले 8 साल में मोदी के भारत के वास्तविक सांस्कृतिक स्वरूप को आगे रखने के आग्रह ने जाति की पहचान को कमजोर कर हिंदू पहचान को मजबूत किया है। मुलायम सिंह के निधन से अधिक मोदी की सकारात्मक राजनीति का उदय मंडल युग की राजनीति के अंत का प्रतीक है।
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