वैचारिक विमर्श में पिछड़ने पर अपना नैरेटिव स्थापित करने के लिए वामपंथी मीडिया किस हद तक झूठ बोल सकती है, छाप सकती है और फर्जीवाड़ा कर सकती है, यह वायर बनाम मेटा प्रकरण से साफ हो जाता है। द वायर ने भाजपा को बदनाम करने के लिए न सिर्फ फर्जी आलेख लिखा बल्कि उसमें उल्लिखित तथ्यों को सही साबित करने के लिए एक के बाद एक फर्जी दस्तावेज गढ़े। अब खुल रही हैं झूठ की परतें
वैश्विक राजनीति में बहुत-सी बातें हैं, जिन पर पर्दा पड़ा हुआ है। बहुत से ऐसे तथ्य हैं, जिन्हें लेकर भ्रम हैं कि वे थे भी या नहीं। न्यस्त स्वार्थ कुछ तथ्यों को गढ़ते हैं और फिर झूठ को सच बनाने के लिए उन पर नए झूठ की परतें चढ़ाते जाते हैं। ऐसा ही मामला है मीडिया हाउस द वायर और सोशल मीडिया कंपनी मेटा के बीच का विवाद। भाजपा मीडिया सेल के प्रमुख अमित मालवीय की पुलिस रिपोर्ट से भारतीय राजनीति से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातों का पर्दाफाश हो सकता है, बशर्ते जांच में सही तथ्य सामने आएं।
इसमें दो राय नहीं कि वायर का निशाना भारतीय जनता पार्टी की सरकार और उसके नेता नरेंद्र मोदी रहते हैं। 2014 में केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद 2015 में यह मीडिया हाउस अस्तित्व में आया था। उसके बाद यह संस्था स्वयं किसी न किसी वजह से खबरों में रहती है।
शनिवार 30 अक्तूबर को भाजपा आईटी सेल प्रमुख अमित मालवीय की शिकायत पर दिल्ली पुलिस ने वायर के संस्थापक संपादकों—सिद्धार्थ वरदराजन, सिद्धार्थ भाटिया और एमके वेणु, डिप्टी एडिटर और एक्जीक्यूटिव न्यूज प्रोड्यूसर जाह्नवी सेन, फाउंडेशन फॉर इंडिपेंडेंट जर्नलिज्म और अन्य अज्ञात लोगों के नाम रिपोर्ट दर्ज की। पुलिस ने धोखाधड़ी, फर्जीवाड़े, ठगी, मानहानि, आपराधिक साजिश और आपराधिक गतिविधि के केस दर्ज किए हैं।
वायर बनाम मेटा
हालांकि यह मामला वायर और सोशल मीडिया से जुड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी मेटा से जुड़े विवाद के कारण उछला है, पर वस्तुत: यह वायर के केंद्र सरकार के साथ टकराव की परिणति है। अमित मालवीय चूंकि भाजपा मीडिया सेल के प्रमुख हैं, इसलिए पहला निशाना वे बने हैं। वायर की कवरेज का मूल स्वर यह है कि फेसबुक, इंस्टाग्राम और वॉट्सऐप की मातृ संस्था मेटा और अमित मालवीय की सांठगांठ है।
मालवीय ने दिल्ली पुलिस में अपनी शिकायत दर्ज कराने से पहले जारी एक बयान में कहा था कि वायर ने फर्जी दस्तावेजों के जरिए उनकी छवि और प्रतिष्ठा को धूमिल करने की कोशिश की है। उनकी रिपोर्ट के बाद वायर ने अपने साथ काम कर चुके एक रिसर्चर देवेश कुमार के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज कराई। वायर का आरोप है कि देवेश कुमार ने उनके साथ धोखाधड़ी की है। मालवीय की शिकायत के पहले वायर ने अपनी वेबसाइट पर क्षमा याचना के साथ एक वक्तव्य प्रकाशित किया, जिसमें लिखा गया कि ‘पत्रकार कहानियों के लिए स्रोतों पर भरोसा करते हैं और उनसे प्राप्त सामग्री को सत्यापित करने के लिए अपनी पूरी कोशिश करते हैं। किसी भी प्रकाशन के जीवन में, ऐसा अवसर आ सकता है जब उसे गलत जानकारी दी जाती है।’
इससे पहले करीब दो हफ्ते तक चली बहस के बाद वायर ने 27 अक्तूबर को घोषणा की थी कि मेटा के खिलाफ लिखी गई अपनी रिपोर्टों को हम फिलहाल वापस ले रहे हैं। वायर ने जारी एक बयान में कहा, हमने बाहरी विशेषज्ञों की मदद से उपयोग की जाने वाली तकनीकी स्रोत सामग्री की आंतरिक समीक्षा करने के बाद मेटा रिपोर्ट्स को हटाने का निर्णय किया है।
घटनाक्रम पर एक नजर :
10 अक्तूबर : द वायर ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसमें कहा गया कि अमित मालवीय के पास इंस्टाग्राम की पोस्ट हटाने के विशेष अधिकार हैं। रिपोर्ट के अनुसार मेटा की ‘एक्स-चेक’ लिस्ट में अमित मालवीय का नाम भी है। वायर के अनुसार इस श्रेणी के लोगों पर सामान्य नियम लागू नहीं होते। अपनी बात के समर्थन में वायर ने मेटा के कुछ आंतरिक दस्तावेजों के स्क्रीन शॉट्स का प्रकाशन किया। ये दस्तावेज इशारा कर रहे थे कि मेटा और अमित मालवीय में सांठगांठ है।
11 अक्तूबर : मेटा के अधिकारी एंडी स्टोन ने वायर की खबर को गलत बताते हुए अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की। उन्होंने कहा कि ‘एक्स-चेक’ लिस्ट का किसी पोस्ट की शिकायतों से कोई रिश्ता नहीं है। वायर ने जिन पोस्टों का जिक्र किया है, वे आटोमेटेड सिस्टम ने हटाई हैं। स्टोन ने यह भी कहा कि वायर ने जो स्क्रीन शॉट लगाए हैं, वे फर्जी लगते हैं। वायर ने इसके जवाब में एक और खबर लिखी, जिसमें ईमेल का स्क्रीन शॉट लगाया गया, जिसमें स्टोन अपनी टीम से पूछ रहे हैं कि इंस्टाग्राम की आंतरिक रिपोर्ट लीक कैसे हुई।
12 अक्तूबर : मेटा ने कहा कि स्क्रीन शॉट में दिखाए गए मेल आईडी फर्जी हैं। ऐसी कोई मेल नहीं भेजी गई।
15 अक्तूबर : वायर ने एक लेख फिर प्रकाशित किया, जिसमें कहा गया कि स्क्रीनशॉट में दिखाया गया ईमेल एड्रेस सही है और इंस्टाग्राम पोस्ट हटाने से संबद्ध पोस्ट भी सही है। वायर ने ईमेल को सही साबित करने के लिए एक वीडियो भी साथ में लगाया।
16 अक्तूबर : ट्विटर पर एक हैंडल ने एक वीडियो लगाकर बताया कि वायर ने जो वीडियो लगाया है, उससे फर्जी ईमेल को भी सही साबित किया जा सकता है। वायर ने वीडियो ही नहीं, दो डोमेन विशेषज्ञों के स्क्रीनशॉट भी लगाए थे, जिन्होंने पुष्टि के वायर के तरीके को सही बताया। इनमें से एक विशेषज्ञ माइक्रोसॉफ्ट से जुड़ा है। उसने अपने आफिशियल ईमेल से पुष्टि की थी।
सवाल है कि क्या मेटा की प्रतिस्पर्धी कंपनी माइक्रोसॉफ्ट की दिलचस्पी भी इस मामले में है? ऐसा लगता है कि इन विशेषज्ञों के स्क्रीनशॉट भी फर्जी हैं। इस सिलसिले में सिद्धार्थ वरदराजन ने एक ट्वीट किया और फिर उसे हटा लिया। मेटा ने इसके बाद वायर के साक्ष्यों की तकनीकी खामियों को गिनाना शुरू किया। ऐसे तथ्य भी सामने आ रहे हैं कि जिस पोस्ट को हटाने की बात कही जा रही है, उसे अमित मालवीय ने देखा तक नहीं था। मालवीय उस समय उसे फॉलो ही नहीं करते थे।
17 अक्तूबर : वायर ने घोषणा की कि हम इस विषय पर फिलहाल कोई लेख प्रकाशित नहीं करेंगे। ऐसा मेटा के भीतर अपने सोर्स की रक्षा करने के लिए कर रहे हैं।
18 अक्तूबर : वायर ने मेटा से जुड़ी रिपोर्टों को सार्वजनिक दृष्टि से हटाया। इन रिपोर्टों के शीर्षक वेबसाइट पर उपलब्ध हैं, जिनके साथ लिखा गया है कि इस रिपोर्ट की समीक्षा की जा रही है।
संपादकों के लैपटॉप, फोन जब्त
न्यूज साइट ‘द वायर’ के संपादकों सिद्धार्थ वरदराजन, एमके वेणु, सिद्धार्थ भाटिया और जाह्नवी सेन के घरों पर दिल्ली पुलिस ने सोमवार को छापे मारे। भाजपा आईटी सेल के प्रभारी अमित मालवीय ने न्यूज वेबसाइट पर अपनी प्रतिष्ठा को धूमिल करने की साजिश करने के लिए मनगढ़ंत खबर प्रकाशित करने का आरोप लगाया है। इसके दो दिन मारे गए छापे में पुलिस ने द वायर के संपादकों के घरों से लैपटॉप, फोन और अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरण जब्त किए हैं।
सुलगते सवाल
इस मामले में उठते कुछ सवाल, जिनके जवाब कहीं न कहीं से मिलने चाहिए
- द वायर के साथ इस पड़ताल में शामिल देवेश कुमार की पृष्ठभूमि क्या है? क्या वे खलनायक हैं, जैसा कि द वायर के स्पष्टीकरण से संकेत मिलता है या उन्हें बलि का बकरा बनाया जा रहा है?
- द वायर ने क्षमा यह कहकर मांगी है कि पड़ताल करते समय सूत्रों पर अतिशय विश्वास करने से ऐसा हुआ है। पर उसने यह स्पष्ट नहीं किया है कि रिपोर्टों के लेखकों के रूप में सिद्धार्थ वरदराजन और जाह्नवी सेन के नाम लिखने की जरूरत क्यों पड़ी। यदि ये खबरें देवेश कुमार की थीं, तो उनका नाम ही काफी क्यों नहीं था? क्या वे अपनी जिम्मेदारी से बच सकते हैं?
- द वायर ने एक ओर देवेश कुमार के खिलाफ पुलिस से शिकायत की है और इन रिपोर्टों को पाठकों की दृष्टि से हटाया है, इन्हें खारिज नहीं किया है। इनके शीर्षक वेबसाइट पर उपलब्ध हैं और इंटरनेट आर्काइव्स पर भी ये रिपोर्टें उपलब्ध हैं। यू ट्यूब पर द वायर के वीडियो उपलब्ध हैं। इन रिपोर्टों और वीडियो के आधार पर दूसरे पोर्टलों और यू ट्यूब चैनलों पर विवरण मौजूद हैं। यदि ये विवरण अपुष्ट या फर्जी आधारों पर हैं, तो इनके असर को क्या माना जाएगा?
- पुलिस में रिपोर्ट दर्ज होने और विवाद के कानूनी शक्ल लेने के बाद दूसरे मीडिया हाउसों ने अपनी पूर्व प्रकाशित सामग्री को आनन-फानन हटाने की कोशिशें शुरू कर दी हैं। एनडीटीवी के पत्रकार रवीश कुमार ने इन सूचनाओं के आधार पर अपना कार्यक्रम भी पेश किया और मीडिया हाउस के पोर्टल पर एक लेख भी लिखा, जिसका शीर्षक है ‘टेक फॉग केवल प्रोपेगैंडा नहीं बल्कि नरसंहार को उकसाने का टूल है।’ रवीश कुमार का इसी शीर्षक से आलेख द वायर की वेबसाइट पर अब भी मौजूद है, जबकि यूट्यूब पर यह वीडियो अब उपलब्ध नहीं है।
- अब देखना है कि वायर की आंतरिक-समीक्षा रिपोर्ट कब आएगी। उसके बाद स्पष्ट होगा कि टेक फॉग था या नहीं था। ब्लूमबर्ग से लेकर ल मोंद तक देशी-विदेशी अखबारों और चैनलों पर इस सूचना को विश्वसनीय मानते हुए रिपोर्टें प्रकाशित हुईं। उनका क्या होगा? ‘फ्रीडम हाउस’ ने इसके आधार पर भारत की आलोचना की। देश की राजनीति में हंगामा मचा। अब कैसे तय होगा कि ये बयान पुष्ट सूचना के आधार पर थे या गलत थे?
- सवाल केवल अमित मालवीय या भाजपा तक सीमित नहीं है। राष्ट्रीय-हित, मीडिया की स्वतंत्रता और उसकी साख भी इससे जुड़ी है। इन रिपोर्टों को ध्यान से पढ़ें तो विदेशी संस्थाओं और मीडिया हाउसों की दिलचस्पी भी इनमें दिखती है। भारत के लोकतंत्र को लेकर पश्चिमी देशों की आलोचना के स्वर जब तीखे होते जा रहे हैं, तब इस प्रकरण ने साजिशों की संभावनाओं के दरवाजे भी खोले हैं। क्या इस प्रसंग से जुड़े सारे सच सामने आएंगे? कैसे और कब?
- यह मसला इंस्टाग्राम की कुछ पोस्टों के कारण सामने आया है और उसके पीछे मेटा की आपत्तियां हैं, पर द वायर ने टेक फॉग से जुड़ी रिपोर्टों का भी लोपन कर दिया है। क्या उस प्रसंग पर भी फिर से विचार किया जा रहा है?
फर्जीपना उजागर
ब्लूक्राफ्ट डिजिटल फाउंडेशन के सीईओ अखिलेश मिश्रा ने 31 अक्तूबर को एक के बाद एक ट्वीट करके वायर की बचाव की धज्जियां उड़ा दीं।
अखिलेश मिश्रा के ट्वीट
11 अक्तूबर को जब एंडी स्टोन ने वरदराजन को अलर्ट किया कि वायर का आलेख फर्जी है, तो बाद में फर्जीवाड़ा किसने किया?
1. स्टोन का जाली ईमेल
2. डीकेआईएम के जाली सत्यापन का वीडियो
3. बाहरी विशेषज्ञों के जाली ईमेल
4. नकली टेल्सओएस की कहानी
5. नकली मेटा स्रोत
6. जाह्नवी सेन को मेटा की ओर से फर्जी कॉल
एस. वरदराजन और चुने हुए मक्कारों के गिरोह द्वारा पीड़ित होने का संगठित दांव घिनौना है।
वरदराजन और उनके सहयोगियों के खिलाफ छापे, मानहानि के मामले के कारण नहीं, बल्कि एक बार नहीं बल्कि लगातार जालसाजी, धोखाधड़ी, मनगढ़ंत और आपराधिक साजिश किए जाने के कारण हैं।
वरदराजन और एमके वेणु गिरोह का यह तर्क कि उन्हें देवेश कुमार ने गुमराह किया, हास्यास्पद रूप से बकवास है। देखिए, कैसे –
1) मूल आलेख (वरदराजन और जाह्नवी सेन की बाईलाइन)के लिए अनुमान लगाने के लिए देवेश कुमार ने उन्हें गुमराह किया..
2) लेकिन बाद में फर्जी और मनगढंत आलेखों के बारे में क्या?
3) सोशल मीडिया और मेटा द्वारा प्रारंभिक वायर आलेख को मनगढ़ंत बताने के बाद वायर/एस. वरदराजन ने क्या किया?
क) एंडी स्टोन के ईमेल गढ़े गए। ऐसा किसने किया?
ख) फर्जी एंडी स्टोन के ईमेल के फर्जी डीकेआईएम को सत्यापित किया। ऐसा किसने किया?
ग) दो बाहरी विशेषज्ञों का जाली सत्यापन। ऐसा किसने किया?
घ) वरदराजन ने दावा किया कि वायर के आंतरिक कंप्यूटरों में टेल्सओएस के कारण दोषपूर्ण तिथि की मुहर थी। इस जालसाजी को करने के लिए किसने वायर के कंप्यूटर का उपयोग किया?
च) वरदराजन ने दावा किया कि वह खुद मेटा सूत्रों से मिले थे। ये नकली स्रोत कौन थे?
यह सिर्फ एक जालसाजी नहीं बल्कि एक शृंखला है।
यदि कोई यह मान भी ले कि देवेश कुमार ने शुरुआती आलेख में वरदराजन को मूर्ख बनाया(बेतुका विचार), तो – बाद की जालसाजी की शृंखला वायर और वरदराजन के शामिल हुए बिना नहीं हो सकती थी।
इसलिए आपराधिक जालसाजी की जांच में दिल्ली पुलिस बिल्कुल सही है।
कहानी टेक फॉग की
हालांकि यह विवाद अक्तूबर के पहले हफ्ते में शुरू हुआ, पर इसकी पृष्ठभूमि काफी पहले की है। इस साल जनवरी के महीने में जब बुल्ली बाई और पेगासस जैसे मामलों का जिक्र चल रहा था, ‘द वायर’ ने रिपोर्टों की एक शृंखला जारी की कि भाजपा आईटी सेल से जुड़े लोग अपनी पार्टी के नेताओं, मंत्रियों की लोकप्रियता बढ़ाने, नैरेटिव बदलने, सोशल मीडिया पर ट्रेंड कराने और अपने आलोचकों को परेशान करने के लिए ‘टेक फॉग’ नामक ऐप का इस्तेमाल करते हैं।
वायर के अनुसार भाजपा मीडिया सेल की एक असंतुष्ट कर्मचारी ने टेक फॉग के बारे में सोशल मीडिया पर अप्रैल 2020 में तमाम जानकारियां शेयर की थीं। द वायर ने दावा किया था कि दो साल की पड़ताल के बाद उन्हें पता लगा कि टेक फॉग नामक ऐप के माध्यम से भाजपा सोशल मीडिया को मैनेज करती है। भाजपा विरोधी पत्रकारों को प्रताड़ित करने के अलावा ट्विटर ट्रेंड्स भी हाईजैक करती है। यह ऐप सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों के सभी सिक्योरिटी फीचर्स की धज्जियां उड़ाता है।
पहली नजर में लगता था कि इस सुपर ऐप के पास दुनिया की सबसे ज्यादा शक्तियां हैं। व्हाट्सऐप-ट्विटर एकाउंटों को हैक करना इसके हाथ में बच्चों का खेल है। रहस्य यह है कि यह ऐप है या नहीं, इसका पता कोई लगा नहीं पाया है। फिर भी फ्रांसीसी अखबार ला मोंद ने टिप्पणी की कि राजनीतिक हस्तक्षेप का संभवत: यह अब तक का सबसे बड़ा आनलाइन उपकरण है। ला मोंद या दूसरे मीडिया हाउसों ने इस किस्म की टिप्पणियां द वायर की रिपोर्ट पर भरोसा करते हुए की थीं। अब 23 अक्तूबर को वायर ने टेक फॉग पड़ताल से जुड़ी रिपोर्टों को भी ‘आंतरिक समीक्षा की रिपोर्ट आने तक’ अपनी वेबसाइट पर सार्वजनिक दृष्टि से छिपा लिया है।
फेसबुक पर निशाना
सोशल मीडिया से जुड़े आरोप नए नहीं हैं। अमेरिकी अखबार ‘वॉलस्ट्रीट जर्नल’ में 14 अगस्त, 2020 को प्रकाशित एक रिपोर्ट में फेसबुक के अनाम सूत्रों के साक्षात्कारों का हवाला देते हुए खबर दी गई कि भारतीय नीतियों से जुड़े फेसबुक के वरिष्ठ अधिकारी ने सांप्रदायिक आरोपों वाली पोस्ट के मामले में तेलंगाना के एक भाजपा विधायक पर स्थायी पाबंदी को रोकने से जुड़े मामले में दखलंदाजी की थी। मोटा आरोप था कि सत्तापक्ष के प्रति नरमी बरती जाती है और विवादित सामग्री को हटाने की नीति पर ठीक से अमल नहीं होता। वॉलस्ट्रीट जर्नल के बाद रायटर्स ने खबर दी कि फेसबुक पर भारत में सामग्री के नियमन से जुड़ी प्रक्रियाओं का उल्लंघन हो रहा है।
गौर करें कि ज्यादातर रिपोर्ट आंतरिक सूत्रों, स्रोतों और विह्सल ब्लोवरों के हवाले से आती रही हैं। पर इस बार आंतरिक स्रोतों की पुष्टि करने के प्रयास में आरोप लगाने वाले खुद फंस गए हैं। इतना ही नहीं, अपने ही आंतरिक स्रोत के खिलाफ उन्होंने पुलिस में शिकायत की है। इसकी शुरुआत इंस्टाग्राम की कुछ पोस्टों को हटाए जाने के प्रसंग से हुई, जिसके कारण मेटा का नाम उछला, जिसके पास इंस्टाग्राम, फेसबुक और वॉट्सऐप का स्वामित्व है। मेटा और इंस्टाग्राम के आंतरिक सूत्रों का उल्लेख भी इन रिपोर्टों में किया गया, पर यहीं से दिक्कतें पैदा हुई। मेटा के पदाधिकारियों ने उन तथ्यों को गलत बताया, जिन्हें उद्धृत किया गया था। साथ ही द वायर मेटा की एक आंतरिक मेल की पुष्टि भी नहीं कर पाया, जिसका उल्लेख किया गया था।
इस साल जनवरी में टेक फॉग को लेकर वायर ने जो पड़ताल की थी, उसमें रिपोर्टों के सूत्र विह्सिल ब्लोवर और इन संस्थाओं के आंतरिक स्रोत बताए गए थे। इस रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद भाजपा विरोधी राजनीतिक दलों ने काफी शोर मचाया और कांग्रेस ने उच्चतम न्यायालय से कहा कि वह अपने विशेषज्ञ पैनल से इस मामले की जांच कराए। संयोग से उन्हीं दिनों पेगासस सॉफ्टवेयर से जुड़ा मामला भी चल रहा था।
पश्चिमी द्वेष की झलक
लोकतंत्र की वैश्विक लड़ाई लड़ने वाली अमेरिकी सरकार पर अफगानिस्तान, वियतनाम, इराक और दूसरे इलाकों में निर्दोष लोगों की हत्या का आरोप है। अमेरिका ने ऐसे निदोर्षों बच्चों और स्त्रियों की संख्या को कभी नहीं बताया, जो अमेरिकी ड्रोनों और लड़ाकू विमानों की बमबारी से मारे गए। न्यूयॉर्क टाइम्स, वॉशिंगटन पोस्ट, वॉलस्ट्रीट जरनल जैसे अखबारों ने कभी इन मौतों पर वैसा होहल्ला नहीं मचाया, जैसे कश्मीर में पाकिस्तानी इशारे पर हो रही हिंसक कार्रवाइयों को काबू में करने की कोशिशों को लेकर मचाया है।
भारत सरकार के खिलाफ शोर मचाने वाले भारतीय मीडिया प्लेटफॉर्मों को पश्चिम से भी आर्थिक सहायता और प्रोत्साहन मिलता है। पिछले साल इंटरनेशनल प्रेस इंस्टीट्यूट (आईपीआई) ने 2021 का फ्री मीडिया पायनियर अवॉर्ड द वायर को दिया था। आईपीआई के बारे में कहा जाता है कि यह मीडिया अधिकारियों, संपादकों और पत्रकारों का एक वैश्विक नेटवर्क है, जिसका उद्देश्य दुनिया भर में स्वतंत्र प्रेस की रक्षा करना है। यह पुरस्कार इंटरनेशनल मीडिया सपोर्ट (आईएमएस) के सहयोग से दिया जाता है।
आईपीआई को यूरोपियन आयोग, स्वीडन, आस्ट्रिया की सरकारों और जॉर्ज सोरोस के ओपन सोसाइटी फाउंडेशन से आर्थिक सहायता मिलती है। आईएमएस को स्वीडन, नॉर्वे और डेनमार्क की सरकारों से आर्थिक सहायता मिलती है। इन दातव्य संस्थाओं की भारतीय राजनीति में दिलचस्पी है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की बैठक में जॉर्ज सोरोस कश्मीर के मसले को उठा चुके हैं और आईपीआई ने अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन की भारत यात्रा के दौरान प्रेस की आजादी के मसले को उठाने का आग्रह किया था।
आईपीआई ऐसे अमेरिकी कानूनों का सवाल नहीं उठाता, जो आतंकवाद के विरुद्ध बनाए गए हैं, पर भारत के कानूनों का सवाल उठाता है। पश्चिम की संस्थाओं और मीडिया में भारतीय-राष्ट्रवाद से नफरत और श्वेत प्रभुत्व को पढ़ा जा सकता है। यह प्रवृत्ति बढ़ रही है। कोविड-19 के दौरान जलती चिताओं की तस्वीरों ने इस बात को साबित किया।
टिप्पणियाँ