मौलाराम, उत्तराखण्ड राज्य की प्राचीन संस्कृति, इतिहास, कला एवं साहित्य को विरचित करने वाले उस व्यक्ति का नाम है, जिसने अपनी अद्वितीय प्रतिभा से गढ़वाल के अति दुर्लभ इतिहास को वर्तमान पीढ़ी के लिए सहेज कर रखा था। मौलाराम गढ़वाल चित्रशैली के महान चित्रकार थे, उनके चित्रों में गढ़वाल चित्रशैली अपने चरमोत्कर्ष पर देखी जा सकती है।
16वीं सदीं के मध्यकाल में भारत पर मुगल आक्रमणकारी आतताई शाहजहां के पुत्रों के मध्य उत्तराधिकार को लेकर संघर्ष प्रारंभ हुआ था। उत्तराधिकार के इस भयानक संघर्ष में अपने ही सगे भाई-भतीजों की हिन्दू हत्यारें आक्रांता औरंगज़ेब ने निर्मम हत्या करा दी थी। इन विकट परिस्थितियों में दाराशिकोह का पुत्र सुलेमान शिकोह ने अपने आतताई चाचा औरंगजेब के भय से मई सन 1658 में भागकर उत्तराखण्ड के गढ़वाल राज्य में शरण ली थी। सुलेमान शिकोह को पिता की हत्या के उपरान्त उसकी भी बेदर्दी से हत्या हो सकती है, का भय निरंतर सता रहा था। गढ़वाल राज्य में सुलेमान शिकोह के साथ चित्रकार कुंवर श्यामदास और उनके पुत्र हरदास भी गढ़वाल आये थे। गढ़वाल के शासक महाराज पृथ्वीशाह ने इन्हें प्रश्रय दिया और अपने राज्य में चित्रकारी आदि का काम इन्हें सौंप दिया था। पेशे से स्वर्णकार हरदास के वंश में मौलाराम का जन्म मंगत राम एवं रामी देवी के घर सन 1743 में वर्तमान उत्तराखण्ड के गढवाल में हुआ था। तत्कालीन गढ़वाल राज्य में मौलाराम अपनी पांचवीं पीढ़ी में पैदा हुए थे।
मौलाराम नें सन 1777 से सन 1804 तक महाराज प्रदीप शाह, महाराज ललित शाह, महाराज जयकृत शाह और महाराज प्रद्युम्न शाह के शासनकाल में कार्य किया था। मौलाराम गढ़वाली चित्रकला शैली के प्रथम आचार्य, कवि, चित्रकार, दार्शनिक, इतिहासकार व कुशल राजनीतिज्ञ भी थे। तात्कालिक गढ़वाल शासक जयकृत शाह के समय जब भयानक विद्रोह हुये तो मौलाराम ने गढ़वाल शासक की ओर से सिरमौर के शासक के पास एक चित्र के ऊपर कविता लिखकर एक संदेश भेजा था। उक्त संदेश से सिरमौर के शासक जगत प्रकाश बेहद प्रसन्न हुये थे। राजा जगत प्रकाश ने श्रीनगर पहुंचकर उक्त सैन्य विद्रोह को दबाया था। उत्तराखंड में उस समय गौरखा आधिपत्य हो जाने पर भी मौलाराम के गौरखों से अच्छे सम्बंध बने रहे। मौलाराम ने नेपाल शासक रणबहादुर और गीवार्णयुद्ध विक्रम शाह के सम्मान में प्रशंसा की थी, उन्होंने ही नेपाल शासक रणबहादुर को दानवीर कर्ण की उपाधि दी थी। राजा प्रदीपशाह मौलाराम से चित्रकारी सीखने टिहरी से श्रीनगर आते थे। लेकिन अत्यंत दुर्भाग्य का विषय रहा कि मौलाराम को गढ़वाल शासकों ने कभी भी राजकवि का दर्जा नहीं दिया था।
मौलाराम को गुरु रायसिंह ने चित्रकला का प्रशिक्षण दिया था। मौलाराम बहुभाषावादी थे, वह हिन्दी, फारसी, ब्रजभाषा और संस्कृत के अच्छे विद्वान थे। उनकी रचनाएं इन सभी भाषाओं में उपलब्ध हैं। कलिदास द्वारा रचित अभिज्ञानशकुन्तलम का हिन्दी अनुवाद मौलाराम ने किया था। उन्होंने स्वरचित ग्रन्थों में स्वयं के लिये संत तथा साधु शब्द का प्रयोग किया था। उत्तराखण्ड के श्रीनगर नामक सुंदर नगर निर्माण भी मौलाराम ने करवाया था। मौलाराम ने चित्रों में गढ़वाली शैली का प्रयोग सर्वप्रथम किया था। उन्होंने ही गढ़वाल चित्र शैली को सम्पूर्ण विश्व में एक नई पहचान दी थी। गढ़वाल चित्र शैली को सदैव अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये उन्होंने एक विद्यालय की भी स्थापना की थी। मौलाराम के चित्रों की विशेषता इनके चित्र और कवित्व के समन्वय में है। मौलाराम वंशवादी शासन के पतन, अत्याचारी गोरखा आधिपत्य के उत्थान और पतन के प्रत्यक्ष साक्षी थे। वह साधू, संतों, नाथों और सिद्धों से बेहद प्रभावित रहते थे।
मौलाराम प्रारम्भ में गोरखनाथ सम्प्रदाय के समर्थक थे, परंतु बाद में इन्होंने मन्मथ सम्प्रदाय को अपनाया था। मौलाराम ने मन्मथ पंथ लिखा जो उनके आध्यात्मिक अनुभवों का वर्णन करता है। उन्होंने अपनी कविताओं में प्रकृति के मिलन और अलगाव के रूपों को चित्रित करके प्रेम और अलगाव के चित्रों का वर्णन करने में पूरी कुशलता के साथ किया है। उनके हस्तलिखित सात काव्य ग्रंथ अभी तक उपलब्ध हैं। उनकी रचनाओं में गधराजवंश, श्रीनगर दुर्दशा और मन्मथ सागर आदि महत्वपूर्ण हैं। गधराजवंश ब्रजभाषा की सर्वश्रेष्ठ रचना है। मौलाराम ने हिंदी पद्य में सबसे प्रसिद्ध रचना बड़ी ही खूबसूरती के साथ गढ़वाल राजवंश का इतिहास लिखा है। गढ़राजवंश काव्य में मोलाराम ने गोरखा वीरों के युद्ध कौशल का वर्णन किया है। उन्होंने गोरखाली-अमल, दीवाने-इ-मौलाराम, बख्तावर-जस-चन्द्रिका में गौरखाओं के क्रूर शासन का वर्णन किया है। उनके द्वारा रचित मन्मथ सागर हस्तलिखित ग्रन्थों में सबसे बड़ा आध्यात्मिक ग्रन्थ है।
मौलाराम की मृत्यु सन 1833 में उत्तराखण्ड के श्रीनगर में ही हुई थी। उनके देहावसान के पश्चात उनकी रचनाएं, चित्र नष्ट हो गये या बिखर गये थे। मौलाराम के बनाये चित्र ब्रिटेन के संग्रहालय, बोस्टन संग्रहालय, अमेरिका, हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के संग्रहालय, भारत कला भवन बनारस, अहमदाबाद के कस्तूर भाई लाल भाई संग्रहालय, श्रीनगर, लखनऊ, दिल्ली, कोलकाता तथा प्रयाग के संग्रहालय, आर्ट गैलरी में सुरक्षित तथा संग्रहित है। गढ़वाल चित्रशैली को देश-विदेश के अनेक संग्रहालयों में देखा जा सकता है।
उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध व्यक्तित्व बैरिस्टर मुकंदीलाल ने सन 1968 में भारत सरकार के प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित पुस्तक गढ़वाल पेंटिंग्स लिखी, जिसके माध्यम से मौलाराम के विभिन्न चित्रों और रेखाचित्रों को प्रदर्शित करते हुए गढ़वाल स्कूल ऑफ पेंटिंग के इतिहास का पता लगाया गया था। मौलाराम के चित्र एवं कृतियों को सर्वप्रथम बैरिस्टर मुकंदीलाल ने सन 1969 में विश्व पटल पर प्रस्तुत किया था। गढ़वाल पेंटिंग्स और समनोटस ऑन मौलाराम आदि रचनायें लिखकर बैरिस्टर मुकंदीलाल ने उन्हें विश्वप्रसिद्ध व्यक्तित्व बना दिया था। अजीत घोष, आनंद कुमार स्वामी जैसे प्रतिष्ठित चित्र समीक्षकों ने मौलाराम के चित्रों की बेहद प्रशंसा की है। राजपुत्र चित्रकला पुस्तक के लेखक डॉ. आनंद कुमार स्वामी ने अपनी पुस्तक में मौलाराम को गढ़वाली चित्रकला शैली का आचार्य घोषित किया है। हिमालयन आर्ट्स पुस्तक के लेखक जेसी फ्रेंच ने अपनी पुस्तक में मौलाराम की बेहद प्रशंसा की है। उनके चित्र गढ़वाल पेंटिंग्स के नाम से आज भी विश्व की प्रसिद्ध आर्ट गैलरी बोस्टन में सुरक्षित है। उत्तराखण्ड के सर्वाधिक प्रतिभावान व्यक्तित्व मौलाराम को गुमनामी के दौर से निकलने में मृत्यु के पश्चात भी अंततः 136 वर्ष लग गए थे।
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