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तुलसी-शालिग्राम का मंगल परिणय और पर्यावरण रक्षा का विधान

देवोत्थान एकादशी-तुलसी विवाह पर विशेष

by पूनम नेगी
Nov 4, 2022, 03:16 pm IST
in धर्म-संस्कृति
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सनातन हिंदू धर्म में कार्तिक को सर्वाधिक पवित्र माह माना जाता है। इस महीने की देवोत्थान एकादशी को श्री हरि व तुलसी विवाह का पावन उत्सव देवत्व के जागरण के आध्यात्मिक संदेश के साथ वैदिक मनीषा के पर्यावरण दर्शन के अनूठे तत्वज्ञान को भी संजोए हुए है। मान्यता है कि आषाढ़ शुक्ल की देवशयनी एकादशी से वर्षाकाल के चार माह तक जगतपालक श्रीहरि विष्णु की योगनिद्रा की अवधि होती है। मांगलिक कार्य श्रीहरि की साक्षी में होते हैं, इसी कारण चौमासे में मंगल उत्सव रुक जाते हैं। वर्षाऋतु की समाप्ति के बाद देवोत्थान एकादशी के शुभ दिन श्रीहरि योगनिद्रा से जागते हैं।

‘’उत्तिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पतये। त्वयि सुप्ते जगन्नाथ जगत्सुप्तं भवेदिदम्॥’’

अर्थात -हे गोविंद! अब आप जग जाइए। निद्रा का त्याग कर आप उठ जाइए जगन्नाथ क्योंकि आपके सोते रहने से यह सम्पूर्ण जगत सोता रहेगा। शास्त्र कहते हैं कि ऋषियों की इस प्रार्थना को सुनकर श्रीहरि योगनिद्रा से बाहर आकार सृष्टि संचालन में पुनः सक्रिय हो जाते हैं। चूंकि तुलसी श्री हरि को प्राणप्रिय हैं, इसलिए जागरण के बाद सर्वप्रथम तुलसी के साथ उनके विवाह का आयोजन किया जाता है। तत्पश्चात रुके हुए मांगलिक कार्य पुनः शुरू हो जाते हैं।

श्री हरि व तुलसी के विवाह के पीछे रोचक पौराणिक कथानक है। श्रीमद्भागवत के अनुसार प्राचीन काल में जलंधर नाम का एक महाशक्तिशाली असुर था। उसे वरदान प्राप्त था कि जब तक उसकी पत्नी उसके मंगल की प्रार्थना करती रहेगी, कोई भी उसका अनिष्ट नहीं कर सकेगा। इसी कारण जब भी वह युद्ध भूमि में होता, वृंदा पूजन वेदी पर बैठकर सतत उसके मंगल की कामना करती रहतीं। जलंधर महादेव का अंश था और श्री हरि की परमभक्त वृंदा के तपबल की शक्ति उसके पास थी। सभी देव शक्तियां उसके समक्ष स्वयं को अक्षम पा रही थीं। तब ब्रह्मा जी के सुझाव पर सभी देवगण भगवान विष्णु के पास पहुंचे और उनसे जलंधर के आतंक से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। तब लोकमंगल के लिए श्रीहरि जलंधर का वेश बनाकर उस समय वृंदा के समक्ष प्रकट हो गये, जब वह युद्ध भूमि में देवों से युद्ध लड़ने गया था। अचानक पति को सामने खड़ा देख वृंदा का ध्यान जप-पूजन से भंग हो गया और वह आश्चर्य से उसकी ओर देखने लगीं। वृंदा की पूजा टूटते ही युद्धभूमि में जलंधर मारा गया। जब वृंदा को वास्तविकता पता चली तो क्रोध से भरकर वह अपने आराध्य को पाषाण हो जाने का श्राप देकर स्वयं प्राण त्यागने को प्रस्तुत हो उठीं। इस पर श्रीहरि ने वृंदा को जलंधर के अन्याय व अत्याचारों से अवगत कराते हुए बताया कि किस तरह वह भी अपरोक्ष रूप से अपने पति के अत्याचारों की सहभागी बनी हैं। पूरी बात सुनकर वृंदा को गलती का अहसास हुआ और कहा कि इस पतित देह के साथ अब वह क्षणभर भी जीना नहीं चाहतीं। इस पर श्रीहरि ने उन्हें अपनी अनन्य भक्ति का वरदान देते हुए कहा हे वृंदा तुम मुझे प्राणप्रिय हो। इसलिए तुम्हारा श्राप भी मुझे शिरोधार्य है। मेरे आशीर्वाद से अपनी चिता की राख से तुम सृष्टि की सर्वाधिक हितकारी औषधि ‘तुलसी’ के रूप में विकसित होगी और मेरे पाषाण स्वरूप ‘शालिग्राम’ से तुम्हारा मंगल परिणय संसारवासियों के आह्लाद का निमित्त बनेगा।

यही वजह है कि सनातनधर्मी समाज में देवोत्थान एकादशी के दिन तुलसी और शालिग्राम का विवाह अत्यंत लोकप्रिय धार्मिक आयोजन माना जाता है। इस मांगलिक अवसर पर सनातन धर्मावलम्बी तुलसी चौरे को गोमय एवं गेरू से लीपकर तुलसी के पौधे को लाल चुनरी-ओढ़नी ओढ़ाकर सोलह श्रृंगार के सामान चढ़ाते हैं। फिर गणेश पूजन के बाद तुलसी चौरा के पास गन्ने का भव्य मंडप बनाकर उसमें भाव श्रद्धा से शालिग्राम को स्थापित कर विधि-विधानपूर्वक विवाह आयोजन किया जाता है। मंडप, वर पूजा, कन्यादान आदि सब कुछ पारम्परिक हिंदू रीति-रिवाजों के साथ निभाया जाता है। यह सारा आयोजन यजमान सपत्नीक मिलकर करते हैं। मान्यता है कि तुलसी विवाह का यह आयोजन करने से कन्यादान के समतुल्य फल मिलता है और वैवाहिक जीवन सुखमय होता है।

देवोत्थान एकादशी की पावन तिथि पर्यावरणीय रक्षा के सूत्र भी संजोए हुए है। मान्यता है कि इस तिथि को तुलसी जी पृथ्वी लोक से बैकुंठ में चली जाती हैं और देवताओं की जागृति होकर उनकी समस्त शक्तियां पृथ्वी लोक में आकर लोक कल्याणकारी बन जाती हैं। तुलसी को माता कहा जाता है। तुलसी पत्र चरणामृत के साथ ग्रहण करने से अनेक रोग दूर होते हैं। तुलसी पत्र व मंजरी वर्ष भर देवपूजन में प्रयोग होते हैं। तुलसी दल अकाल मृत्यु से बचाता है। वैष्णव उपासकों के लिए तुलसी जी का विशेष महत्व होता है। वह तुलसी की माला पहनते हैं और जपते हैं। तुलसी पत्र के बिना भोजन नहीं करते। तुलसी की महिमा बताते हुए भगवान शिव देव ऋषि नारदजी से कहते हैं- हरिप्रिया तुलसी का पत्ता, फूल, फल, मूल, शाखा, छाल, तना और मिट्टी आदि सभी पूजनीय व पवित्र हैं। जिनघरों में तुलसी का पौधा लगाया जाता है, वहां सदैव सुख-शांति और समृद्धि रहती है और आस-पास का वातावरण पवित्र होता है। यही वजह है कि प्राचीन युग से ही हमारी संस्कृति और हमारे घरों में इस अमृततुल्य बूटी की स्थापना और सम्मान होता आया है। आज भी हमारे घरों में सुबह-शाम इसकी आरती-पूजा का विधान है और लोग मानते हैं कि जिस घर तुलसी, वह घर निरोगी।

Topics: Hinduismदेवोत्थान एकादशीतुलसी विवाहतुलसी शालिग्राम का विवाहDevotthan Ekadashi and Tulsi VivahTulsi VivahPrabodhini Ekadashi
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