टोंस नदी किनारे कालसी में हैं सम्राट अशोक के ऐतिहासिक शिलालेख

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उत्तराखंड ब्यूरो

उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से करीब सौ किमी की दूरी पर एक ऐतिहासिक स्थान है, जिसे सम्राट अशोक काल से जुड़ा हुआ कहा जाता है। उनके कार्यकाल में बनाए गए यहां के शिलालेख अशोक के चौदह वृहद शिलालखों में से एक है, जिसमें पियदस्सी अशोक के आंतरिक प्रशासन और राजा–प्रजा के प्रशासनिक, आध्यात्मिक, नैतिक संबंधों के बारे में बौद्ध पंथ के अनुसार नीतिगत बातें दर्ज हैं।
करीब ढाई सौ ईसा पूर्व का वो दौर संस्कृत के उच्च कुलीन समझे जाने और पाली या प्राकृत भाषाओं की जनस्वीकृति का भी था। देवानांप्रिय अशोक ने इस शिलालेख को ब्राह्मी लिपि और प्राकृत भाषा में उत्कीर्ण करवाया ताकि जन–जन तक ये विचार पहुंच सकें। शिलालेख कालसी में हैं। कालसी, टोंस नदी के किनारे बसा हुआ कस्बा है। टोंस नदी के उस पार हिमाचल है।

कहते हैं हिमाचल झुककर टोंस में ही तो अपना मुखड़ा निहारता है। उसकी पियदस्सी सी छाया यहां उतर आती है। टोंस यहां से गुजर कर यमुना में मिलती हुई दिल्ली को कूच कर जाती है। यानी यमुना और टोंस का संगम। एक नामालूम सी नदी भी है अमलावा, वो भी यमुना में मिल जाती है। शिलालेख में कालसी को `अपरांत’ व कालसी निवासियों को `पुलिंद’ शब्द से संम्बोधित किया गया है।

गौर से देखने पर शिला के उत्तरी पटल पर एक हाथी बना दिखता है जिसके नीचे संस्कृत शब्द ‘गजतमे’ लिखा है। हाथी आकाश से उतरता प्रतीत होता है, जिसका आशय माता गौतमी के गर्भ में बुद्ध के अवतरित होने से है। संभवतः. ये गज मुझे गज–शार्दूल प्रतिमा की याद दिलाता है जो जौनपुर के शाही पुल पर एक ठसके के साथ विराजमान है। लड़कपन की सुनी सुनाई किवदंती तो उसी समय पोपली हो गई थी जब अल्मोड़ा के कसार देवी की ऊंचाई पर ऐसी ही एक मूर्ति के दर्शन हुए। ये इतिहास का अंत नहीं था। उसकी परतों का उधड़–उधड़ जाना था। किवदंती में ये प्रतिमा शेर शाह सूरी, जिनका निशान चिन्ह शेर था, की हुमायूं, जिनकी सेना में हाथी ही हाथी थे, के ऊपर जीत की प्रतीक थी। अब ये लगता है कि शेर के अन्दर दबा हुआ हाथी धर्म की लड़ाई में जीत का प्रतीक है क्योंकि ये जानवर द्वय मूर्तियां मंदिरों में भी पाई जाती हैं।

इस शिलालेख की ख़ास बात ये है कि इसमें सभी चौदह (एक से बारह लेख और तेरहवें की शुरुआती पंक्तियां) शिलालेखों की बातें उल्लिखित हैं, सिकंदर, टोलमी और अन्य यूनानी–मिश्री बादशाहों का ज़िक्र भी है। सवा दो हज़ार साल या उससे भी ज़्यादा पुराने इस शिलालेख को भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 में ब्रिटिश इंडिया के उच्चतम मिलिट्री अवार्ड विक्टोरिया क्रॉस से नवाज़े गए जॉर्ज फॉरेस्ट ने अपने आखिरी दिनों में देहरादून में रहते हुए खोजा था।

जब वह शिला प्राप्त हुई थी कहते हैं तब उसपर लिखे शब्द और चित्र बहुत धुंधले हो चुके थे। इसके बाद ऑर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के तत्कालीन डायरेक्टर जनरल कनिंघम ने इस पर शोध किया, ज़रूरी खोजबीन की और साफ़-सुथरा करने के बाद दुनिया के सामने लाने का काम किया। 1915 के आस-पास इसे एक कमरे में संरक्षित किया गया। अब उस कमरे और इस शिला पर धूल और लापरवाही ने अपनी मोटी परतें बिछा दी हैं।

यदि उत्तराखंड सरकार या भारत सरकार इस शिलालेख के स्थल को पर्यटन नक्शे पर उभारे तो यहां और भी बहुत से रमणीक स्थलों को इससे जोड़ा जा सकता है। कालसी से आगे ही पांडव काल का लाक्षागृह लाखामंडल क्षेत्र है और हिमाचल उत्तराखंड के रक्षक देव, महासू का भी मंदिर है, जहां की आस्था दोनों राज्यों के निवासियों में है।

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