बिहार के चंपारण में थारू जनजाति के लोग बड़ी संख्या में रहते हैं। ये लोग प्रकृति प्रेमी होते हैं। इसलिए पर्यावरण की रक्षा के लिए संकल्पित होते हैं। इन्हें सदियों पुरानी अपनी संस्कृति से भी अत्यंत लगाव होता है। इनके प्रकृति प्रेम की चर्चा स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लॉकडाउन के समय की थी। इनकी दीपावली प्रकृति और पूर्वजों को समर्पित होती है। ये लोग दो दिन दीपावली मनाते हैं।
पश्चिम चंपारण के बगहा, गौनाहा और रामनगर के लगभग 200 गांवों में लगभग ढाई लाख थारू समाज के लोग रहते हैं। वाल्मीकि नगर टाइगर रिजर्व के पास बसे थारू दिवाली को दीयाराई या दिवारी कहते हैं। पर्व का प्रारंभ धान के पौधे को काटने से होता है। धान का पौधा काटकर उसे ब्रह्मस्थान पर रखा जाता है। दिवारी के लिए महिलाएं अपने हाथ से मिट्टी के दीए बनाती हैं। सबसे पहले ये दीए रसोईघर के भंडारकोना (उत्तर – पश्चिम दिशा के कोने) में जलाए जाते हैं। इनकी मान्यता है कि इससे सालो भर घर में अन्न की कमी नहीं रहती। इसके बाद जल प्राप्ति के स्थल यथा कुंआ, हैंड पंप (चापाकल) पर दीया जलाया जाता है। सबसे अंत में दहरचंडी (अग्निदेव) के सामने दीया जलाकर गांव की सुरक्षा की कामना की जाती है।
इस दिन पूर्वजों के स्मरण में बड़ी रोटी खाने की भी प्रथा है। अपने मृत पूर्वजों को याद कर उनका पुतला बनाया जाता है। पुतले की पूजा अर्चना कर पूर्वजों को श्रद्धांजलि दी जाती है। इसके बाद बड़ी रोटी खाने का कार्यक्रम होता है। इसमें सिर्फ निकट संबंधी और परिवार के लोग ही हिस्सा लेते हैं। इसी दिन तेरहवीं का कार्यक्रम होता है। थारू समाज में किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है तो उसे चारपाई पर श्मशान ले जाया जाता है। उसके बाद शनिवार को बड़ी रोटी खाई जाती है। तेरहवीं की रस्म दिवारी के दिन की जाती है। बड़ी रोटी में नमक छोड़कर सभी चीजें स्वयं के खेत की उपज होती है।
दियराई के दूसरे दिन होता है सोहराई
दिवारी या दीयराई के दूसरे दिन सोहराई मनाया जाता है। इस दिन घरों में गोजा-पिट्ठा और मांस-मछली बनता है। पशुओं को नहलाया जाता है। उनका श्रृंगार होता है। इस दिन पशुओं को सीता फल में हल्दी और नमक मिलाकर प्रसाद रूप में खिलाया जाता है। पहले सोहराई में भैंसे और सुअर की लड़ाई होती थी, लेकिन वन्य जीव संरक्षण कानून बनने के बाद उसे बंद कर दिया गया है।
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