मातूराम की एक जलेबी 250 ग्राम की होती है यानी एक किलो में चार जलेबियां चढ़ती हैं।
बात भारत की मिठास को दुनिया में पहुंचाने की हो और और हरियाणा के सोनीपत जिला स्थित गोहाना कस्बे के मातूराम की जलेबी की चर्चा न हो, यह संभव नहीं है। गोहाना की जलेबी को वैश्विक पहचान दिलाने का श्रेय स्व. लाला मातूराम को जाता है। मातूराम की जलेबियों की खासियत यह है कि यह ऊपर से करारी होती हैं और अंदर से नरम।होती है।
मातूराम के पौत्र लाला रमन बताते हैं कि 1958 में गोहाना की पुरानी अनाज मंडी में उनके दादा ने लकड़ी के एक खोखे पर जलेबियों का काम शुरू किया था। छोटी जलेबियां जल्दी ठंडी हो जाया करती थीं। इसलिए वे बड़ी बनाने लगे। मातूराम की जलेबियां शुद्ध देशी घी में बनती हैं और इसमें रंग या रसायन भी नहीं डाला जाता है।
चीनी को दूध से साफ किया जाता है। ये जलेबियां लकड़ी की भट्ठी की संतुलित आंच पर तैयार होती हैं। 1987 में लाला मातूराम के निधन के बाद उनके बड़े पुत्र राजेंद्र प्रसाद गुप्ता ने पिता की विरासत को न केवल आगे बढ़ाया, बल्कि विश्व के कोने-कोने तक पहुंचा दिया। इस जलेबी का स्वाद पाकिस्तान, चीन, जापान, नेपाल, सिंगापुर, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, मलेशिया, सऊदी अरब तक जा पहुंचा है। 2001 में राजेंद्र गुप्ता के निधन के बाद विरासत के विस्तार की जिम्मेदारी उनके बेटों नीरज और रमन को मिली है।
स्थिति यह है कि अब हर पर्व, शादी, त्यौहार, मंगल उत्सव एवं समारोह में लाला मातूराम की जलेबी विशेष उपहार, स्मृति एवं सम्मान के लिए उपयोग की जाने लगी है। पूर्व उप प्रधानमंत्री चौधरी देवीलाल, पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला, भूपेंद्र सिंह हुड्डा, वर्तमान मुख्यमंत्री मनोहरलाल व उनके मंत्री इसके मुरीद रहे हैं।
पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ के आगरा आने पर हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला ने सम्मान एवं उपहार के तौर पर उन्हें मातूराम जलेबी के 50 डिब्बे भिजवाए। राष्ट्रमण्डल खेलों में भारत सरकार की तरफ से विदेशी मेहमानों के लिए मातूराम की जलेबी विशेष तौर पर तैयार करवाई गई थी।
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