दीपक हम भारतीयों की आस्था का सबसे सनातन प्रमाण है, जिसके दिव्य आलोक में हम वैदिक काल से वर्तमान तक प्रकाश पर्व का अनुष्ठान करते आये हैं। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ के वेदवाक्य का संदेश देने वाले दीपोत्सव की पंच दिवसीय पर्व श्रृंखला हमारी स्वर्णिम सभ्यता व संस्कृति की विभिन्न धाराओं को ठौर देती है। विभिन्न स्थानीय विशिष्टताओं के साथ देश व दुनिया में दीपावली का आलोकपर्व हर्षोल्लास से मनाया जाता है। दीपावली के मौके पर प्रस्तुत हैं उत्तराखंड के कुमाऊं व गढ़वाल मंडल की इस महापर्व की पौराणिक व ऐतिहासिक परम्पराओं से जुड़ी कई रोचक जानकारियां-
कुमाऊं मंडल का दीप उत्सव
कुमाऊं मंडल में दीपपर्व का श्रीगणेश शरद पूर्णिमा से होता है। इसी शुभ दिन से कुमाऊंनी लोग लगातार एक माह तक आकाशदीप प्रज्ज्वलित करते हैं। धनतेरस के दिन से शुरू होने वाली दीपावली की पांच दिवसीय श्रृंखला का स्वागत घर के प्रवेश द्वार, दीवारों, आँगन तथा घर के देवस्थान में ऐपण ( भीगे हुए चावल को पीस कर बनाये गये लेप, गेरू और स्थानीय पवित्र लाल मिट्टी जिसे स्थानीय भाषा में बिस्वार कहते हैं, से बनायी गयी उत्तराखंड की परंपरागत रंगोली) बना कर किया जाता है। बीते कुछ दशकों में धनतेरस पर नये बर्तन खरीदने की परम्परा देवभूमि में भी खासी लोकप्रिय हो चुकी है। शाम को माँ महालक्ष्मी को भोग लगाकर परिवार के सभी सदस्यों की प्रसाद बांटने की परम्परा है। धनतेरस के अगले दिन छोटी दीपावली पर शाम को घर की देहरी पर यम का दिया जलाया जाता है। महानिशा के दिन कुमाऊं मंडल में अधिकांश परिवारों में महिलाएं व्रत रखती हैं और घर की बहू व बेटियां गन्ने के तीन तनों से मां लक्ष्मी की प्रतिमा निर्माण कर उसे नथ आदि आभूषणों और लहंगा चुनरी से सजाकर उसे घर के मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा कर शुभ मुहूर्त पर विशेष पूजन करती हैं। कुमाऊं में महालक्ष्मी पूजन के दिन खासतौर पर केले, दही व घी के मिश्रण से सिंगल (मालपुवे ) तथा झंगोरा (प्राकृतिक रूप से पैदा बारीक सफेद दाने वाले झंगोरे को हिंदी में सांवा चावल कहते हैं) की खीर का भोग महालक्ष्मी को लगाया जाता है। महालक्ष्मी पर्व के दूसरे दिन गो संरक्षण का संकल्प लेकर गोवर्द्धन की पूजा की जाती है। इस दिन गोवंश के लिए भात, बाड़ी (मंडुवे के आटे का फीका हलवा) और जौ का पींडू (आहार) तैयार किया जाता है। सबसे पहले गोवंश के पांव धोये जाते हैं और फिर दीप-धूप जलाकर उनकी पूजा की जाती है। माथे पर हल्दी का टीका और सींगों पर सरसों का तेल लगाकर उन्हें परात में सजा अन्न ग्रास दिया जाता है। इसे ‘गो ग्रास’ कहते हैं। अगले दिन भैयादूज का त्योहार मनाया जाता है। इस दिन विवाहित बेटियां पांच दिंनों से तांबे के पात्र में भिगोये गये पर्वतीय लाल धान को कपड़े पर सुखाकर उसे ओखली में कूट व सूप से फटक कर साफकर भाइयों का च्युड़ पूजन कर उनके सुखी, संपन्न व खुशहाल जीवन की मंगल कामना के साथ उनके माथे पर तिलक लगाती हैं। महालक्ष्मी पूजन के 11वें दिन देवोत्थान एकादशी को कुमाऊं में बूढ़ी दीपावली धूमधाम से मनायी जाती है।
गढ़वाल के चार बग्वाल
गढ़वाल मंडल में प्रकाश पर्व एक नहीं वरन चार बार मनाया जाता है। गढ़वाली भाषा में दीवाली को ‘बग्वाल’ और एकादशी को ‘इगास’ कहा जाता है। कार्तिक बग्वाल के अतिरिक्त इगास बग्वाल, राज बग्वाल और मार्गशीर्ष बग्वाल के रूप में। स्थानीय निवासियों की मान्यता है कि कार्तिक अमावस्या के दिन लक्ष्मी जागृत होती हैं, इसलिए महानिशा पर सौभाग्य व समृद्धि की देवी मां लक्ष्मी का पूजन विघ्नहर्ता गणेश के साथ किया जाता है। इस कार्तिक बग्वाल (दीपावली) के एक दिन पूर्व टिहरी जनपद में राज बग्वाल (दीपावली) को मनाने की अनोखी परम्परा है। इसे केवल डोभाल मनाते हैं। यह अधिकार इसे रियासत के समय से मिला था इसलिए यह प्रथा डोभाल में आज भी प्रचलित है। इसके बाद कार्तिक बग्वाल पूरे भारत में एक तय तिथि के अनुसार मनाया जाता है। कार्तिक दीपावली के ठीक ग्यारह दिन बाद आकाश दीवाली मनायी जाती है जिसे स्थानीय भाषा में ‘इगास’ कहते हैं। इस कार्तिक बग्वाल के ठीक 11 दिन बाद हरि प्रबोधनी इगास (एकादशी) पर जब श्रीहरि शयनावस्था से जागृत होते हैं तो उस दिन इस दिन विष्णु के साथ मां लक्ष्मी की पूजा की जाती है। ज्योति पर्व दीपावली का उत्सव इसी दिन पराकाष्ठा को पहुंचता है, इसलिए पर्वों की इस शृंखला को ‘इगास-बग्वाल’ नाम दिया गया। इस बारे में पौराणिक मान्यता है कि भगवान राम के 14 वर्ष के वनवास से अयोध्या लौटने की खबर गढ़वाल वासियों को 11 दिन बाद मिली, इसी कारण से गढ़वाल में अमावस्या के लक्ष्मी पूजन के 11 दिन बाद इगास को भारी हर्षोल्लास से मनाने की परंपरा है। एक अन्य मान्यता है कि वनवास के बाद पांडवों में से चार भाई घर वापस लौट गये लेकिन भीम कहीं युद्ध में फंस गए। ग्यारह दिन बाद जब वे घर लौटे तो इगास उत्सव मनाया गया।
कार्तिक दीपावली के ठीक एक माह पश्चात् मार्गशीर्ष की दीपावली मनायी जाती है जिसे स्थानीय भाषा में ‘रिख बग्वाल’ कहते हैं। कार्तिक माह के एक महीने पश्चात् मार्गशीर्ष में इस दीपावली को मनाने की परम्परा है इसलिए इसको मार्गशीर्ष दीपावली कहा जाता है। जनश्रुति है कि वर्ष 1800 की शुरुआत में गोरखाओं ने गढ़वाल पर आक्रमण कर दिया था। उनके अत्याचारों से गढ़वाली जनता भयंकर रूप से त्रस्त हो चुकी थी। जनता का दर्द देख गढ़वाल नरेश महाराज प्रद्युम्न शाह ने 1803 में गोरखाओं से लोहा लिया। बताया जाता है कि महाराज कार्तिक अमावस्या यानी दीपावली के दिन रणक्षेत्र में गए थे। इसलिए टिहरी रियासत (अब टिहरी और उत्तरकाशी)की जनता दीपावली नहीं मना सकी। एक माह बाद महाराज गोरखाओं को गढ़वाल की सीमाओं से बाहर खदेड़कर वापस लौटे। इस कारण मार्गशीर्ष की अमावस्या को दीए जलाकर खुशियां मनायीं। तब से गढ़वाल मंडल में इस दिन दीपावली मनाने की परंपरा शुरू हो गयी।
देवलांग की पूजा परम्परा
इसी तरह गढ़वाल की बनाल पट्टी के गैर गांव में दीपावली के दिन देवलांग का पर्व बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। इस पर्व पर अमावस्या की रात क्षेत्र के 66 गांव के हजारों लोग देवदार की टहनियां लेकर और मंदिर में पहुंच कर देव स्वरूप वृक्ष देवलांग की परिक्रमा कर पूजा अर्चना करते हैं और उसके बाद रात भर नृत्य करते हुए उत्सव मनाते हैं। उत्तरकाशी के डुण्डा ब्लॉक के धनारी पट्टी के पुजार गांव में स्थित सिद्धेश्वर मंदिर के प्रांगण में दीवाली मेले का आयोजन किया जाता है। मेले में बड़ी दीपावली के दिन जंगल से एक सूखा पेड़ काट कर लाया जाता है और उसे गांव के नजदीक रखकर उसकी निगरानी करते हुए रातभर ग्रामीण कीर्तन भजन करते हैं। अगली सुबह देवताओं की डोली के साथ इस पेड़ पर छिलके बांध कर तीन गांवों की रस्सी को बांधकर छिलकों को जलाकर पेड़ को खड़ा कर दिया जाता है। बाद में रस्सी को जलने से बचाने के लिए गांव का एक व्यक्ति पेड़ पर चढ़ता है कि यदि रस्सी जल गई या पेड़ गांव की तरफ झुक गया तो उस गांव में नुकसान होता है। इसलिए इस दिलंग मेले को बड़ी सावधानी से मनाया जाता है।
दीप जलाने के साथ ‘’भैलो’’ खेलने का रिवाज
उत्तराखंड की सभ्यता-संस्कृति के साथ यहां तीज त्योहारों को मनाने का तरीका भी बेहद निराला है। दीपावली पर यहां दीप जलाने के साथ ‘’भैलो’’ नाम का स्थानीय खेल खेलने का रिवाज है। भैलो पेड़ों की छाल से बनी रस्सी होती है। दीवाली के दिन लोग इस रस्सी के दोनों सिरों पर आग लगा कर इसे सर के ऊपर गोल गोल घुमाकर रात भर पूरे गाँव में नाचते गाते हैं। भैलो खेलते समय लोग ढोल दमाऊ की थाप पर ‘झिलमिल झिलमिल, दिवा जगी गैनि, फिर बौड़ी ऐ ग्ये बग्वाल जैसे गढ़वाली लोकगीत इस माहौल में चार चांद लगा देते हैं। गढ़वाल में दीपपर्व के मौके पर स्थानीय फसलों के पकवान तैयार किए जाते हैं। हर घर में गेहूं, चावल, जौ व मडुवे के आटे से स्वाले, अरसा, रूटाना आदि पकवान बनाए जाते हैं। इसके अलावा उरद दाल बरा, झिंगोरा खीर, आटे के लड्डू व हलवा आदि त्योहारी व्यंजनों को बड़ी थाली या परात में सजा कर प्रसाद रूप में अर्पित किया जाता है।
सीमाओं पर भी रहता है खासा उत्साह
दीपावली के पर्व पर सीमाओं में भी भारी उत्साह रहता है। आइटीबीपी की सेना चौकियों व चमोली के जोशीमठ ब्लॉक की सीमावर्ती सुरक्षा चौकियों में दीपावली पूजन के आयोजन की लम्बी परम्परा है। इन सैन्य चौकियों में लक्ष्मी पूजा के बाद दीये जलाये जाते हैं, आतिशबाजी की जाती है और विशेष दावत का भी आयोजन किया जाता है। बताते चलें कि दीपावली से पहले जो भी जवान छुट्टी से वापस लौटता है वह दीये और आतिशबाजी का सामान पोस्ट पर लेकर जाता है। काबिलेगौर हो कि जवानों की हौसलाअफजाई के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बीते कई सालों से उनके साथ दीपावली मना रहे हैं।
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