यह नेताजी सुभाष चंद्र बोस का नेतृत्व कौशल और दूरदर्शिता ही थी, जिसने अंग्रेजों के विरुद्ध असंभव लगने वाले स्वाधीनता संघर्ष को न केवल सफलता के मुहाने पर पहुंचाया, बल्कि भारतीयों में अप्रतिम उत्साह का संचार भी किया। दुर्भाग्य से जर्मनी और जापान ने मित्र राष्ट्रों के सामने घुटने टेक दिए, जिससे आजाद हिंद फौज का विजय अभियान थम गया
आधुनिक भारतीय इतिहास में 21 अक्तूबर, 1943 की तिथि अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसी दिन सिंगापुर में ‘आजाद हिंद’ नाम से भारत की स्वतंत्र सरकार बनी थी। तिरंगे को राष्ट्रध्वज और ‘जन-गण-मन’ को राष्ट्रगीत की मान्यता दी गई। हालांकि यह एक अस्थायी सरकार थी, लेकिन इसने एक सुव्यवस्थित प्रशासनिक तंत्र की स्थापना की, जिसमें बैंक, मुद्रा, डाक विभाग, गुप्तचर विभाग के अलावा गांधी, सुभाष और नेहरू नाम से सेना के तीन डिवीजन भी थे। रानी झांसी रेजिमेंट नाम से महिला ब्रिगेड भी बनी। आजाद हिंद बैंक ने 10 रुपये से लेकर एक लाख रुपये तक के नोट जारी किए थे। सरकार गठन के बाद नेताजी सुभाषचंद्र बोस इसके मुखिया और सेना के सर्वोच्च कमांडर बने। ए.सी. चटर्जी वित्त विभाग, एस.ए. अय्यर प्रचार विभाग तथा लक्ष्मी स्वामीनाथन स्त्री मामलों के विभाग की प्रमुख घोषित की गई।
आपस में अभिवादन के लिए ‘जय हिंद’ का प्रयोग शुरू हुआ। जिन देशों ने आजाद हिंद सरकार को मान्यता दी, उन देशों में सरकार ने अपने दूतावास खोले। इस सरकार को जर्मनी, जापान, इटली, चीन, कोरिया, मांचूको, आयरलैंड, बर्मा, फिलीपीन्स जैसे नौ देशों ने मान्यता दी थी। सरकार ने हिंदी के उत्थान के लिए भी अभूतपूर्व प्रयास किए। फौज में प्रशिक्षण के दौरान सेना में प्रयुक्त होने वाले अंग्रेजी शब्दों का स्थान हिंदी ने ले लिया। रंगून और सिंगापुर को मुख्यालय बनाकर सेना का पुनर्गठन और धन एकत्र करने का काम शुरू हुआ, जिसमें प्रवासी भारतीयों ने उत्साहपूर्वक योगदान दिया। नेताजी सुभाष ने कहा था, ‘‘अस्थाई सरकार का यह कर्तव्य होगा कि वह भारत भूमि से ब्रिटिश लोगों एवं उनके मित्रों को भगाए। भारतीय जनता का विश्वास हासिल कर उनकी मर्जी के मुताबिक स्थाई सरकार बनाना इसका दूसरा कर्तव्य होगा।’’ यहां दूसरा कर्तव्य से आशय लोकतंत्र की पवित्र भावना का उद्घोष है, न कि सर्वाधिकारवाद का।
आजाद हिंद फौज का विजय अभियान
आजाद हिंद सरकार ने 23 अक्तूबर, 1943 को धुरी देशों के पक्ष में मित्र राष्ट्रों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की। धुरी देशों में नेताजी को जो अनुकूल परिस्थितियां मिलीं, वह प्रवासी भारतीय क्रांतिकारियों के तीन-चार दशकों के परिश्रम का प्रतिफल था। इनमें रास बिहारी बोस, डॉ. चंपक पिल्लै आदि प्रमुख थे, जिन्हें बोस का अग्रज माना जा सकता है। प्रवासी भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न करने में रास बिहारी के साथ स्वामी सत्यानंद पुरी और प्रीतम सिंह बरानी ने भी योगदान दिया।
स्वतंत्र भारत सरकार की सेना आजाद हिंद फौज का ब्रिटिश सेना से कड़ा संघर्ष शुरू हुआ और इसने महत्वपूर्ण सफलताएं हासिल कीं। नवंबर 1943 में इसने अंदमान एवं निकोबार द्वीप समूह पर अधिकार कर लिया। फरवरी 1944 तक ब्रिटिश सेना को पीछे धकेलते हुए आजाद हिंद फौज रामू, कोहिमा, पलेल, तिद्दिम आदि भारतीय सूबों तक पहुंच गई। मार्च में मणिपुर रियासत पर हमला हुआ और अप्रैल 1944 में इम्फाल संघर्ष क्षेत्र बना। सितंबर में हिंद फौज कोहिमा तक पहुंच गई। ऐसा लग रहा था कि भारतमाता की बेड़ियां काटने का समय निकट आ गया है। क्रांतिकारी सैनिक मातृभूमि तक पहुंच चुके थे, लेकिन नियति फिर भारत के विपरीत रही।
दरअसल, 1943 से ही धुरी राष्ट्रों का गुट कमजोर पड़ने लगा था। 1945 की शुरुआत में जर्मनी व जापान मित्र देशों की सेनाओं से घिरने लगे। अगस्त 1945 में इनके आत्मसमर्पण के बाद विश्वयुद्ध समाप्त हो गया और आजाद हिंद फौज को जर्मन-जापानी सहायता मिलनी बंद हो गई। इससे विजय अभियान थम गया। तब शत्रु देशों से नेताजी को सुरक्षित निकाल कर उन्हें तोक्यो लाया गया, जहां से 18 अगस्त, 1945 को फोरमोसा के पास एक विमान दुर्घटना में उनकी संदेहास्पद मृत्यु की सूचना प्रसारित हुई। इस तरह, भारतीय स्वतंत्रता के एक गौरवमय संघर्ष का दु:खद अंत हो गया। अगस्त 1945 में तोक्यो की अपनी अंतिम यात्रा से पूर्व नेताजी ने अपने साथी से कहा था, ‘‘हबीब, अनुभव कर रहा हूं कि मैं शीघ्र ही मर जाऊंगा। मैं भारत की स्वतंत्रता के लिए अंत तक लड़ता रहा। मेरे देशवासियों से कहना कि भारत शीघ्र स्वतंत्र हो जाएगा। स्वतंत्र भारत चिरंजीवी हो। जय हिंद!’’ नेताजी बलिदान हो गए, लेकिन राष्ट्र आज भी उनका संघर्ष नहीं भूला।
नेताजी के रणनीतिकार
त्रिरूअनंतपुरम में 1891 में जन्मे डॉ. चंपक रमण पिल्लै 12 भाषाओं के जानकार, अर्थशास्त्र व अभियांत्रिकी में पीएचडी थे। जर्मनी की मदद से भारत को ब्रिटिश दासता से मुक्ति दिलाने के लिए उन्होंने इंडियन नेशनल पार्टी की स्थापना की। इसमें लाला हरदयाल, तारकनाथ दास, चंद्र कुमार चक्रवर्ती, हेडम्बलाल गुप्त, वीरेंद्र चट्टोपाध्याय और राजा महेंद्र प्रताप जैसे क्रांतिकारी थे। इनके कहने पर ही जर्मन सम्राट ने भारतीय समुद्र तटों पर ‘एमडन’ पनडुब्बी भेजी, जिसके वे सहायक कमांडर थे। यह पनडुब्बी दक्षिणी-पूर्वी तट पर पहुंच भी गई। उनकी योजना अंदमान पर हमला कर वीर सावरकर समेत अन्य क्रांतिकारियों को मुक्त कराने की थी, लेकिन 11 नवंबर, 1914 को एक हमले में पनडुब्बी नष्ट हो गई। ब्रिटिश सरकार ने डॉ. पिल्लै पर एक लाख रुपये का इनाम रखा था। वे काबुल में (राजा महेंद्र प्रताप के नेतृत्व में) गठित भारत की प्रथम अस्थाई सरकार में विदेश मंत्री भी रहे। वियना में 1933 में नेताजी से भेंट के बाद उन्होंने ब्रिटिश फौज पर हमले की योजना बताई। नेताजी की आईएनए में उन्होंने सैन्य रणनीति का संचालन किया। मई 1934 को 46 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।
आजाद हिंद फौज के गुमनाम सिपाही
सत्येंद्र चंद्र बर्धन- मलाया में डाक एवं तार कार्यालय में नौकरी करते थे। नेताजी से प्रभावित होकर आइएनए में भर्ती हुए। गुप्तचर टोली के साथ उन्हें भारत भेजा गया, जिसे अंग्रेजी सरकार की सूचनाएं लीग को भेजनी थी और जनता को क्रांति के लिए तैयार करना था। काठियावाड़ में गिरफ्तार हुए। इन पर मुकदमा चला और 10 सितंबर, 1943 को फांसी दे दी गई।
ठाकुर मानु कुमार बासु- ब्रिटिश-भारतीय सेना में सिपाही थे। आजाद हिंद फौज से प्रभावित होकर मद्रास के समुद्री तट पर चौथी सुरक्षा सेना ने विद्रोह कर दिया। इसमें बासु भी शामिल थे। उनका कोर्ट मार्शल हुआ और 27 सितंबर, 1943 को उन्हें फांसी दे दी गई। आठ अन्य विद्रोहियों निरंजन बरुआ, नंद कुमार डे, सुनील कुमार मुकर्जी, दुर्गा दास चौधरी, फणी भूषण चक्रवर्ती, नरेंद्र मोहन मुकर्जी एवं कालीपाधा एच. को भी फांसी दी गई।
करनैल सिंह- फिरोजपुर (पंजाब) के करनैल सिंह युवावस्था में मलाया चले गए, जहां वे ट्रक चलाते थे। नेताजी के आह्वान पर अपना ट्रक आजाद हिंद सेना को सौंप कर फौज में भर्ती हो गए। उन्होंने बर्मा में इरावती तट और पोपा पहाड़ियों पर ब्रिटिश सेना से मुठभेड़ में बहादुरी का परिचय दिया। जुलाई 1944 में वे युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए।
टी.पी. कुमारन नायर- कालीकट (केरल) में जन्मे नायर पुलिस विभाग में कार्यरत थे। 1931 में भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी से दु:खी होकर नौकरी छोड़ दी और मलाया चले गए। वहां से सिंगापुर पहुंचे और आईएनए में खुफिया विभाग में भर्ती हुए। जासूसी के दौरान इम्फाल में इनकी गिरफ्तारी हुई और मद्रास जेल में 7 जुलाई, 1944 को फांसी दे दी गई।
अजैब सिंह- अमृतसर में जन्मे अजैब सिंह जोहोर बहरू मलय प्रदेश में रहते थे। आईएनए में जासूस के तौर पर उन्होंने कुशलतापूर्वक भारत से बर्मा के बीच अपना काम किया। अंग्रेजों द्वारा पकड़े जाने के बाद सैन्य अदालत द्वारा दिल्ली जेल में उन पर मुकदमा चला और 24 अगस्त, 1944 को फांसी दी गई।
दुर्गामल- देहरादून के डोईवाला कस्बे में जन्मे दुर्गामल अंग्रेजी सेना की गोरखा राइफल्स में हवलदार थे। नेताजी से प्रभावित होकर आईएनए में भर्ती हुए। इम्फाल-मणिपुर-कोहिमा के युद्ध में अपूर्व वीरता का प्रदर्शन किया। 27 मार्च, 1944 को गिरफ्तार हुए। जासूसी के आरोप में अंग्रेजी सैन्य अदालत में मुकदमा चला और 25 अगस्त, 1944 को दिल्ली जेल में फांसी दी गई।
जागे राम- रोहतक के जागे राम ब्रिटिश भारतीय सेना में हवलदार थे। सितंबर 1942 को वे आजाद हिंद फौज में भर्ती हुए और 28 अगस्त, 1944 को वीरगति को प्राप्त हुए।
डी.एस. देशपांडे- जापान में रहते थे और रासबिहारी बोस के विश्वासपात्र थे। आईएनए के प्रति समर्थन जुटाने के लिए इन्होंने दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों का लगातार दौरा किया। ऐसे ही एक दौरे से जापान लौटते समय अप्रैल 1945 में अमेरिकी सेना ने उनके जहाज पर हमला कर उसे डुबो दिया, जिसमें देशपांडे बलिदान हो गए।
फौजा सिंह- पंजाब के फौजा सिंह ब्रिटिश फौज में सिपाही थे। बर्मा में अंग्रेजों से बगावत कर नेताजी के साथ हो गए। बाद में अंग्रेज सरकार उन्हें गिरफ्तार कर दिल्ली ले आई। यहां उन पर देशद्रोह का मुकदमा चला। उन्हें 1945 में गोली मार दी गई।
केसरी चंद- चकराता (उत्तर प्रदेश) के रहने वाले केसरी ब्रिटिश फौज में सिपाही थे। आईएनए की ओर से इम्फाल, कोहिमा और पोपो पहाड़ियों पर लड़े। अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार कर उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। 1945 में दिल्ली में उन्हें फांसी दे दी गई।
इनके अलावा, जगन्नाथ भोसले, अनिल चटर्जी, लोकनाथन आदि आजाद हिंद सेना से जुड़े अनेक गुमनाम स्वतंत्रता सेनानी हैं, जिन्हें राष्ट्र ने विस्मृत कर दिया है।
गांधी ने कहा था अव्यावहारिक
आजाद हिंद सरकार का गठन अचानक नहीं हुआ था। कांग्रेस के 1929 के लाहौर अधिवेशन के दौरान नेताजी बोस ने समानांतर सरकार के गठन का प्रस्ताव रखा था। इसका उद्देश्य स्वतंत्रता के प्रस्ताव को व्यावहारिक रूप प्रदान करना था। लेकिन मोहनदास करमचंद गांधी ने प्रस्ताव को गैर-जिम्मेदाराना कह कर अस्वीकृत कर दिया। लेकिन नियति ने नेताजी को दूसरे तरीके से यह अवसर दिया। रास बिहारी बोस की पहल पर मार्च 1942 को तोक्यो सम्मेलन हुआ, जिसमें स्वतंत्रता के लिए युद्ध को अनिवार्य बताते हुए भारतीयों की एक सेना संगठित करने का प्रस्ताव पास हुआ।
जून 1942 में बैंकॉक सम्मेलन में दक्षिण-पूर्वी एवं पूर्वी एशिया के विभिन्न देशों के प्रवासी भारतीय शामिल हुए। इसमें नेताजी को नेतृत्व सौंपने का फैसला लिया गया। इसके बाद जर्मन और जापानी सेना की मदद से नेताजी सिंगापुर पहुंचे और स्वतंत्र सरकार व सेना का नेतृत्व ग्रहण किया। इससे सबसे बड़ा बदलाव यह आया था कि जो सेना रास बिहारी के नेतृत्व में जापानी फौज का अंग मानी जाती थी, वह भारत के क्रांतिकारी आंदोलन का हिस्सा बन गई।
इससे पहले दिसंबर 1915 को राजा महेंद्र प्रताप की अध्यक्षता में काबुल में अस्थायी सरकार का गठन हुआ था, लेकिन इसके बाद सुभाष बाबू के नेतृत्व में गठित स्वतंत्र भारत की सरकार पूर्व की भांति प्रतीकात्मक नहीं थी। इसने बाकायदा एक नियमित फौज के माध्यम से स्वघोषित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए भगीरथ प्रयास किए। लक्ष्य प्राप्ति में ब्रिटेन के प्रतिद्वंद्वी देशों की सहायता अपेक्षित थी। नेताजी के नेतृत्व में आजाद हिंद सरकार ने भारत के स्वाधीनता संघर्ष के प्रश्न को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के संकुचित दायरे से बाहर खींचकर अंतरराष्ट्रीय फलक पर लाकर खड़ा कर दिया।
नतीजा, धुरी राष्ट्रों का एक शक्तिशाली गठबंधन भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का पक्षधर बन गया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौर में इस आंदोलन की शक्ति और विस्तार कांग्रेस के आंदोलनों की सीमाओं से अधिक विस्तृत नजर आता है। यह भी सच है कि अगस्त क्रांति के दौरान अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष की प्रेरणा मुख्यत: विदेशों में बोस और उनके साथियों के अभियानों से मिली। स्वतंत्र भारतीय सरकार और आजाद हिंद फौज के कारण ही बहुत से भारतीयों के मन में यह विश्वास जगा कि दक्षिण-पूर्व एशिया में जापान भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार या भारत पर कब्जा करने के बारे में नहीं सोचेगा।
आसान नहीं था बेड़ियां तोड़ना
150 वर्ष से जमी ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकना न तो आसान था और न ही भारत इसमें सक्षम था। दूसरे देशों का सहयोग जरूरी था। आधुनिक विश्व इतिहास पर गौर करें तो जर्मनी ने अपने एकीकरण (1862-1871) के लिए आस्ट्रिया के विरुद्ध इटली का, फिर फ्रांस के विरुद्ध आस्ट्रिया का समर्थन लिया। इटली ने भी अपने एकीकरण (1815-1870) के लिए आस्ट्रिया के विरुद्ध फ्रांस और ब्रिटेन का समर्थन लिया। बोअर युद्ध के समय जर्मनी ने बोअरों की अस्त्र-शस्त्र से तथा तुर्की में कमाल पाशा के विद्रोह के समय फ्रांसीसियों ने सहायता की थी।
भारतीय क्रांतिकारी वर्ग भी ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध विदेशी सहायता का समर्थक और आकांक्षी था। क्रांतिकारी शचींद्रनाथ सान्याल ने अपनी आत्मकथा ‘बंदी जीवन’ में लिखा है, ‘‘भारत की विप्लव चेष्टा को सार्थक करने के लिए विदेशी राजशक्ति की सहायता अत्यंत आवश्यक है। यह बात भारत के प्राय: सभी विप्लववादी स्वीकार करते थे। वे जानते थे कि पृथ्वी पर अंग्रेजों के जो अनेक शत्रु हैं, सुविधा और सुयोग पाने पर वे भारतवासियों को भी अंग्रेजों के विरुद्ध सहायता देने में पीछे न रहेंगे। यदि भारतवर्ष में वैसे उपयुक्त नेताओं का आविर्भाव हो जाए तो वे एक ऐसी अंतरराष्ट्रीय समस्या की सृष्टि कर सकेंगे, जिसके द्वारा पृथ्वी के शक्तिशाली साम्राज्यों के बीच प्रतिद्वंद्विता और ईर्ष्या का सदुपयोग कर वे भारतवर्ष को स्वाधीनता के उच्च शिखर पर ले जाने में समर्थ हो जाएं। संसार में ऐसे दृष्टांतों का अभाव नहीं है, जहां प्रबल राजशक्तियों के परस्पर द्वंद्व के कारण अपेक्षाकृत दुर्बल जातियां प्रबलों के ग्रास से छुटकारा पा गई हैं।’’
नेताजी ने दक्षिण-पूर्व एशिया की सभी जातियों और मत-पंथों के भारतीयों को एकजुट किया। इससे खान-पान, छुआछूत, जातिभेद के सारे संघर्ष मिट गए। सिर्फ एक लक्ष्य याद रहा, मातृभूमि की आजादी। इतिहास में पानीपत की पराजय का मुख्य कारण भारतीय समाज की एकता के अभाव को माना जाता है। जो कार्य पानीपत के तीसरे युद्ध में सदाशिव राव भाऊ और मराठा सेना नहीं कर पाई, उसे नेताजी के नेतृत्व में आजाद हिंद फौज ने कर दिखाया। इसके संघर्ष ने भारतीय समाज के उस संघर्षशील गौरव की पुनर्स्थापना की, जो अहिंसा व सत्याग्रह के आवरण में कहीं गुम हो गई थी। एनी बेसेंट ने 26 दिसंबर, 1917 को कोलकाता में अपने भाषण में कहा था, ‘‘कुरुक्षेत्र में तलवार टूटने के बाद भारत को जिस पीड़ा का सामना करना पड़ा है, वैसी पीड़ा किसी देश ने नहीं भोगी है।’’ आमजन ही नहीं, कांग्रेस भी ऊब गई थी
विप्लवी दौर तक आते-आते आम-जन ही नहीं, कांग्रेस नेतृत्व भी कोरे प्रवचनों के प्रति अरुचि प्रकट करने लगा था। स्वतंत्रता के सैनिकों के नाम पत्र में जयप्रकाश नारायण लिखते हैं, ‘‘मैं नि:संकोच स्वीकार करता हूं कि यदि वीरों की अहिंसा का एक बड़े रूप में प्रयोग किया जाए तो हिंसा की आवश्यकता न रह जाएगी। लेकिन जहां इस प्रकार की अहिंसा का अभाव है तो मैं नहीं चाहता कि कायरता शास्त्रीय एवं सिद्धांतगत सूक्ष्मताओं के आवरण में प्रकट होकर हमारे आंदोलन को विफल करने में सहायक हो सके।’’
डॉ. राममनोहर लोहिया ने ‘भारत विभाजन के गुनहगार’ में लिखा है, ‘‘सिविल नाफरमानी के मार्ग से अगर अहिंसा आदमी के सामूहिक जीवन का चौखट कभी बन सकी, तो भारतीय स्वाधीनता-संग्राम की विपत्तियों का औचित्य स्वयंसिद्ध होगा। कहा जाएगा कि संसार के हित के लिए भारत बलि का बकरा बना। राष्ट्र को प्राप्त हितों के दृष्टिकोणों से अहिंसा की जो बात करते हैं वे लोग दयनीय और अबोध हैं। अहिंसा नि:संदेह वीरों में वीर का हथियार है, पर वे उसका इस्तेमाल नहीं करते। उनकी अपनी बंदूकें और अपने परमाणु बम हैं। इसलिए उसका इस्तेमाल करने की जिम्मेदारी अपेक्षाकृत कमजोर और हीन लोगों पर आ पड़ी है।’’
दिसंबर 1940 में इसी भावना को वीर सावरकर ने मदुरै केभाषण में स्पष्ट करते हुए कहा था, ‘‘संपूर्णता में तुलनात्मक अहिंसा एक ऐसा गुण है जो मानवीय अच्छाइयों में योगदान करती है, जिससे मानव-जीवन चाहे वह व्यक्तिगत हो या सामाजिक, अपनी एक नीति तय करता है तथा सभी सामाजिक सुविधाएं विकसित होती हैं। लेकिन संपूर्ण अहिंसा यानी सभी परिस्थितियों में अहिंसा और वह भी उस समय, जब व्यक्ति या राष्ट्रीय मानव जीवन को सहायता करने के बदले मानवता के खिलाफ अपरिचित हानि करती है, उसकी नैतिक पतनशीलता के रूप में निंदा की जानी चाहिए।’’ ढाई दशक से जिस स्वतंत्रता संघर्ष को ‘नारीत्व गुणों’ से भर दिया गया था, वह अपनी भावुकता त्याग कर अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध सन्नद्ध था। सुभाष बाबू ने तय कर लिया था कि वे अहिंसा और सत्याग्रह के वे सभी वैचारिक आभूषण उतार फेंकेंगे, जो तत्कालीन कांग्रेसी आंदोलन का शृंगार बने हुए थे। बोस के जीवन दर्शन का अवलोकन करें तो वे सदैव गांधीवादी आंदोलन के तौर-तरीकों से अलग दिखते हैं।
कांग्रेस का तिलिस्म टूटा
1928 को कलकत्ता अधिवेशन के समय वे सैनिक पोशाक पहनकर घोड़े पर 7,000 सुसज्जित स्वयंसेवकों के नेता के रूप में सामने आए। नेताजी ने सनातन परंपरा को पूर्ण आत्मसात किया जो कहती है-‘‘अहिंसा परमो धर्म:, धर्म हिंसा तथैव च’’ अर्थात् धर्म की रक्षा के लिए हिंसा सर्वोच्च कर्तव्य है। सुभाष बाबू अपने आलेख ‘देश की पुकार’ (11 पौष, 1932, बांग्ला) में लिखते हैं, ‘‘गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है, ‘स्वधर्मे निधनं श्रेय: पर धर्मो भयावह:। मैं इसी उक्ति में विश्वास रखता हूं। एक बंगाली के लिए स्वधर्म का त्याग आत्महत्या के समान पाप है।’’ भारतीय मानस पर आजाद हिंद फौज के विराट प्रभाव को देखकर नेताजी के प्रयासों की कटु आलोचक रही कांग्रेस भी उनके समर्थन में आ गई। पद्मा श्रीवास्तव के शब्दों में, आजाद हिंद फौज समर्थक समग्र आंदोलनों का समर्थन करने के साथ ही आजाद हिंद के सिपाहियों के मुकदमों की पैरवी एवं उनके सहायतार्थ कमेटी आदि गठित कर कांग्रेस ने इस संघर्ष से उत्पन्न सभी ‘यश’ को स्वयं ग्रहण कर लिया। इस होड़ में मुस्लिम लीग और कम्युनिस्ट दल भी शामिल थे, जो संपूर्ण अगस्त क्रांति के दौरान ब्रिटिश समर्थक थे।
आजाद हिंद सरकार का महत्वपूर्ण प्रभाव यह पड़ा कि इसके सैनिकों पर चलने वाले मुकदमों ने अहिंसक कांग्रेसी आंदोलन का तिलिस्म ध्वस्त कर दिया और समूचे राष्ट्र को आंदोलित कर दिया। बाद में 1946 में क्रांति की जो जबरदस्त लहर अस्तित्व में आई, उसके मूल में नेताजी और आजाद हिंद फौज का संघर्ष था। गुप्तचर ब्यूरो के तत्कालीन निदेशक ने माना कि ‘‘शायद ही कोई और मुद्दा हो, जिसमें भारतीय जनता ने इतनी रुचि दिखाई हो। यह कहना गलत नहीं होगा कि जिसे इतनी व्यापक सहानुभूति मिली हो।’’ रजनी पामदत्त अपनी प्रसिद्ध किताब ‘आज का भारत’ में ब्रिटिश फौज पर भारतीय सेना के प्रभाव की व्याख्या इस प्रकार करते हैं, ‘‘भारतीय जवानों में राष्ट्रभक्ति का संचार हो रहा था और ब्रिटिश सैनिक द्वितीय महायुद्ध के उपरांत ब्रिटिश साम्राज्य के खोने के कारण पास होकर लौट रहे थे। ब्रिटिश हुकूमत को अहसास हो चुका था कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को कुचलने की चेष्टा की गई तो भारतीय जवान बगावत कर देंगे।’’ यह आशंका सच साबित हुई।
दुनिया भर से समर्थन जुटाया
रास बिहारी बोस का जन्म 25 मई, 1886 में बंगाल में हुआ। शुरुआत में वे चारुचंद्र राय के क्रांतिकारी समिति ‘सुहृद सम्मेलन’ से जुड़े। कलकत्ता में जतींद्रनाथ मुखर्जी के संपर्क में आए और नौकरी छोड़ पिता के पास शिमला आ गए। देहरादून के वन विभाग में क्लर्क की नौकरी करने के दौरान उनकी भेंट जे.एम. चटर्जी से हुई, जो लाला हरदयाल के यूरोप जाने के बाद उनका कार्यभार संभाल रहे थे। इसी के बाद वे क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय हुए और अपनी दक्ष योजना और कार्यकुशलता के कारण शीर्ष क्रांतिकारियों में गिने जाने लगे। बाद में वे जापान गए और भारतीय क्रांतिकारी दल को संगठित किया। 1937 में चीन-जापान युद्ध के समय इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की स्थापना की। 11 दिसंबर, 1941 को उनके प्रयास से भारतीय राष्ट्रीय सेना की स्थापना हुई जो बाद में आजाद हिंद फौज कहलाई। 15 फरवरी, 1942 को सिंगापुर पर जापानी कब्जे के बाद प्रधानमंत्री तोजो द्वारा भारत को स्वतंत्र कराने में मदद की घोषणा के बाद, जून से दिसंबर 1942 तक उन्होंने दक्षिण-पूर्व एशिया के विभिन्न देशों का दौरा कर भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के लिए सहानुभूति तथा सहायता इकट्ठी की। अप्रैल 1943 में वे सिंगापुर पहुंचे और 4 जुलाई को ऐतिहासिक सम्मेलन में उन्होंने संघ और सेना का नेतृत्व नेताजी को सौंप दिया। लंबी बीमारी के बाद 21 जनवरी, 1945 में उन्होंने जापान के एक अस्पताल में अंतिम सांस ली।
जनवरी 1946 में बंबई में वायु सैनिकों ने हड़ताल कर दी। इसके बाद फरवरी में नौसेना ने विद्रोह कर दिया। इस पर तत्कालीन एडमिरल गॉडफ्रे ने कहा था, ‘‘यह तो एक तरह से खुली बगावत है जो 1857 के गदर की याद दिलाती है।’’ ब्रिटिश सत्ता का भारत में स्थायित्व का सबसे प्रमुख आधार सैन्य शक्ति थी, पर आजाद हिंद सरकार और आईएनए के प्रभाव ने उस आधार को ही खत्म कर दिया। सुमित सरकार ने लिखा है, ‘‘बहुत संभव है कि अंग्रेजों के शीघ्र भारत छोड़ने के निर्णय के पीछे यही सबसे बड़ा निर्णायक कारण रहा हो।’’
नि:संदेह, नेताजी सुभाषचंद्र बोस लोकमान्य तिलक एवं अरविन्द घोष की परंपरा के वास्तविक उत्तराधिकारी थे। डॉ. लोहिया की भाषा में नेताजी देश में कर्म के प्रतीक हैं। राष्ट्र ने उन्हें कर्तव्य का साक्षी मानकर उनके सम्मान में ‘कर्तव्य पथ’ की स्थापना की। हालांकि इसमें कई दशकों की देर हुई। कुछ राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता, नेतृत्व की व्यक्तिगत कुंठा और नेताजी की कीर्ति से ईर्ष्या, जनता को बरगलाने, नैतिकताविहीन तथाकथित बुद्धिजीवियों की आलोचना और अफवाहों जैसी रुकावटें आर्इं, लेकिन भारत ने अपने नायक में आस्था का परित्याग नहीं किया। आज भी सेना और पुलिस समेत सभी सशस्त्र बलों में ही नहीं, बल्कि आम भारतीय अपने रोजमर्रा के जीवन में अभिवादन के लिए ‘जय हिंद’ का प्रयोग करते हैं। यह प्रमाण है कि नायक सदैव राष्ट्र की चेतना में अमर रहते हैं।
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