सीमित संसाधनों के बीच जनसंख्या में निरंतर वृद्धि हानिकारक है। परंतु यदि बढ़ती आबादी पर नियंत्रण के लिए बिना सोच-विचार किए नीतियां बनाकर लागू दी जाएं, तो उसके परिणाम और भी अधिक घातक होंगे। भारतीय सनातन संस्कृति अक्षुण्ण रहे और हमारी एकता-अखंडता पर कोई आंच नहीं आए, उसके लिए आवश्यक है कि भारत में जनसंख्या नियंत्रण हेतु संतुलित और दूरदर्शी नीति को अपनाया जाए।
विजयदशमी (5 अक्तूबर) के अवसर पर सरसंघसंचालक श्री मोहन राव भागवत ने अन्य महत्वपूर्ण बातों के साथ एक बहुत ही संवेदनशील मुद्दे का भी उल्लेख किया। उन्होंने आबादी के असंतुलन पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा, ‘…जब-जब किसी देश में जनसांख्यिक असंतुलन होता है, तब-तब उस देश की भौगोलिक सीमाओं में भी परिवर्तन आता है।
जन्मदर में असमानता के साथ-साथ लोभ, लालच, जबरदस्ती से चलने वाला मतांतरण और देश में हुई घुसपैठ भी इसके बड़े कारण हैं। इन सबका विचार करना पड़ेगा…।’ भागवत जी ने यहां जिस आशंका को रेखांकित किया है, उससे सार्वजनिक जीवन में कार्यरत अधिकांश जनप्रतिनिधि परिचित तो हैं, परंतु संकीर्ण राजनीतिक कारणों से उसे जनविमर्श का हिस्सा बनाने से बचते हैं।
क्या यह सत्य नहीं कि ब्रिटिशकालीन भारत, जनसांख्यिकी में आए परिवर्तन के कारण ही विभाजित हुआ था? इस त्रासदी में जिन दो राष्ट्रों— पाकिस्तान और बांग्लादेश का जन्म हुआ, वह घोषित रूप से इस्लामी हैं। अपने वैचारिक अधिष्ठान के अनुरूप इन दोनों ही देशों में हिंदू, बौद्ध और सिख आदि अल्पसंख्यकों के लिए न तो कोई स्थान है और न ही उनके मानबिंदु (मंदिर-गुरुद्वारा सहित) सुरक्षित।
विडंबना है कि सिंधु नदी, जिसके तट पर हजारों वर्ष पूर्व ऋषि परंपरा से वेदों की रचना हुई और उपनिषदों को स्वरूप मिला— उस क्षेत्र में आज उनका नाम लेने वाला कोई नहीं बचा है। बात केवल यहीं तक सीमित नहीं है। वर्ष 1947 में भारतीय उपमहाद्वीप में भारत-उद्भूत पंथों (हिंदू, बौद्ध, सिख और जैन) के अनुयायी, कुल आबादी में 74 प्रतिशत थे।
वर्तमान समय में विश्व के इस भूखंड में 180 करोड़ लोग बसते हैं। यदि 1947 की जनसांख्यिकी को आधार बनाएं, तो भारतीय मतावलंबियों की संख्या आज 133 करोड़ होनी चाहिए थी किंतु यह 114 करोड़ है। यक्ष प्रश्न है कि शेष 19 करोड़ कहां गए?
भारत एक लोकतंत्र है, यहां किसी भी महत्वपूर्ण नीति से आमूलचूल परिवर्तन तभी संभव होगा, जब उस संबंध में व्यापक जनजागरण अभियान चलाया जाए। भारतीय सनातन संस्कृति अक्षुण्ण रहे और हमारी एकता-अखंडता पर कोई आंच नहीं आए, उसके लिए आवश्यक है कि भारत में जनसंख्या नियंत्रण हेतु संतुलित और दूरदर्शी नीति को अपनाया जाए।
इन सब तथ्यों के आलोक में स्पष्ट है कि भारतीय उपमहाद्वीप में जहां-जहां उसके मूल सनातन मतावलंबियों का भौतिक-भावनात्मक ह्रास हुआ, वहां-वहां भारत की भौगोलिक सीमा सिकुड़ती गई। सच तो यह है कि विश्व के इस भूखंड में भारत और उसकी सनातन संस्कृति उस हद तक ही जीवित है, जब तक उसके मूल पंथों के अनुयायियों का संख्याबल है। कोई भी विचार और संस्कृति केवल अपनी गुणवत्ता पर ही जिंदा नहीं रह सकती।
भागवत जी ने जनसंख्या संबंधित वक्तव्य में जिन तीन नए देशों— पूर्व तिमोर (ईसाई बहुल), दक्षिणी सूडान (ईसाई बाहुल्य) और कोसोवो (इस्लाम बहुल) का उदाहरण दिया था, वे 21वीं शताब्दी पूर्व तक क्रमश: मुस्लिम बहुल इंडोनेशिया, सूडान और ईसाई बहुल सर्बिया का भूभाग थे।
जनसंख्या नियंत्रण से संबंधित विवेकहीन नीति का समाज पर क्या दुष्प्रभाव पड़ सकता है, उसके लिए श्री भागवत ने चीन की एकल संतान की नीति का उदाहरण दिया है। सीमित संसाधनों के बीच जनसंख्या में निरंतर वृद्धि हानिकारक है। परंतु यदि बढ़ती आबादी पर नियंत्रण के लिए बिना विचार-विमर्श किए नीतियां बनाकर लागू दी जाएं, तो उसके परिणाम और भी अधिक घातक होंगे।
यदि बढ़ती जनसंख्या पर काबू पाने हेतु एकल संतान जैसी ज्ञानहीन नीतियां लागू की गई, तो आज के युवा, जो कल वृद्ध होंगे— उनकी देखभाल कौन करेगा? एक संतान होने के आर्थिक और सामाजिक खतरे हैं। इसमें सबसे बढ़कर – अकेला बच्चा पारंपरिक मानवीय संबंधों से विहीन हो जाएगा। इससे समाज में चाचा, मामा, चचेरे-ममेरे भाई-बहनों जैसे रिश्ते, जो सह-अस्तित्व, आपसी सहयोग और स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की भावना को पैदा करते हैं – वे सब लुप्त हो जाएंगे।
भारत एक लोकतंत्र है, यहां किसी भी महत्वपूर्ण नीति से आमूलचूल परिवर्तन तभी संभव होगा, जब उस संबंध में व्यापक जनजागरण अभियान चलाया जाए। भारतीय सनातन संस्कृति अक्षुण्ण रहे और हमारी एकता-अखंडता पर कोई आंच नहीं आए, उसके लिए आवश्यक है कि भारत में जनसंख्या नियंत्रण हेतु संतुलित और दूरदर्शी नीति को अपनाया जाए।
(लेखक भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी) के पूर्व अध्यक्ष और वरिष्ठ स्तंभकार हैं।)
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