राष्ट्र को जीवंत रखने के लिए लोक की भावना जरूरी है। हमें परंपरा को अपने जीवन में अनुभव करते हुए अगली पीढ़ी को सौंपते हुए चलना होगा। जिस समाज ने इस परंपरा को आगे बढ़ने नहीं दिया, वह परंपरा खत्म हो जाती है और संग्रहालय में रखने की वस्तु बनकर रह जाती है
राष्ट्र प्रथम का विचार, लोकपरंपरा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, दत्तात्रेय होसबाले, चैतन्ययुक्त, ‘लोक बियॉन्ड फोक’
लोकपरंपरा के उत्सव लोकमंथन 2022 के समापन सत्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह श्री दत्तात्रेय होसबाले ने अपना वक्तव्य लोकमंथन के परिचय से प्रारंभ किया। उन्होंने कहा कि सामान्यत: देश के बारे में सोचना समाज के विद्वतजनों, चिन्तकों और बुद्धिधर्मी लोगों का काम है। इसीलिए विचारक लोग इस तरह के विषयों पर सदियों से बोलते भी रहे हैं और विचार भी करते रहे हैं। लेकिन जो ज्यादा बोले नहीं, और मंच से तो कभी बोले ही नहीं परन्तु जिन्होंने मौन रूप से भारत की आत्मा के अंतस को सुदृढ़ करने और उसे चैतन्ययुक्त बनाकर रखने का प्रयास किया और बदले में किसी प्रतिफल की आकांक्षा नहीं रखी, लोकमंथन को ऐसे लोगों को अपने आयोजन में प्रमुखता से जोड़ना चाहिए। इसी विचार को आगे रखकर लोकमंथन को राष्ट्र सर्वोपरि एवं कर्मशीलों का राष्ट्रीय समन्वय कहा गया।
लोकमंथन में प्रयुक्त शब्द ‘लोक’ की व्याख्या करते हुए श्री होसबाले ने कहा, बीते तीन दिन में हमने जो मंथन किया है, विद्वानों ने उसमें जीवन के हर आयाम के बारे में कुछ न कुछ कहने का प्रयास किया है। इसे प्रकट करने वाली कृतियां मंच पर और परिसर में प्रस्तुत भी हुई हैं। अग्रेजी के ‘फोक’ शब्द का अनुवाद लोक किया जाता है। वास्तव में लोक वह नहीं है। लोकमंथन के मंच से ‘लोक बियॉन्ड फोक’ पुस्तक का लोकार्पण पहले हो चुका है। फोक और लोक जैसे शास्त्र और लोक, मार्ग और देसी, लिटरेरी और कोलोक्विअल, ग्रांथिक और वाचिक, दोनों में कुछ अंतर है। ऐसा कहने का प्रयास विचार-विमर्श गोष्ठियों में हम बार-बार देखते हैं।
उन्होंने कहा कि डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने कहा था कि लोक अपने जीवन का सागर है जहां लोक को अपने जीवन का अतीत और वर्तमान, सभी मिल जाते हैं। लोक राष्ट्र का चैतन्य स्वरूप है। राष्ट्र की जो लोकाभिव्यक्ति है, वह कई बार मार्ग और देसी, लोक और शास्त्र के विभाजन से ओझल हो जाती है। लोक, अवलोकन, आलोक, दृष्टि, जन, इस अर्थ से भी लोक अर्थ किया ही जाता रहा है। राष्ट्र, क्षेत्र, लोक यह सब एक साथ प्रयोग होने वाले शब्द हैं।
फिर उन्होंने इज्राएल की चर्चा करते हुए कहा, धरती पर बिखरा हुआ राष्ट्र इज्राएल 2000 वर्षों तक जीवित रहा। यहूदी इज्राएल की अपनी मातृभूमि पर नहीं रहे। उनकी राष्ट्र चेतना, परंपरा बोलचाल में जीवित रही, इस तरह एक राष्ट्र ने पीढ़ियों की यात्रा की। इसलिए राष्ट्र के जीवित रहने के लिए लोक की भावना आवश्यक है। वह भावना कृति में, विभिन्न प्रकार के जीवन के आयामों में कैसे प्रकट होती है, यही लोक परंपरा है, लोक है, लोक गीत हैं, लोक कथाएं हैं, लोक संस्कृति है, लोक व्यवहार है, लोकाचार है, लोकाभिराम है।’’
श्री होसबाले ने आगे कहा, ‘‘सुबह उठने के पश्चात बोला जाने वाला संस्कृत का एक श्लोक हम सब जानते हैं, ‘समुद्र वसने देवी पर्वत स्तन मण्डले। विष्णु पत्नी नमोस्तुभ्यं पाद: स्पर्श क्षमस्वमे।’ इसका अर्थ है-भूमि, इसके प्रति हम सभी कृतज्ञ हैं।’’
वे आगे बताते हैं- ‘‘पद्मश्री से सम्मानित कपिल तिवारी जी ने इसी मंच से लोकमान्य माताओं के संबंध में कहा था, भू माता, प्रकृति माता, नदी माता, गो माता, अपनी माता, मातृभाषा और जगत माता। ये सप्त माताएं हैं। लोक में इन सभी माताओं के संबंध में किसी ना किसी प्रकार की अभिव्यक्ति मिलती है।’’
सरकार्यवाह ने आगे कहा कि-मेरी मातृभाषा कन्नड़ ‘‘में एक लोकगीत की चार पंक्तियां हैं, उसका अर्थ इस प्रकार है- मैं सुबह उठकर किस-किस को स्मरण करूं। तिल और जीरा उगाने वाली मेरी भूमाता को स्मरण करते हुए नमन करती हूं।’’ गांव की उस महिला ने धरती मां को विस्तृत रूप में नहीं देखा होगा। उसने देखा कि मेरे खेत में तिल और जीरा उग रहा है। यह मेरी मां है। समुद्र वसने देवी पर्वत… कल्पना यही है। भाव यही है। शब्द अलग हो सकते हैं। यह अनुभवजन्य है। यह ग्रंथ से नहीं सीखा उसने।
पश्चिम बंगाल में खानार वचन के नाम से लोकगीत है। एक महिला 12वीं सदी में थी, खाना उनका नाम होगा। उन्होंने हजारों पंक्तियां कृषि और कृषि से जुड़े प्रयोगों के बारे में लिखी हैं। खाद, गोबर, बीज के बारे में लिखा है। खेती कैसे करनी चाहिए, कौन सी फसल का बीज किस नक्षत्र में बोना चाहिए, इसके संबंध में लिखा है। 12वीं सदी में लिखी गई यह रचना आज की परिस्थिति के भी अनुकूल है, जिसे एक अनपढ़ महिला ने अपनी वाणी से रचा था।
उन्होंने कहा, एक ही नस्ल के, एक ही भाषा बोलने वाले, एक ही भौगोलिक क्षेत्र के लोगों में, जिसको आप शास्त्र या लोक जैसे अलग-अलग रूप में कहते हैं, वह एक ही है। यह अनंत कुमार स्वामी का कथन है। इसलिए शास्त्र और लोक के बीच के इस भेद को हमें वर्गीकरण की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। राष्ट्र की अभिव्यक्ति, समाज की चेतना और मनुष्य की उन्नति के धर्म को निभाने के उद्देश्य में हमें इस तरह के भेद करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
श्री होसबाले ने कहा कि जिसको हम परंपरा कहते हैं, उसका हमारे जीवन में कोई प्रत्यक्ष स्थान है या नहीं? यदि यह परंपरा है तो हमें इसे अपने जीवन में अनुभव करते हुए अगली पीढ़ी को सौंपते हुए चलना होगा। तभी यह पंरपरा होगी। जिस समाज ने इस परंपरा को आगे बढ़ने नहीं दिया, अपने जीवन में उसका प्रयोग करने का श्रम नहीं किया, अगली पीढ़ी को अपनी परंपरा नहीं सौंपी, वह परंपरा खत्म हो जाती है और संग्रहालय में रखने की वस्तु बनकर रह जाती है। यह हमें ही तय करना है कि इस लोक परंपरा को आगे बढ़ाकर, बचाकर रखना है या इसे संग्रहालय में रखने लायक बनाना है। इसलिए लोकमंथन ने सोचा कि विचारक और कर्मशील लोग इकट्ठे होकर आगे आएं। इस परंपरा को जीवित रखकर, अगली पीढ़ी को इस और सुदृढ़ बनाकर कैसे सौंपें, इस पर विचार करें।
कपिल तिवारी जी ने कल कहा था, लोक ने कभी अपने अस्तित्व के लिए राज्य की तरफ नहीं देखा। आज समाज यह सोचता है कि सरकार यह करे, संस्कृति मंत्रालय यह करे, शिक्षा मंत्रालय यह करे। जिन बातों पर हमने तीन दिन यहां मंथन किया, उन सारी बातों को हजारों सालों से राज्य शासन से किसी भी प्रकार की सहायता लिये बिना, हमारे गांवों के़ लोगों ने जीवित रखा है।
‘‘लोकतंत्र में जनता का शासन है। यदि इस तंत्र में सरकार से लोग अपेक्षा रखते हैं तो यह भी गलत नहीं है, लेकिन पूरी तरह सरकार पर निर्भर नहीं होना है। इस बात का समाज को ध्यान रखना पड़ेगा। इसलिए लोक परंपरा को अपने-अपने स्थान पर, अपने-अपने परिवेश में, अपने-अपने भौगोलिक क्षेत्र में वहां की परंपरा के अनुरूप विकसित करने का एक विकेन्द्रित प्रयास जरूर होना चाहिए। इसके लिए विश्वविद्यालय, आईआईटी, आईआईएम, समाज के धनाढ्य और सामान्य लोग और सरकार भी आवश्यक मदद करे।’’
अंत में श्री होसबाले ने लोक परंपरा को आगे बढ़ाने का आह्वान करते हुए कहा, शिक्षा नीति में भारतीय ज्ञान प्रणाली एवं परंपरा के बारे में विशेष आग्रह किया गया है। इसलिए भारतीय ज्ञान परंपरा और व्यवस्था के इस विशाल प्रयास में लोक परंपरा के विभिन्न प्रकार के ज्ञान, विज्ञान, कला, संगीत, नृत्य, शास्त्र, भाषा समाज के बारे में अध्ययन करने वाले हर प्रकार के आयाम के विषयों को तैयार करें और फिर उनके बारे में देश के विद्यालयों, विश्वविद्यालयों में सभी विषयों को किसी ना किसी प्रकार के पाठ्यक्रम में शामिल करके आग्रहपूर्वक लाएं। इस तरह के प्रयत्न से हम लोक परंपरा को अगली पीढ़ियों तक ले जा पाए तो मुझे लगता है कि लोक मंथन का यह प्रयास सफल होगा।
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