‘आध्यात्मिकता’ भारत का प्राणतत्व है और ऋतु परिवर्तन की संधिबेला में मनाया जाने वाला जगदंबा की आराधना का नवरात्र पर्व इस आध्यात्मिकता के उत्कर्ष का सर्वाधिक फलदायी सुअवसर। अंतस में स्थित काम, क्रोध, अहंकार, लोभ, मद, आलस, लालच जैसी दुष्प्रवृत्तियां पतन की राह पर चला देती हैं। भगवती दुर्गा की आराधना का यह नौ दिवसीय साधनाकाल हमारे अंतस में सद्प्रवृत्तियों का बीजारोपण कर हमें सत्पथ पर चलने की प्रेरणा देता है। माँ जगजननी परम कल्याणमयी और ‘दुर्ग’ की भांति शरणागत को अभय देने वाली दुर्गतिनाशिनी हैं। ‘’पुरुषार्थ साधिका’’ देवी के रूप में की गयी मां शक्ति की आराधना से तत्काल नवशक्ति का उद्भव होता है। इसीलिए लोकजीवन को देवजीवन की ओर मोड़ने वाले इस देवपर्व को अन्तः शक्ति के जागरण के ‘मुहूर्त विशेष’ की मान्यता दी गयी है। जगजननी की आराधना के इस उत्सव का आध्यात्मिक पक्ष जितना जितना सबल है, सांस्कृतिक पक्ष उतना ही समृद्ध। तमाम क्षेत्रीय विशिष्टताओं के साथ समूचे देश में हर्षोल्लास के साथ मनाये जाने वाले शारदीय नवरात्र पर्व आस्था के अनूठे रंग में रंगा दिखायी देता है। इस अवधि में जहां उत्तर भारत व उत्तराखंड में रामलीला की धूम दिखती है वहीं पश्चिमी बंगाल में महिषासुरमर्दिनी के पूजन की। गुजरात में गरबा और मैसूर व कुल्लू में दशहरा उत्सव के अनोखे रंग भी देखने वाले होते हैं। आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से शुरू होकर विजयादशमी पर संपन्न होने वाले शारदीय नवरात्र पर्व की पावन बेला में प्रस्तुत हैं नवरात्र पर्व की समृद्ध परम्पराओं से जुड़ी कुछ रोचक जानकारियां-
बंग समाज की दुर्गापूजा
बंग समाज में मान्यता है कि नवरात्र में माँ दुर्गा सपरिवार धरती पर आती हैं और महाराक्षस महिषासुर का वध करके आश्विन शुक्ल दशमी तिथि को विदा हो जाती हैं। इसीलिए भव्य पूजा पंडालों में विराजमान महिषासुरमर्दिनी के साथ पद्महस्ता लक्ष्मी, वाणीपाणि सरस्वती, मूषक वाहन गणेश व मयूर वाहन कार्तिकेय भी विराजमान रहते हैं। ये देव प्रतिमाएं हमारे जीवन में सामाजिक न्याय की प्रेरक शक्तियां हैं। जहां महिषासुर अन्याय, अत्याचार व पापाचार का प्रतीक है तो वहीं देवी दुर्गा शक्ति, न्याय और हर अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार का। बंगाली समाज के दुर्गापूजा उत्सव में देवी के बोधन, आमन्त्रण के उपरांत प्राण प्रतिष्ठा समारोह में पुरातन बंग संस्कृति की परम्पराओं का सौंदर्य आज भी कायम है। विधिवत स्थापना के उपरान्त सप्तमी, अष्टमी और नवमी के दिन प्रात:काल और संध्याबेला में शंखध्वनि के साथ माँ दुर्गा की भव्य पूजा व आरती व प्रसाद वितरण का क्रम चलता है। अष्टमी की महापूजा की विधि वाकई देखने वाली होती है। पारम्परिक वाद्ययंत्र ढाक की धुन पर जब महिलाएं देवी की प्रतिमा के समक्ष “सिंदूर खेला” खेलती हैं तो एक अलग ही समां बंध जाता है। बंगला पूजन समारोहों में धुनुची नृत्य का खास महत्व होता है। सुहागिन महिलाएं माता को सिंदूर अर्पित कर एक दूसरे को सिंदूर लगाकर अपने सुहाग की सलामती की कामना करती हैं। पुरुष वर्ग माता की पूजा अर्चना के बाद एक-दूसरे को गले लगाकर शुभकामनाएं देते हैं। यह समारोह “कोलाकुली” के नाम से विख्यात है। “सिंदूर खेला” और “कोलाकुली” के बाद माँ को भावपूर्ण विदाई देकर जुलूस निकाल कर उनकी प्रतिमाओं का जल विर्सजन कर देते हैं। इतिहासकारों का मानना है कि बंगाल में दुर्गोत्सव पर मूर्ति निर्माण की परंपरा की शुरुआत ग्यारहवीं शताब्दी में हुई थी। इस पर्व को समूचे बंगाल के जनजीवन में प्रतिष्ठित करने का श्रेय ताहिरपुर (बंगाल) के महाराजा कंस नारायण को दिया जाता है। कहा जाता है कि वह दुर्गा पूजा के इतिहास की पहली विशाल पूजा थी; जिसमें सर्वप्रथम प्रतिमा निर्माण के लिए एक खास तरह की मिटटी का इस्तेमाल किया गया जो कि सोनागाछी (तवायफों के इलाके) से लायी गयी। कहा जाता है कि दुर्गा माँ ने अपनी एक भक्त वेश्या को सामाजिक तिरस्कार से बचाने के लिए उसे वरदान दिया था कि उसके यहां की मिट्टी के उपयोग के बिना प्रतिमाएं पूरी नहीं होंगी, तभी से यह परम्परा शुरू हो गयी।
बिहार में दुर्गापूजा
यूं तो पटना समेत कई स्थानों पर विभिन्न पूजा समितियां माँ दुर्गा की प्रतिमा स्थापित कराती हैं लेकिन 123 साल पुरानी पटना के लंगरा टोली स्थित बंगाली अखाडे़ की दुर्गापूजा इस मायने में खास है कि इस पूजा का शुभारंभ उन स्वतंत्रता सेनानियों ने किया था जिन्होंने अंग्रेजों से बचने के लिए यहां दुर्गा मंदिर बनाया था। कहा जाता है कि वर्ष 1893 से पूर्व यहां आजादी के दीवाने जुटते थे और अंग्रेजों से लोहा लेने की लिए रणनीति तैयार की जाती थी। अंग्रेजों को शक भी न हो इसलिए यहां दुर्गा मंदिर की स्थापना की गई थी। मंदिर स्थापना के बाद यहां वर्ष 1893 से शारदीय नवरात्र के मौके पर दुर्गा पूजा होने लगी। खास बात यह है कि यहां दुर्गा पूजा के मौके पर माँ दुर्गा की प्रतिमा को बगैर किसी काट-छांट के साड़ी पहनाई जाती है। इस समारोह में विजयादशमी के दिन माँ की विदाई चूड़ा-दही खिलाकर करने की परंपरा है।
असम व त्रिपुरा की दुर्गापूजा
असम व ओडिशा में भी दुर्गा पूजा का उत्सव बंगाल की तरह ही मनाया जाता है। बिहू के बाद दुर्गापूजा असमिया समुदाय का सबसे लोकप्रिय त्योहार है। कहा जाता है कि असम में मिट्टी की मूर्तियों के साथ पहली बार दुर्गापूजा कामाख्या, दिघेस्वरी व महाभैरवी मंदिर में की गयी थी। असम के मुख्य शहर सिलचर में दुर्गा पूजा की शुरुआत दिमासा राजा सुरदर्पा नारायण के शासन के दौरान शुरू हुई थी। असम में कामाख्या शक्तिपीठ का कुमारी पूजन अद्भुत है। कामाख्या में कुमारी पूजा का चलन उतना ही पुराना है जितना की कामाख्या का इतिहास। नवरात्र के पहले दिन एक ही कुमारी कन्या की पूजा होती है। दूसरे दिन दो, तीसरे दिन तीन और इसी तरह क्रम आगे बढ़ाते हुए अंतिम यानी नवमी के दिन नौ कुमारियों की भव्य पूजा की जाती है। मंदिर के पुजारियों की मानें तो इस अवधि में नीलांचल पर्वत पर माँ कामाख्या कुमारी रूप में प्रतिपल मौजूद रहती हैं। इसी कारण नवरात्र काल में इन माँओं (कन्याओं) की पूजा कर सच्चे मन से उनसे जो भी मांगा जाता है, जरूर मिलता है। इस कुमारी पूजा में भाग लेने के लिए नवरात्र में सैकड़ों साधु-संत कामाख्या आते हैं। कहा जाता है कि स्वामी विवेकानंद भी कुमारी पूजा करने कामाख्या आये थे। इसी तरह पूर्वी भारत में त्रिपुरा के पूर्व राजा कृष्ण किशोर माणिक्य बहादुर ने 19वीं सदी में दुर्गापूजा की शुरुआत की थी। इस पूजा की खास बात यह है कि यहां मां आदिशक्ति की परम्परागत अष्टभुजी प्रतिमा से इतर सिर्फ दो भुजाओं वाली प्रतिमा की पूजा की जाती है।
तमिलनाडु, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश व कर्नाटक की दुर्गापूजा
तमिलनाडु, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश व कर्नाटक की दुर्गा पूजा में नवरात्र पर तीन महाशक्तियों लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा की पूजा की जाती है। इन राज्यों में प्रथम तीन दिनों में लक्ष्मी माता की पूजा की जाती है। अगले तीन दिनों में विद्या की देवी माता सरस्वती की पूजा अर्चना की जाती है और अंतिम तीन दिनों में शक्ति की देवी माँ दुर्गा का पूजा-अर्चना की जाती है। तमिलनाडु में नवरात्र को “गोलू” पर्व के नाम से मनाया जाता है। यहां के लोग मां दुर्गा की उपासना के लिए अपने घरों में 100 तरह की छोटी-बड़ी मूर्तियां रखते हैं। नवमी पर अपने घर की सभी मूर्तियां पूजन पंडाल में जाकर रख देते हैं।
गुजरात व महाराष्ट्र का गरबा-डांडिया उत्सव
नौ रातों तक चलने वाले देवपर्व पर गुजराती समाज की आस्था का अनूठा रूप दिखता है। गरबा नृत्य इस उत्सव की शान है। देवी मां की आरती के बाद पूरी रात डांडिया रास और गरबा नृत्य का आयोजन चलता है। पारम्परिक गुजराती समाज की मान्यता है कि इस गरबा के माध्यम से पूरे तन-मन में शक्ति का इतना संचार हो जाता है कि पूरे साल तक शरीर की बाह्य व आंतरिक गतिशीलता और मन की प्रसन्नता बनी रहती है। इसी कारण ये लोग नित नये परिधान और नये आभूषणों में शक्ति पूजा की नौ रात में यह उत्सव पूरी धूमधाम से मनाते हैं। गुजरात के लोगों का मानना है कि यह नृत्य माँ अम्बा को बहुत प्रिय है। इस गरबा नृत्य के पीछे एक गहन तत्वदर्शन भी निहित है। नवरात्र के पहले दिन छिद्र युक्त मिट्टी के घड़े को पूजा स्थल पर स्थापित कर उसके भीतर चांदी का एक सिक्का रखकर मिट्टी का दीपक प्रज्वलित किया जाता है। इस दीपक को दीपगर्भ कहा जाता है, जोकि सृजनशक्ति का प्रतीक माना जाता है। इसी तरह महाराष्ट्र के पारम्परिक हिन्दू समाज में नवरात्र के नौ दिनों में माँ दुर्गा को पूजा जाता है और दसवें दिन माता सरस्वती का पूजन किया जाता है। इसके पीछे मान्यता है कि विजयदशमी के शुभ दिन दिन माँ सरस्वती की पूजा करने से पढ़ने वाले बच्चों पर माँ सरस्वती का आशीर्वाद बना रहता है। इसलिए इस दिन को विद्यारम्भ के लिए बहुत शुभ माना जाता है। नवरात्र काल में यहां एक सामजिक उत्सव ‘’सिलंगण’’ का आयोजन किया जाता है जिसमें गांव के लोग नये कपड़े पहनकर शमी वृक्ष की पूजा करते हैं और शुभत्व के प्रतीक रूप में शमी वृक्ष के पत्तों को एक दूसरे को भेंट करते हैं।
उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, हिमाचल, हरियाणा व पंजाब में नवरात्र उत्सव
उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, हिमाचल, हरियाणा व पंजाब में नवरात्र उत्सव के दौरान माँ दुर्गा की उपासना पूरी श्रद्धा भक्ति से की जाती है। नवरात्र काल में इन क्षेत्रों में दुर्गा सप्तशती, मानस पाठ, सुंदर कांड व भागवत कथाओं व रामलीलाओं की धूम दिखती है। देवी मंदिर इन दिनों मां के जयकारों से गूंजते रहते हैं। बीते कुछ सालों में दुर्गा पूजा, डांडिया व गरबा के आयोजन भी इन क्षेत्रों में लोकप्रिय हो चुके हैं। उत्तर भारत में रामलीला के मंचन का श्रेय गोस्वामी तुलसीदास को जाता है। उन्होंने ही सत्रहवीं शताब्दी में अवध, काशी के चित्रकूट से रामलीला का शुभारम्भ किया था।
रामनगर की रामलीला
यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल रामनगर (काशी) की रामलीला आज भी सदियों पुरानी परम्परा को संजोए हुए है। एक माह तक चलने वाला ऐसा अनूठा सांस्कृतिक अनुष्ठान विश्व में शायद ही कहीं होता हो। सूचना क्रांति एवं आधुनिकता के वर्तमान युग में इस आयोजन में आज भी हजारों दर्शक शामिल होते हैं। गोस्वामी जी के शिष्य मेघा भगत द्वारा शुरू करायी गयी रामनगर की रामलीला स्वरूप एवं माहौल समय के साथ भले ही बदल गया हो लेकिन रामलीला का मंचन बिल्कुल नहीं भी बदला है। विशाल मुक्ताकाश के नीचे होने वाली यहां की रामलीला में आज भी बिजली की रोशनी एवं लाउडस्पीकर का प्रयोग नहीं होता; वेशभूषा, संवाद-मंच आदि सभी कुछ प्राचीनता का बोध कराते हैं। विधि निषेधों की परम्परा का अक्षरश: पालन इस रामलीला की बड़ी धरोहर है।
रामजन्मभूमि की गीत संगीतमय रामलीला
प्रभु श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या की गीत संगीतमय रामलीला पूरे देश में प्रसिद्ध है। अयोध्या की रामलीला की खास बात यह है कि यहां एक विशाल मंच बनाकर पात्र संवादों को गीत के माध्यम से बोलते हैं। इतना ही नहीं, कथक के माध्यम से भी कलाकारों की ओर से रामकथा का वर्णन किया जाता है। श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या में धनाभाव के चलते कई सालों से बंद पड़े रामलीला के मंचन को पुन: शुरू कराने के प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को जाता है।
पौड़ी व कुमाऊं की ऐतिहासिक रामलीला
पौड़ी में होने वाली ऐतिहासिक रामलीला कई मायनों में खास है। 119 साल पुरानी इस रामलीला की लोकप्रियता भी यूनेस्को तक है। इस रामलीला की शुरुआत साल 1897 में कंडाई गांव में हुई थी लेकिन इसे शहर में लाने का श्रेय क्षेत्रीय अखबार “वीर” के सम्पादक कोतवाल सिंह नेगी एवं साहित्यकार तारादत्त गैरोला को जाता है। इनके प्रयासों से इस रामलीला का मंचन साल 1908 से लगातार होता आ रहा है। खास बात यह है कि इसमें महिला किरदार की भूमिकाएं महिलाएं ही निभाती हैं। दूसरी ओर कुमाऊं की रामलीला भीमताल के एक स्थानीय ज्योतिषी पण्डित रामदत्त के लिखे रामचरित मानस के नाटक पर खेली जाती है। इसमें शास्त्रीय संगीत पर आधारित रागों और धुनों पर अनूठी संवाद अदायगी एक अलग ही समां बांध देती है।
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