26 जनवरी,1963 को रा.स्व.संघ का दस्ता राजपथ पर परेड में शामिल हुआ था। उस दस्ते का हिस्सा थे 87 वर्षीय श्री कृष्णलाल पठेला। हमने दिल्ली के जनकपुरी में रहने वाले पठेला जी से उस परेड और 1962 के युद्ध के बाद के उस दौर के बारे में बात की। पाञ्चजन्य के 31 जनवरी 2016 के अंक में प्रकाशित वह वार्ता यहां पुन: प्रस्तुत है
आज भले ही मेरी आयु 87 वर्ष की है, लेकिन 1963 की 26 जनवरी का वह दिन आज भी मुझे ज्यों का त्यों ध्यान है। मुझे याद है, हम जनकपुरी (नई दिल्ली) शाखा के स्वयंसेवकों को जब यह समाचार मिला कि रा.स्व.संघ का एक दस्ता 26 जनवरी की परेड में राजपथ पर निकलेगा तो एकाएक भीतर से उमंग की लहर उठी। हम सभी स्वयंसेवक इतने उत्साहित हुए कि जैसे जाने क्या मिल गया था। लेकिन इतना तो तय है कि संघ में सब ओर यही चर्चा थी कि नेहरू सरकार ने संघ की राष्ट्र निष्ठा और संकटकाल में देश के साथ खड़े होने के जज्बे का सम्मान किया है।
मुझे याद है जनकपुरी शाखा से हम दो स्वयंसेवक जिले के अन्य स्वयंसेवकों के साथ मार्चपास्ट की तैयारी में जुटे थे। मुझे यह तो नहीं पता कि मेरा चयन क्यों किया गया था, पर इतना तो पक्का है कि मेरे अधिकारी ने मेरे अंदर वैसी काबिलियत देखी होगी। पूरी दिल्ली से और भी स्वयंसेवक थे। देश के विभिन्न प्रांतों से स्वयंसेवक दस्ते में शामिल होने के लिए आने वाले थे। हमने पूरी तैयारी अनुशासन और लगन के साथ की थी। जैसा कि चलन है, 26 जनवरी से दो दिन पूर्व हमारे दस्ते यानी संघ के दस्ते ने, जिसमें शायद करीब 3200 स्वयंसेवक थे, बाकी परेड के साथ ड्रेस रिहर्सल में भाग लिया था। और फिर 26 जनवरी का दिन आया। हम सभी स्वयंसेवक एकदम चाकचौबंद गणवेश पहने, कदम से कदम मिलाते हुए जब राजपथ पर सलामी मंच के सामने से गुजरे तो दर्शकों ने करतल ध्वनि से स्वागत किया। सीना ताने हम लोग परेड करते हुए इंडिया गेट तक गए।
मुझे ध्यान आता है 1962 का वह युद्ध। जैसा हमारा अभ्यास है, हर संकट की घड़ी में हम स्वयंसेवक कंधे से कंधा मिलाकर देशसेवा में जुट जाते हैं, युद्धकाल के दौरान भी हमने जिस मोर्चे से जितना बन पड़ा, सेना की उतनी मदद की थी। हमारे साथी स्वयंसेवकों ने अग्रिम मोर्चे पर जाकर हमारे सैनिकों को भोजन में खीर परोसने की ठानी। वे बंकरों के अंदर जाकर जवानों को खीर परोसते थे। एक दिन तो ऐसा हुआ कि स्वयंसेवक खीर के भगोने लेकर पहुंचे तो वहां पर गोलाबारी हो रही थी। लेकिन तय कर लिया था तो जाना ही था। स्वयंसेवक खाई-खंदकों से होते हुए, जमीन पर रेंगते हुए जवानों के बंकरों में पहुंचे और भोजन के वक्त उनके लिए खीर का इंतजाम कर दिया।
उस दौर की एक और बात याद आती है। देशभर से जवान रेलगाड़ियों, ट्रकों से मोर्चे की ओर रवाना हो रहे थे। पूरे देश की जनता अपने सैनिकों के साथ खड़ी थी और जहां जितना मौका मिलता, पैसे, भोजन, पानी सबका प्रबंध कर रही थी। हम स्वयंसेवकों में तो अलग ही जोश था। दिल्ली से भले ही हम मोर्चे पर जाकर सैनिकों की सेवा नहीं कर पा रहे थे, लेकिन हमने भी ठान लिया था कि कुछ करेंगे। हम स्वयंसेवकों ने मोहल्ले से चंदा इकट्ठा किया। उस जमाने में भी 697 रुपये इकट्ठे हो गये थे। हमने खूब सारे फल खरीदे और टोकरों में भरकर नई दिल्ली स्टेशन पहुंच गए।
सैनिकों से भरी एक रेलगाड़ी पंजाब की तरफ जा रही थी। हमने डिब्बों में चढ़कर सैनिकों से फल लेने का अनुरोध किया तो उन्होंने पलटकर कहा, ‘अरे भाई, आप लोगों ने इतना भोजन और फल दे दिये हैं कि अब तो इन्हें रखने की जगह भी नहीं है। बेहतर होगा आप इन्हें और जरूरतमंदों में बांट दें।’ युद्ध के समय ऐसा था देश का माहौल। मुझे याद है स्वयंसेवक और सभी आनुषंगिक संगठन अपनी तरफ से सरकार का सहयोग कर रहे थे। भारतीय मजदूर संघ ने भी अपने सभी आन्दोलन स्थगित कर रखे थे और सरकार को कह रखा था कि हम आपके साथ हैं। आज जब बाल स्वयंसेवकों को शाखा में खेलते देखता हूं तो वे पुरानी स्मृतियां मानस पटल पर उभर आती हैं। स्वयंसेवक यह न भूलें कि हमारा कार्य है देशहित की चिंता करना, हमारे लिए राष्ट्रहित सर्वोपरि है। अपने इस स्वयंसेवकत्व को नहीं भूलना है। मैं जितना होता है, संगठन के लिए सक्रिय रहता हूं। सुबह से शाम तक अपने को व्यस्त रखता हूं और संघ कार्य में मस्त रहता हूं। प्रस्तुति : आलोक गोस्वामी
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