सनातन धर्मी ‘पुनर्जन्म’ की मान्यता में विश्वास करते हैं। अच्छे कर्म सद्गति, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करते हैं; जबकि बुरे कर्म अधोगति व नर्क। इसीलिए हमारी वैज्ञानिक ऋषि मनीषा श्राद्ध-तर्पण की परम्परा का बीजारोपण किया था और इसके लिए भादों की पूर्णिमा से लेकर आश्विन माह के कृष्ण पक्ष की अमावस्या तक की एक पखवारे की विशिष्ट अवधि निर्धारित की थी।
देश में पितरों के श्राद्ध, पिंडदान व तर्पण के लिए कई सिद्ध तीर्थ हैं। इनमें गया (बिहार), ब्रह्मकपाल (बद्रीनाथ, उत्तराखण्ड), पिशाच मोचन कुंड (काशी, उत्तर प्रदेश), सिद्धवट (उज्जैन, मध्य प्रदेश), लोहार्गल (राजस्थान), बिंदु सरोवर (सिद्धपुर, गुजरात), पिण्डारक तीर्थ (गुजरात), मेघंकर (महाराष्ट्र), त्र्यम्बकेश्वर (महाराष्ट्र), लक्ष्मणबाण (कर्नाटक), व गंगासागर (पश्चिम बंगाल) की विशेष पौराणिक मान्यता है। युगऋषि पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य अपने ग्रन्थ ‘’पितरों को श्रद्धा दें, वे हमें शक्ति देंगे’’ में उल्लेख करते हैं कि देश के सुप्रसिद्ध तीर्थों का वर्णन श्रीमद्भागवत, शिवमहापुराण, स्कन्द पुराण, मत्स्य, वायु, अग्नि व गरुण पुराण के अलावा वाल्मीकि रामायण व महाभारत आदि ग्रंथों में विस्तार से मिलता है। प्रयाग, हरिद्वार, जगन्नाथपुरी, कुरुक्षेत्र, चित्रकूट व पुष्कर आदि प्राचीन तीर्थस्थल भी श्राध्दकर्म के लिए शुभ माने जाते हैं। पितृपक्ष के अवसर पर आइए जानते हैं देश के शीर्ष श्राध्द तीर्थों से जुड़ी कुछ रोचक जानकारियों के बारे में-
श्राद्ध तीर्थ ‘गया’ : पितरों का बैकुंठ
प्रगाढ़ मान्यता है कि बिहार राज्य के विश्वविख्यात श्राद्ध तीर्थ ‘गया’ में फल्गु नदी के तट पर पिंडदान करने से पितरों को बैकुंठ की प्राप्ति होती है; इसलिए पिंडदान व तर्पण के लिए गया तीर्थ को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। गया तीर्थ के बारे में वायु पुराण में कहा गया है कि ‘ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं गुरुः अंगनागमः, पापं तत्संगजं सर्वं गयाश्राद्धाद्विनश्यति।’ अर्थात गया में श्राद्ध कर्म करने से ब्रह्म हत्या, स्वर्ण की चोरी आदि जैसे महापाप नष्ट हो जाते हैं। पितृ पक्ष में गया में पितरों का श्राद्ध-तर्पण करने से व्यक्ति पितृऋण से मुक्त हो जाता है क्योंकि भगवान विष्णु स्वयं पितृ देवता के रूप में गया में निवास करते हैं। पितृ पक्ष के दौरान देश-विदेश से प्रतिदिन हजारों श्रद्धालु अपने पितरों के पिंड तर्पण के लिये यहां आते हैं। गया में पहले विविध नामों से 360 वेदियां थी लेकिन अब केवल 48 ही शेष बची हैं। इन्हीं वेदियों पर विष्णुपद मंदिर, फल्गु नदी के किनारे अक्षयवट पर पिण्डदान किया जाता है। इसके अतिरिक्त नौकुट, ब्रह्योनी, वैतरणी, मंगलागौरी, सीताकुंड, रामकुंड, नागकुंड, पांडुशिला, रामशिला, प्रेतशिला व कागबलि आदि भी पिंडदान के प्रमुख स्थल हैं। इस तीर्थ का यह नाम गयासुर नाम के राक्षस से पड़ा है। ब्रह्म पुराण के कथानक के अनुसार प्राचीन काल में गयासुर नामक राक्षस ने कठोर तपस्या से ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर देवताओं की तरह पवित्र देह प्राप्त होने तथा उसके दर्शन मात्र से लोगों को पापों से मुक्ति मिल जाने का वरदान मांग लिया था। इस वरदान के कारण जब स्वर्ग में लोगों की भीड़ बढ़ने लगी तो इस समस्या से मुक्ति के लिए देवता गयासुर के पास गये और उससे यज्ञ के लिए पवित्र स्थल की मांग की। परम विष्णु भक्त गयासुर ने अपनी तत्काल पवित्र देह देवकार्य के लिए समर्पित कर अपनी पीठ पर यज्ञ करने की अनुमति दे दी। जब वह लेटा तो उसका शरीर पांच कोस तक फैल गया और देवताओं ने उसकी देह पर यज्ञ का अनुष्ठान किया। कहा जाता है उसके इस महान त्याग से प्रसन्न होकर स्वयं श्रीहरि विष्णु ने उसे यह वरदान दिया कि यह पुण्यभूमि सदैव उसके नाम से जानी जाएगी।
मोक्षधाम “ब्रह्मकपाल”
देवभूमि बदरीनाथ धाम के “ब्रह्मकपाल” को मोक्षधाम माना जाता है। इस धाम के बारे में कहा जाता है कि ‘जो जाए बदरी, वो ना आए ओदरी’ यानि जो व्यक्ति बदरीनाथ के दर्शन कर लेता है, उसे पुनः माता के उदर यानी गर्भ में फिर नहीं आना पड़ता। स्कन्द पुराण के केदार खण्ड में इस श्राध्द तीर्थ की महिमा का वर्णन करते हुए ब्रह्मर्षि वशिष्ठ देवी अरुन्धती से कहते हैं कि ‘ब्रह्म कपाल’ में किया गया श्राद्ध तर्पण गया जी से आठ गुना अधिक फलदायी होता है। यहां पर पिण्डदान करने से पितरों की आत्मा को नरक लोक से मुक्ति मिल जाती है और वे मोक्ष के अधिकारी हो जाते हैं। पितृ योनि में भटकती हुई आत्मा को भी यहां आकर मुक्ति मिल जाती है। इसीलिए यहां पिंडदान के बाद फिर कहीं भी पिंडदान की आवश्यकता नहीं होती। इसी तरह मत्स्य पुराण में इस पुण्य तीर्थ की महिमा के बारे में कहा गया है कि ‘‘पितृतीर्थ ब्रह्मकपालम् सर्वतीर्थवर सुभम्। यत्रास्ते देव देवेशः स्वमेव पितामह’’।। अर्थात ब्रह्मकपाल सभी श्राद्ध तीर्थों में सर्वोपरि है। गया जी (बिहार) में पितर शांति मिलती है किंतु ब्रह्मकपाल में मोक्ष मिलता है, पितरों का उद्धार होता है। ब्रह्मकपाल में श्राद्ध करने से जन्म-जन्मांतर के चक्र से मुक्त होकर प्रसन्न मन से अपनी संतति पर सुख, समृद्धि, आयु, वंशवृद्धि, धन-धान्य, स्वर्ग, राजयोग व अन्य भौतिक अनुदानों की वर्षा करते हैं। कहा जाता है कि हिमालय पर स्वर्गारोहिणी के रास्ते अलकनंदा के किनारे बद्रीनाथ धाम के पास सिद्धक्षेत्र ब्रह्मकपाल वह तीर्थ है जहां पर ब्रह्म हत्या व गौत्र हत्या के पाप से मुक्त होने के लिए पांडवों ने श्राध्द-तर्पण किया था। महाभारत के युद्ध में जब पांडवों ने अपने ही बंधु-बांधवों को मार कर विजय प्राप्त की थी, तब उन पर गौत्र हत्या तथा गुरु द्रोण की हत्या के कारण ब्रह्महत्या का पाप लगा था। तब श्रीकृष्ण के कहने पर इस पाप के प्रायश्चित तथा पितरों की मुक्ति के लिए ब्रह्मकपाल में लिए श्राद्ध-तर्पण किया था।
काशी का पिशाच मोचन कुंड
काशी मोक्ष की नगरी है। गरुण पुराण में कहा गया है कि काशी के पिशाच मोचन कुंड में त्रिपिंडी श्राद्ध करने से पितरों को प्रेत बाधा और अकाल मृत्यु के अभिशाप से मुक्ति मिलती है। शिव महापुराण के काशी खंड के अनुसार शिव नगरी का यह पिशाच मोचन तीर्थ गंगा के धरती पर आने से भी पहले का है। मान्यता है कि इस कुंड किनारे बैठकर श्रद्धालु अपने उन पितरों के लिए; जिनकी आत्माए असंतुष्ट हैं, शात्रोक्त विधि से त्रिपिंडी श्राद्ध कर्म कराते हैं। इससे मृतक को प्रेत योनियों से मुक्ति मिल जाती है। प्रधान पिशाच मोचन तीर्थ के पुरोहित का कहना है कि कुंड के पास एक पीपल का पेड़ है जिसको लेकर मान्यता है कि पितृ पक्ष के दौरान इस पेड़ पर अतृप्त आत्माएं आकर बैठती हैं। श्राध्द कर्म के दौरान पेड़ पर सिक्का रखवाया जाता है ताकि पितरों का सभी उधार चुकता हो जाए और वे सभी बाधाओं से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर सकें और यजमान भी पितृ ऋण से मुक्ति पा सके। तीर्थ पुरोहित के अनुसार प्रेत बधाएं भी तीन तरीके की होती हैं- सात्विक, राजस, तामस। इन तीनों बाधाओं से पितरों को मुक्ति दिलवाने के लिए इस पेड़ पर काले, लाल और सफेद रंग के झंडे भी लगाए जाते हैं।
उज्जैन का ‘सिद्धवट’
पितृपक्ष के दौरान महाकाल की पुण्य नगरी उज्जैन में शिप्रा नदी के किनारे ‘सिद्धवट’ घाट पर पितरों की शांति के लिए किया जाने वाला श्राद्ध -तर्पण भी गया जी के समान ही फलदायी माना गया है। सिद्धवट मंदिर के पुजारी पंडित सुरेन्द्र चतुर्वेदी का कहना है कि यहां श्राध्द तर्पण करने से पितरों को विष्णु लोक की प्राप्ति होती है क्यूंकि यहां के सिद्धवट को देवाधिदेव महादेव का आशीर्वाद प्राप्त है। मान्यता है कि इस त्रेतायुगीन वृक्ष को माँ पार्वती ने स्वयं अपने हाथ से यहां रोपा था। बाद में इसी वृक्ष के नीचे देव सेनापति कार्तिकेय ने कठोर तपस्या की थी। इसी कारण पितृपक्ष में यहां पितरों का श्राद्ध करने दूर-दूर से लोग आते हैं। इस तीर्थ से जुड़ी एक बेहद रोचक बात यह है कि जो लोग यहां अपने पुरखों का तर्पण करते हैं, उनकी कुल परंपरा का डेढ़ सौ वर्षों का इतिहास यहां के पुजारी बिना कम्प्यूटर के पल भर में बता देते हैं।
राजस्थान का प्रसिद्ध श्राद्ध तीर्थ ‘लोहार्गल’
श्राद्ध कर्म के लिए राजस्थान के झुंझुनू जिले में स्थित लोहार्गल तीर्थ भी प्रसिद्ध है। मान्यता है कि जिस तरह गया तीर्थ पर भगवान विष्णु का आशीर्वाद बरसता है, वैसे ही लोहागर तीर्थ की रक्षा स्वयं स्रष्टि के रचयिता ब्रह्माजी करते हैं। माना जाता है तीर्थ के प्रधान देवता सूर्यदेव की प्रचंड ऊर्जा से इस तीर्थ के सदियों पुराने सूर्य कुंड में मृतक व्यक्ति की अस्थियां विसर्जित करने से अस्थियां गल कर पानी में घुल जाती हैं और मृतक व्यक्ति को तुरंत मुक्ति मिल जाती है। महाभारत का एक कथानक भी इस तीर्थ की महत्ता को दर्शाता है। युद्ध के बाद अपने भाई-बंधुओं और अन्य स्वजनों के वध से दुःखी पांडव अपने पापों के प्रायश्चित के लिए जब भगवान श्रीकृष्ण की सलाह पर तीर्थ स्थलों की यात्रा पर निकले तो श्रीकृष्ण ने उनसे कहा कि जिस तीर्थ में तुम्हारे हथियार पानी में गल जाएं, समझना वहीं तुम्हारे सारे पाप खत्म हो गये। तीर्थ स्थानों का भ्रमण करते हुए जब पांडवों ने लोहार्गल तीर्थ पर पहुंच कर यहां के सूर्यकुंड में डुबकी लगायी तो उनके सारे हथियार गल गये। तब उन्होंने इस स्थान की महिमा को समझ इसे तीर्थराज की उपाधि से विभूषित किया। इसी तरह भगवन परशुराम ने भी क्षत्रिय हत्या के पाप के पश्चाताप के लिए यहां जिस स्थान पर यज्ञ किया था, वहां स्थित बावड़ी राजस्थान की सबसे बड़ी बावड़ियों में से एक मानी जाती है। साथ ही निकट की पहाड़ी पर एक इस तीर्थ के देवता भगवान सूर्य का एक अत्यंत प्राचीन मंदिर भी है। इस तीर्थ पर भाद्रपद अमावस्या के दिन पितरों का श्राध्द करने के लिए श्रद्घालुओं की भारी भीड़ उमड़ती है।
सिद्धपुर का बिंदु सरोवर : जहां होता है सिर्फ माता का श्राद्ध
पितृ तीर्थों में गुजरात के सिद्धपुर के बिंदु सरोवर का भी विशेष महत्व है। गुजरात के पाटन जिले में स्थित सिद्धपुर का बिंदु सरोवर एकमात्र ऐसा तीर्थ है जहां पर सिर्फ मातृ श्राद्ध का प्रावधान है। महाभारत में वर्णित कथा के अनुसार जब बाल योगी कपिल मुनि के पिता ऋषि कर्दम गृह त्याग कर तपस्या के लिए सदा के लिए हिमालय प्रस्थान कर गये तो इससे उनकी माता देवहुति बहुत दुखी हुईं और योग साधना द्वारा उन्होंने भी तत्क्षण देह त्याग दी। कहा जाता है कि माता के देहावसान के पश्चात कपिल मुनि ने उनकी मोक्ष प्राप्ति के लिए सिद्धपुर के बिंदु सरोवर के तट पर उनका श्राध्दकर्म किया था। तभी से यह स्थान ‘मातृ मोक्ष स्थल’ के रूप में प्रसिद्ध हो गया। आज भी दूरदराज से लोग इस जगह अपनी मां का श्राद्ध करने के लिए आते हैं। कहते हैं कि मातृहन्ता के पाप से मुक्त होने के लिए भगवान परशुराम ने भी अपनी माता का श्राद्ध सिद्धपुर में बिंदु सरोवर के तट पर किया था।
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