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चहुंमुखी विकास, बहुमुखी मेधा

शिक्षा संपूर्ण व्यक्तित्व के पुष्पन, पल्लवन एवं परिमार्जन का आधार है। मानव को सभ्य, सुसंस्कृत और योग्य बनाने के लिए यह अपरिहार्य है कि उसे समग्र शिक्षा प्रारंभ से ही दी जाए। समग्र शिक्षा से आशय है युवाओं में शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, बौद्धिक, नैतिक, आत्मिक आदि सभी मानवीय क्षमताओं का विकास हो

रमाशंकर दूबे by रमाशंकर दूबे
Sep 10, 2022, 08:00 am IST
in भारत, गुजरात, शिक्षा
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राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के अब तक के कार्यान्वयन की स्थिति तथा प्रभावी कार्यान्वयन की भावी दिशा तय करने हेतु गहन मंथन हुआ। इस अभूतपूर्व समागम से अनेक संदेश एवं दिशानिर्देश प्राप्त हुए, जो समस्त शिक्षण संस्थानों के लिए उनके भविष्य की दिशा निर्धारित करने में मील के पत्थर साबित होंगे।

रमाशंकर दूबे
कुलपति,केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गांधीनगर

ज्ञान-विज्ञान, अध्यात्म एवं सनातन संस्कृति की राजधानी काशी में 7 से 9 जुलाई 2022 तक भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के संयुक्त तत्वावधान में अखिल भारतीय शिक्षा समागम का सफल आयोजन हुआ। इसमें देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों, उच्च शिक्षण संस्थानों से आए कुलपतियों, निदेशकों, विद्वतजन, शिक्षाविदों, वैज्ञानिकों और उद्योग जगत के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस समागम में राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के अब तक के कार्यान्वयन की स्थिति तथा प्रभावी कार्यान्वयन की भावी दिशा तय करने हेतु गहन मंथन हुआ। इस अभूतपूर्व समागम से अनेक संदेश एवं दिशानिर्देश प्राप्त हुए, जो समस्त शिक्षण संस्थानों के लिए उनके भविष्य की दिशा निर्धारित करने में मील के पत्थर साबित होंगे।

प्रथम दिन का प्रथम तकनीकी सत्र समग्र शिक्षा यानी ‘होलिस्टिक एजुकेशन’ को समर्पित रहा जिसमें वक्ताओं ने प्रत्येक छात्र के लिए समग्र शिक्षा की आवश्यकता पर बल दिया। विदित हो कि 29 जुलाई 2020 को भारत सरकार द्वारा घोषित, भारत केन्द्रित राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में युवाओं में गौरवशाली भारतीय संस्कृति के प्रति गहरी निष्ठा का भाव जगाते हुए, भारत के पारंपरिक मूल्यों एवं आदर्शों को आत्मसात करते हुए समग्र रूप से विकसित ऐसे युवाओं के सृजन की परिकल्पना है जो 21वीं सदी की चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना करते हुए, वैश्विक दृष्टि से एक सशक्त, समर्थ एवं आत्मनिर्भर भारत के निर्माण में सक्रिय भूमिका निभा सकें।

शिक्षा संपूर्ण व्यक्तित्व के पुष्पन, पल्लवन एवं परिमार्जन का आधार है अर्थात शिक्षा ही वह नींव है जिस पर मानव जीवन के गुणवत्ता की आधारशिला टिकी होती है। मानव को सभ्य, सुसंस्कृत और योग्य बनाने के लिए यह अपरिहार्य है कि उसे समग्र शिक्षा प्रारंभ से ही दी जाए।

समग्र शिक्षा से आशय है युवाओं में उनकी सभी मानवीय क्षमताओं, जैसे शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, बौद्धिक, नैतिक, आत्मिक, पर्यावरणीय और सौंदर्य-बोध जैसी क्षमताओं को समेकित रूप से विकसित करने के लिए दी जाने वाली शिक्षा। कुशल व्यक्तित्व के विकास के लिए यह आवश्यक है कि शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास हेतु शिक्षा के साथ-साथ नैतिकता, चरित्र निर्माण, देशभक्ति, राष्ट्र गौरव और भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों से ओत-प्रोत मानवीय मूल्यों की शिक्षा अनिवार्यत: प्रदान की जाए।
समग्र शिक्षा के मूल में चरित्र निर्माण की कल्पना समाहित है।

वर्तमान समय में युवाओं के चरित्र निर्माण को ध्येय बनाकर आगे बढ़ना अत्यंत आवश्यक है। समग्र शिक्षा के बल पर ही युवा सामाजिक रूप से स्वीकार्य, कुशल व उद्यमी बन सकते हें। किसी भी देश के सर्वांगीण विकास के लिए वहां के नागरिकों में चिंतन, मनन और दर्शन की समझ होना अनिवार्य है। शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा सहित शिक्षार्थी के सभी पहलुओं को शामिल करने का प्रयास ही समग्र शिक्षा का ध्येय है।

इसका दर्शन इस बात पर आधारित है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने स्थानीय समुदाय, प्रकृति के साथ करुणा और शांति जैसे मानवीय मूल्यों पर आधारित जीवन यापन करे। समग्र शिक्षा से ही जीवन के आंतरिक सम्मान और सीखने की निरंतर अभिलाषा संभव है। इसके लिए हमें अनुभवात्मक शिक्षा पर जोर देना होगा, साथ ही रिश्तों और मानवीय मूल्यों को महत्व देना होगा। इसमें संदेह नहीं कि समग्र शिक्षा मनुष्य को उच्च कोटि की सेवा के लिए प्रेरित करती है, जो अपने जीवन को अलंकृत कर राष्ट्र की सेवा कर सके।

भारतीय शैक्षणिक परंपरा
भारत में वैदिक काल से ही चरित्र निर्माण को मानव जीवन के सभी पहलुओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण अवयव माना गया है और इसके लिए ज्ञान एवं उत्तम विचारों के हर ओर से आगम पर बल दिया गया है। ऋग्वेद में उल्लिखित है-
आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतोड्दब्धासो अपरितासउद्विद:।
देवा नो यथा सदमिद् वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवे दिवे।।
अर्थात कल्याणकारक, न दबने वाले, पराभूत न होने वाले, उच्चता को पहुंचाने वाले शुभकर्म चारों ओर से हमारे पास आयें। प्रतिदिन सुरक्षा करने वाले देव हमारा सदा संवर्धन करने वाले हों। शायद इन्हीं शुभ और शिष्ट विचारों से मानव जीवन का कल्याण होगा। तभी हमारे जीवन में उल्लास और उमंग का संचार होगा। हम सभी इस प्रयास में जीवन की सभी बाधाओं से पार पा सकेंगे। गीता में भगवान ने अध्यात्म ज्ञान, तत्वज्ञान के बारे में बताया है, जिसके मूल उद्देश्य ज्ञान का वास्तविक अर्थ है उसे जानना और देखना।

वास्तव में, प्राचीन काल से ही शिक्षा की भारतीय दृष्टि सदा शिक्षार्थी के समग्र विकास, शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा के एकीकृत विकास पर आधारित रही है। प्राचीन भारत में, शिक्षा की गुरुकुल प्रणाली समग्र शिक्षा हेतु आदर्श उदाहरण थी, जहां गुरु अपने छात्रों को वेद, संस्कृति, दर्शन, धर्म, शारीरिक शिक्षा, योग, धनुर्विद्या, आखेट, रक्षा, अर्थशास्त्र, विज्ञान, सैन्यविज्ञान, विधि, खगोल विज्ञान, जीवन कौशल, सामुदायिक जुड़ाव जैसे विभिन्न विषयों की शिक्षा एक साथ प्रदान करते थे। ऐसी शिक्षा प्रणाली विशेष रूप से चयनित विषयों में उच्चतम ज्ञान एवं कौशल प्राप्त करने के अतिरिक्त शारीरिक, नैतिक, बौद्धिक, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं अध्यात्मिक रूप से विकसित युवाओं के सृजन में अद्भुत रूप से सक्षम थी।

विश्व-प्रशंसित प्राचीन भारतीय उच्च शिक्षण संस्थान, जैसे तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, वल्लभी विद्यापीठ समग्र शिक्षा के उत्कृष्ट सिद्धांतों पर स्थापित थे। इन संस्थानों के असाधारण योगदान से ही भारत विश्वगुरु था। गुरु-शिष्य की महान परंपरा को भारत ने समृद्ध किया। हमारी प्राचीनतम संस्कृति से ही गुरु शब्द का व्याख्यात्मक वर्णन किया गया ताकि गुरु के सान्निध्य में रहकर शिष्य समग्र अध्ययन कर सके। यहां गुरु शब्द के शाब्दिक अर्थ में ‘गु’ का अर्थ है अंधेरा और ‘रु’ का अर्थ है हटाना या समाप्त करना। अर्थात गुरु शिष्य को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाते हैं। गुरु शब्द ही महान है। इस संदर्भ में बृहदारण्यकोपनिषद् से बहुप्रसिद्ध श्लोक तमसो मा ज्योतिर्गमय उल्लेखनीय है जिसका सामान्य अर्थ है कि अंधकार से प्रकाश की ओर चलो, बढ़ो।

गुरु-शिष्य की महान परंपराओं को आत्मसात करते हुए ही हमारे महानतम शिक्षण संस्थानों ने पूरे विश्व को समग्र शिक्षा के बारे में जानकारी दी। बाणभट्ट की कादंबरी में शिक्षा के लिए जिन 64 कलाओं का वर्णन किया गया है उनमें गायन, कला, विज्ञान, चिकित्सा, व्यावसायिक, कौशल और पेशेवर शिक्षा शामिल हैं।

ऋषि परंपरा वाले देश भारत ने ही सर्वप्रथम व्यक्तित्व विकास के लिए अध्यात्म एवं भौतिकता के बीच समन्वय पर बल दिया। गौरतलब है कि ह्वेनसांग ने अपनी एक रचना में पुरातन अध्ययन-अध्यापन के समय के महान विद्वान शिक्षकों यथा धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणपति, स्थिरमति, प्रभामित्र, जिनमित्र, आर्यदेव, दिगनाग और ज्ञानचंद्र आदि का उल्लेख किया था, जिसमें उसने बताया कि समग्र शिक्षा के पूरे विश्व में अग्रदूत इन संस्थानों से ही नागार्जुन, असंग, वसुबंधु जैसी विभूतियां उपजी हैं।

असंग की महायान सूत्रालंकार और नागार्जुन की दिव्यावदान, महावस्तु, मंजूश्री मूलकल्प, प्रज्ञापारमिता, शतसाहस्रका और माध्यमिका सूत्र जैसी रचनाएं नालंदा विश्वविद्यालय के ज्ञान की ही देन हैं। ह्वेनसांग की मानें तो उस काल खंड में विश्वविद्यालय प्रशासन जितना कठोर था उतना ही शिक्षा को लेकर जागरूक, संवेदनशील और सतर्क था। गुरुकुल की इन्हीं परंपराओं को आत्मसात कर भारतीय विद्वानों ने वैश्विक पटल पर भारत की कीर्ति फैलायी। भारतीय वैदिक परंपरा में कई ऐसे ऋषि-मुनि हुए जिन्होंने अपने योगबल और तपोबल से समग्र शिक्षा के उद्देश्यों को पूरा करने में अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया।

ब्रिटिश काल में भारत में लगभग क्षत-विक्षत हो चुकी हमारी समृद्ध शैक्षणिक परंपरा को पुन: स्थापित करने के लिए कई महान भारतीय शैक्षिक दार्शनिकों ने सदैव चरित्र निर्माण, मानव-निर्माण एवं राष्ट्र निर्माण हेतु युवाओं में समग्र शिक्षा की आवश्यकता पर बल दिया। स्वामी विवेकानंद ने सदा माना कि जिस शिक्षा से हम अपना जीवन निर्माण कर सकें, मनुष्य बन सकें, चरित्र गठन कर सकें और विचारों का सामंजस्य कर सकें वहीं वास्तव में शिक्षा है। उनके अनुसार, शिक्षा उस सन्निहित पूर्णता का प्रकाश है, जो मनुष्य में पहले से ही विद्यमान है।

स्वामी जी शिक्षा के द्वारा मनुष्य को लौकिक एवं पारलौकिक दोनों जीवन के लिए तैयार करना चाहते थे। उनका मत था कि शिक्षा के द्वारा एक सर्वांगीण रूप से विकसित, ईमानदार चरित्र वाले पूर्ण मानव का निर्माण होना चाहिए। वैदिक विद्वान महर्षि अरविंद का मत था कि व्यक्ति के समग्र विकास के लिए शरीर, मन और बुद्धि के विकास के अतिरिक्त आध्यात्मिक विकास भी आवश्यक है। उनके अनुसार शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति में यह विश्वास जाग्रत करना है कि वह मानसिक तथा आत्मिक दृष्टि से पूर्ण सक्षम हो। उनके अनुसार शिक्षा वह है जो व्यक्ति की अंतर्निहित बौद्धिक एवं नैतिक क्षमताओं का विकास कर सके।

सुविख्यात शिक्षाविद रविंद्रनाथ ठाकुर का दृढ़ विचार था कि शिक्षा का लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार, समग्र विकास एवं अपनी संस्कृति तथा पर्यावरण-प्रकृति से गहराई से जुड़ाव होना चाहिए। उनके अनुसार भारत में ऐसी शिक्षा व्यवस्था होनी चाहिए जो प्रकृति के निकटतम संपर्क में दी जाए। उनका मानना था कि शिक्षा का उद्देश्य प्रकृति तथा व्यक्ति में एकत्व की भावना का विकास करना है।

भारतरत्न महामना पंडित मदन मोहन मालवीय ने इस बात पर जोर दिया कि शिक्षा के मूल में छात्र के समग्र विकास की अवधारणा होनी चाहिए जिससे छात्रों में चरित्र निर्माण, देशभक्ति, करुणा, प्रेम, मातृभूमि के प्रति समर्पण का भाव विकसित हो, ज्ञान और कौशल सशक्तिकरण के अतिरिक्त छात्रों का शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विकास हो सके। उन्होंने छात्रों के विकास और चरित्र निर्माण के लिए धर्म और नीति की शिक्षा को शिक्षण का अभिन्न अंग माना।

महामना मालवीय विद्यार्थियों में सेवा एवं सदाचार का भाव प्रारंभ से ही विकसित करना चाहते थे। महामना ने शिक्षा का अत्यंत ही व्यापक उद्देश्य रखा। वे शिक्षा के द्वारा राष्ट्रभक्त, सदाचारी, चरित्रवान, स्वावलंबी नागरिकों का निर्माण करना चाहते थे। उनका मानना था कि समग्र शिक्षा शैक्षिक दर्शन का मूल होना चाहिए तथा छात्रों में सत्य, ब्रह्मचर्य, व्यायाम, विद्याध्ययन, देशभक्ति, आत्म-त्याग की भावना उच्च स्तर की तथा निस्वार्थ होनी चाहिए-
सत्येन बह्मचर्येण व्यायामेनाय विद्यया।
देशभक्तित्यात्मत्यागेन सम्मानर्ह: सदाभव।।

समग्र शिक्षा की परिकल्पना
समृद्ध संस्कृति और परंपरओं के महात्म्य से परिपूर्ण भारत में उन्नत समाज ओर ज्ञान का जो परिमार्जन किया गया था उसकी स्पष्ट छाप राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में दिखती है। वास्तव में तो समग्र शिक्षा इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के मूल में निहित है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने सभी कुलपतियों से सभी विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में समग्र शिक्षा को लागू करने का अनुरोध किया।

इस शिक्षा नीति के मन्तव्य के अनुसार, समग्र शिक्षा में पर्यावरण शिक्षा के घटक यथा जलवायु, परिवर्तन, जैव विविधता, वन्यजीव संरक्षण, सतत विकास तथा मूल्यपरक शिक्षा के अंतर्गत सत्य, धर्म, शांति, प्रेम, अहिंसा से मानवीय मूल्य शामिल होने चाहिए, वैज्ञानिक स्वभाव, संवैधानिक एवं नैतिक मूल्य, जीवन कौशल, सामुदायिक सेवा आदि का समावेश होना चाहिए। देश के कई उच्च शिक्षण संस्थानों ने अपनी क्षमता के अनुरूप स्नातक एवं स्नातकोत्तर छात्रों में समग्र शिक्षा प्रदान करने हेतु विभिन्न प्रारूप तैयार किए हैं। नि:संदेह, मानवीय मूल्यों के प्रति समर्पित, वैश्विक दृष्टिकोण रखने वाले ऐवे युवा ही आत्मनिर्भर भारत का आधार बन सकेंगे, वैश्विक मंच पर भारतीय सांस्कृतिक पुनरुत्थान के वाहक बन सकेंगे तथा वैश्विक चुनौतियों का सामना करने में पूर्णता के साथ सक्षम हो सकेंगे।

Topics: ‘समग्र शिक्षा’चहुंमुखी विकासबहुमुखी मेधाभारतीय शैक्षणिक परंपराशिक्षा की भारतीय दृष्टिप्राचीनतम संस्कृति
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