गत एक माह में नीतीश कुमार ने गांधी परिवार से दो लंबी वार्ता की। एनडीए छोड़ने के बाद सोनिया गांधी से टेलीफोन पर 20 मिनट तक बात की। इसके बाद अपनी दिल्ली यात्रा के क्रम में राहुल गांधी से उन्होंने लगभग 50 मिनट तक वार्ता की। यहां तक कि अपने दिल्ली मिशन की शुरुआत उन्होंने 5 सितंबर की शाम राहुल गांधी के 12 तुगलक लेन स्थित आवास पर भेंट कर की। आखिर क्या कारण है कि नीतीश महागठबंधन में सबसे अधिक महत्व कांग्रेस पार्टी को दे रहे हैं! एक स्वाभाविक उत्तर हो सकता है कि कांग्रेस अभी भी राष्ट्रीय पार्टी और सबसे पुरानी है। वैसे देखा जाए तो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) भी सभी राज्यों में है। केरल में लंबे समय से शासन में है। कभी बंगाल की राजनीति के केंद्र में माकपा ही होती थी। 35 वर्ष तक माकपानीत वाम गठबंधन का वहां शासन रहा, लेकिन नीतीश की नजर में कांग्रेस क्यों महत्वपूर्ण है?
वास्तव में बिहार का सत्ता समीकरण ऐसा हो गया है, जिसमें कांग्रेस की भूमिका सबसे अधिक है। कांग्रेस चाह ले तो नीतीश कुमार आसानी से सत्ता से बेदखल हो सकते हैं। बिहार में 243 सदस्यीय विधानसभा है। नीतीश कुमार द्वारा पाला बदलने के बाद महागठबंधन का समीकरण भी बदला है। वैसे तो महागठबंधन में 165 विधायक होते हैं, लेकिन अनंत सिंह और अनिल सहनी की सदस्यता समाप्त होने के बाद अब महागठबंधन में 163 विधायक हैं। अगर नीतीश कुमार की पार्टी जदयू को निकाल दें तो महागठबंधन में 118 विधायक बचते हैं, जो जादुई आंकड़े से सिर्फ 4 पीछे हैं। लेकिन बिहार विधानसभा अब 240 सदस्यों की सभा हो गई है। भाजपा के सुभाष सिंह का निधन हो गया है। इस प्रकार तेजस्वी के मुख्यमंत्री बनने में सिर्फ 3 विधायकों की कमी है। अगर नीतीश कुमार के सिर्फ 6 विधायक इस्तीफा दे दें तो बिहार में सत्ता बदल सकती है। तेजस्वी यादव को आसानी से मुख्यमंत्री का पद मिल सकता है। यदि मौका मिले तो यह स्वर्णिम अवसर राजद नहीं छोड़ने वाला है। वैसे भी नीतीश कुमार का कोई भरोसा नहीं है। कब किस करवट बैठेंगे, यह कहा नहीं जा सकता।
ऐसी स्थिति में सत्ता की कमान कांग्रेस के पास है, जिसके 19 विधायक सदन में हैं। नीतीश बिहार विधानसभा के आंकड़ों को समझते हैं। उन्हें पता है कि इस विकट परिस्थिति में कांग्रेस के सहयोग के बगैर राजद से यह काम नहीं हो पाएगा। पिछले 32 वर्ष में कांग्रेस के पास यह पहला अवसर आया है जब सत्ता की चाभी कांग्रेस के पास है। कांग्रेस को निर्णय करना है कि वह अपने 25 वर्ष के पुराने साथी राजद पर भरोसा करेगी या फिर नीतीश कुमार के नाम पर जदयू के पीछे खड़ी रहेगी। अगर कांग्रेस तेजस्वी के साथ जाती है तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि विपक्षी एकता की बात करने वाले नीतीश कुमार कितने विश्वसनीय हैं ?
नीतीश कुमार और लालू प्रसाद अपने को लोहिया का चेला बताते हैं। यह और बात है कि लोहिया की मृत्यु के बाद ही ये लोग राजनीति में सक्रिय हुए। लोहिया जी गैर कांग्रेसवाद का नारा देते थे। ये दोनों आपातकालीन संघर्ष की उपज हैं। उस समय समाजवादियों और जनसंघ के नेताओं के ऊपर कांग्रेस का कठोर दमन चला था।
नीतीश कुमार की राहुल गांधी से भेंट पर जदयू के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री आर सी पी सिंह ने कहा कि नीतीश जेपी की उपज हैं। उस जेपी आंदोलन की, जिसमें कांग्रेसियों ने जमकर लाठियां चटकाई थीं। आज नीतीश कुमार उसी कांग्रेस पार्टी के प्रमुख परिवार के पास जाकर निर्लज्जता पूर्वक फोटो खिंचवा रहे हैं। दरअसल यह कुर्सी की माया ही है जो नीतीश कुमार को सोने नहीं दे रही है।
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