भारत में केंद्रीय विद्यालयों में एक लंबे समय से सुबह की प्रार्थना संस्कृत और हिन्दी में होती आई है। लेकिन अब इसे लेकर सवाल उठाया गया है कि क्या ऐसा करना सब छात्रों के लिए अनिवार्य होना चाहिए? कल सर्वोच्च न्यायालय में इस विषय पर चली चर्चा में कई बिंदु उभर कर आए हैं।
दरअसल सर्वोच्च न्यायालय में इस संबंध में याचिका दायर की गई है जिस पर न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी के सामने चली चर्चा में एक मौके पर स्वयं न्यायमूर्ति बनर्जी ने बताया कि उन्हें आज भी अपने स्कूल की प्रार्थना सभा में सबका साथ खड़े होकर प्रार्थना करना याद है। यह बात सही है। ईसाई मिशनरी विद्यालयों को छोड़ दें तो लगभग सभी विद्यालयों में सुबह की प्रार्थना में सरस्वती वंदना ‘या कुंदेन्दुतुषाार हार धवला…’ और ‘कराग्रे वसते लक्ष्मी….’ जैसे ष्लोक उच्चारित होते आ रहे हैं।
न्यायमूर्ति बनर्जी की बात पर चर्चा के अंदाज में याचिकाकर्ता के वकील कॉलिन गोंजाल्विस ने बताया कि केंद्रीय विद्यालय में पढ़ने वाले एक विद्यार्थी के अभिभावक को इस पर आपत्ति है और उसने अपील की है कि संस्कृत और हिन्दी वाली प्रार्थना की अनिवार्यता खत्म होनी चाहिए।
इस पर न्यायमूर्ति बनर्जी का कहना था कि विद्यालयों में ली गई नैतिक मूल्यों की शिक्षा और पाठ पूरे जीवन हमारे साथ ही तो रहते हैं। अब तक याचिका पर बहस एक चर्चा में बदल चुकी थी जिससे कई दिलचस्प बिंदु उभर कर आए। याचिका दायर करने वाली केन्द्रीय विद्यालय में पढ़ रहे एक बच्चे की मां की तरफ से प्रस्तुत वकील गोंजाल्विस की आगे दलील थी कि अदालत के सामने हमारी अपील एक खास प्रार्थना के संबंध में है, जो सबके लिए समान नहीं हो सकती। कारण, सबकी पूजा पद्धति अलग है। जैसे वह जन्म से ईसाई हैं, लेकिन बेटी हिंदू धर्म को मानती है। आखिर में न्यायमूर्ति बनर्जी ने इस मामले की सुनवाई 8 अक्तूबर के लिए तय कर दी है।
उल्लेखनीय है कि इससे पहले अदालत ने जनवरी 2019 में एक पीआईएल पर केंद्र से जवाब तलब किया था कि क्या केंद्रीय विद्यालयों में रोज सुबह की प्रार्थना हिंदुत्व को बढ़ावा देना है? सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्रीय विद्यालय संगठन को भी नोटिस जारी किया था और इस पर जवाब दाखिल करने को कहा था। सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर टिप्पणी करते हुए इसे ‘बड़ा गंभीर संवैधानिक मुद्दा’ बताते हुए विचार करने की आवश्यकता जताई थी।
दरअसल याचिका में कहा गया था कि केंद्रीय विद्यालयों में 1964 से ही सुबह की प्रार्थना संस्कृत तथा हिंदी में सुबह की प्रार्थना हो रही है। कहा गया कि यह ‘नितांत असंवैधानिक’ है और संविधान के अनुच्छेद 25 तथा 28 के विरुद्ध है। ऐसा करने की आज्ञा नहीं दी जा सकती।
लगता यह है कि पिछले कुछ वर्षों से ‘हिन्दू धर्म और भारतीय संस्कृति के प्रति एक वितृष्णा का भाव दर्शाना सेकुलर होने का मापदंड मान लिया गया है’। केंद्रीय विद्यालयों में सुबह-सुबह ईश स्मरण, वैदिक ष्लोकों का गान भी अब उन सेकुलरों को चुभने लगा है। याचिका में इसी बात पर आपत्ति है कि ये श्लोक क्यों बुलवाए जाते हैं। उधर अदालत ने केन्द्र सरकार और केन्द्रीय विद्यालय संगठन से ही पूछा था कि रोजाना सुबह केन्द्रीय विद्यालयों में होने वाली इस हिंदी तथा संस्कृत की प्रार्थना से किसी धार्मिक मान्यता को बढ़ावा मिल रहा है क्या? अदालत का कहना था कि इसकी जगह कोई सर्वमान्य प्रार्थना क्यों नहीं कराई जाती!
याचिकाकर्ता विनायक शाह के बच्चे केंद्रीय विद्यालय में पढ़ते हैं। देश के 1125 केंद्रीय विद्यालयों की प्रार्थना में वैदिक श्लोक शामिल हैं। ऐसे भी श्लोक हैं जिनमें एकता और संगठित होने का आह्वान है…‘संगच्छध्वं संवदध्वं….’। याचिकाकर्ता की ओर से अदालत में प्रस्तुत हुए देवदत्त कामत का कहना था कि यह तय है कि अगर संवैधानिक मुद्दों का मामला हो तो इसे पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के सामने जाना चाहिए। क्योंकि ये मामला सिर्फ किसी कानून या कायदे के उल्लंघन का नहीं है। अभी तक मामले की सुनवाई दो न्यायाधीशों की पीठ कर रही थी।
अंततः सर्वोच्च न्यायालय की दो जजों की पीठ ने कहा था कि इस विषय को संविधान पीठ के सामने जाना चाहिए। क्योंकि यह धार्मिक महत्व का विषय है, दो जजों की पीठ ने इसे उचित पीठ के गठन के लिए मुख्य न्यायाधीश के पास भेज दिया है।
दोनों प्रकरणों से एक बात साफ होती है कि असल आपत्ति वैदिक श्लोकों या संस्कृत में प्रार्थना से नहीं है, देश में खुद को सेकुलर दिखाने की होड़ में जुटे तत्व हर वह कोशिश करते हैं कि जिससे यहां की संस्कृति आहत हो, देश के बहुसंख्यक समाज को चोट पहुंचे। न्यायमूर्ति बनर्जी की टिप्पणी बहुत महत्वपूर्ण है कि हम जो विद्यालय में सीखते-पढ़ते हैं वह जीवन भर साथ रहता है। लेकिन विद्यालयों को भी राजनीति का अखाड़ा बनाने वाले तत्व इस बात का मर्म नहीं समझ सकते, इसके लिए सही समझ और चीजों को तटस्थता के साथ देखने की आवश्यकता होती है।
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