न भूलने वाला पल
गुजारा करने के लिए पिताजी ने ईंट भट्ठे पर नौकरी की। छोटी बहन के लिए कई बार दूध खरीदने तक के पैसे नहीं होते थे
वासुदेव जयपाल
शूजाबाद,पाकिस्तान
विभाजन की बात आते ही मन पीड़ा से भर उठता है। शरीर कांपने लगता है। बंटवारे के समय मैं 10 साल का था और कक्षा 6 में पढ़ता था। मेरा घर कराची रोड पर शूजाबाद में था। यह इलाका किलेनुमा था। यहां 10 से 12 हजार हिन्दू परिवार रहते थे। घर में माता-पिताजी, एक बड़ी बहन और छोटा भाई था। घर के पास एक गुरुद्वारा हुआ करता था, जहां हम त्योहार मनाने जाते थे। मेरे पिताजी कारोबारी थे। परिवार पूरी तरह से समृद्ध था। लेकिन धीरे-धीरे स्थितियां बिगड़नी शुरू हो गई। हिन्दुओं के घरों को जलाया जाने लगा। रात में हमले शुरू हो गए। ऐसे में हिन्दू रात को घरों में पहरा देते थे। बावजूद इसके मुसलमान मौके की तलाश में रहते और हमला करने से नहीं चूकते थे। हालात दिन-प्रतिदिन खराब होते जा रहे थे। एक दिन मुसलमानों की ओर से ऐलान किया गया कि हिन्दू इलाके को खाली कर दें। धमकियां दी जाने लगीं। सबको जान का डर था। ऐसे में हिन्दू अपने घरों से डरकर भागने लगे। इस सबके बीच जिहादी हिन्दुओं के घरों में घुसने लगे थे। वे लोगों को मार रहे थे। जो कोई सामान ले जाने की हिम्मत दिखाता उसे मार देते। यानी चारों तरफ डर पसर चुका था।
जीवन भर की गाढ़ी कमाई को जिहादी लूट रहे थे। घरों को ताला लगाकर भगा रहे थे। मुझे जब भी यह मंजर याद आता है तो शरीर ठंडा पड़ने लगता है। किसी तरह से हम परिवार सहित शूजाबाद स्टेशन पर आए लेकिन हमें यहां रुकने तक नहीं दिया गया। यहां से हिन्दुओं को भगाया जा रहा था। सब मारे-मारे फिर रहे थे। अफरातफरी थी। हम सब तीन दिन तक स्टेशन के पास पटरी पर ही रात-दिन रहे।
एक शाम माल गाड़ी आई और उसमें सवार हुए। लेकिन कुछ दूर चलने के बाद मिंटगुमरी पर कट्टरपंथियों ने रेल को रुकवा दिया। रास्ते में सभी को उतरने के लिए कह दिया गया। पूरी गाड़ी खाली करा दी गई। मुझे अच्छी तरह याद है कि हम सातवीं गाड़ी में आए थे। लेकिन शूजाबाद से जो तीसरी गाड़ी पाक-पट्टन की ओर निकली थी, उस पर मुसलमानों ने हमला किया था। इस हमले में जिहादी हिन्दू बहन-बेटियों को उठा ले गए। बहुतों का कत्ल किया। इसी गाड़ी में मेरी बुआ की बेटी और मामा का बेटा था। जो किसी तरह छिपकर बच गए थे। बाकी उनके परिजनों को जिहादियों ने मौके पर ही मार दिया था। इन बच्चों को किसी तरह से भारतीय सेना ने बचाया।
खैर, किसी तरह से परिवार सहित एक ट्रक पर सवार होकर भारत के फाजिल्का इलाके में आ पाए। परिवार की आर्थिक स्थिति बिल्कुल खराब थी। हाथ में कुछ नहीं था। पिताजी एक स्थान पर मुंशी का काम करने लगे। 40 रुपए मिलते थे। इससे एक कमरा किराए पर लिया। लेकिन इतने पर भी घर का गुजारा नहीं हो पा रहा था। मैंने भी मजदूरी करनी शुरू की। छह महीने मैंने यह काम किया। फिर हम पानीपत आ गए, जहां एक जानकार के घर रुक गए।
यहां बड़ी दयनीय स्थिति में रहे। गुजारा करने के लिए हमारे पिताजी ने ईंट भट्ठे पर ईंटों की गिनती की नौकरी की। मेरे पिताजी इससे अंदर ही अंदर घुलते जा रहे थे। वे कई बार जब घर आते थे तो कहते थे कि भगवान कैसे-कैसे दिन दिखा रहा है। सबसे छोटी बहन के लिए कई बार दूध खरीदने तक के पैसे नहीं होते थे। पिताजी इसी घुटन में दिवंगत हो गए। यह हमारे लिए बहुत बड़ा झटका था। पर माताजी ने हौसला बंधाया और जीवन से लड़ना सिखाया। धीरे-धीरे काम धंधा और पढ़ाई शुरू की और जीवन सुधरने लगा। लेकिन आज भी मुझे अपना घर याद आता है। मिट्टी की सुंगध अभी दिलो-दिमाग में है। आज भी मैं अपने घर जाना चाहता हूं।
प्रस्तुति- अरुण कुमार सिंह, अश्वनी मिश्र
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