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घुसपैठियों से घिरता भारत

देश के सीमाई राज्यों में मुसलमानों की बढ़ती आबादी चिंताजनक है। राष्ट्र की संप्रभुता पर मंडराते इस प्रत्यक्ष खतरे ने सरकार और सुरक्षा एजेंसियों की की चिंता बढ़ा दी है। इन घुसपैठियों से समय रहते निपटना जरूरी है

by शिवेंद्र राणा
Sep 1, 2022, 01:15 pm IST
in भारत
सीमाई राज्यों में घुसपैठ के कारण तेजी से जनसांख्यिकीय बदलाव हुए हैं

सीमाई राज्यों में घुसपैठ के कारण तेजी से जनसांख्यिकीय बदलाव हुए हैं

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डॉ. राममनोहर लोहिया ने लिखा है, ‘‘भारत अक्सर अपनी अल्पजातियों, मुस्लिम, ईसाई और पारसी की सुरम्य आखेट-भूमि जैसा लगा है और हिंदू, जिन्हें और कहीं जाना नहीं है, कभी-कभी ऐसा लगता है, जैसे उन्हें अपने ही घर से निकाल दिया गया हो। कभी-कभी ऐसा लगा कि भारत हिंदुओं के अलावा और दूसरे सभी का है।’

अपनी मशहूर पुस्तक ‘भारत विभाजन के गुनहगार’ में डॉ. राममनोहर लोहिया ने लिखा है, ‘‘भारत अक्सर अपनी अल्पजातियों, मुस्लिम, ईसाई और पारसी की सुरम्य आखेट-भूमि जैसा लगा है और हिंदू, जिन्हें और कहीं जाना नहीं है, कभी-कभी ऐसा लगता है, जैसे उन्हें अपने ही घर से निकाल दिया गया हो। कभी-कभी ऐसा लगा कि भारत हिंदुओं के अलावा और दूसरे सभी का है।’’ 1950 के दशक में लिखी गई इन पंक्तियों में लोहिया उस ऐतिहासिक यथार्थ का वर्णन कर रहे थे, जो वर्तमान में भी यथावत है।

बीते दिनों जब राष्ट्र श्रीकृष्ण जन्मोत्सव के उल्लास में डूबा हुआ था, तब दिल्ली में राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति पर एक सम्मेलन का आयोजन किया गया। विषय अत्यंत चिंताजनक था- सीमावर्ती राज्यों में तेजी से जनसांख्यिकीय परिवर्तन। इस सम्मेलन में देश के पुलिस बलों के शीर्ष अधिकारी शामिल हुए। सम्मेलन को संबोधित करते हुए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा, ‘‘सीमावर्ती राज्यों के पुलिस प्रमुखों को सीमा के आसपास के इलाकों में हो रहे जनसांख्यिकीय परिवर्तन पर नजर रखनी चाहिए।

यह पुलिस महानिदेशकों की जिम्मेदारी है कि वे अपने राज्य में, खासकर सीमावर्ती जिलों में सभी तरह की तकनीकी और रणनीतिक जानकारी एकत्र करें। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 के बाद से न केवल देश की आंतरिक सुरक्षा पर जोर दिया है, बल्कि चुनौतियों का सामना करने के लिए तंत्र को भी मजबूत किया है। राज्यों को राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दों को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी चाहिए।’’

सीमावर्ती इलाकों में 32 प्रतिशत बढ़े मुस्लिम
सीमाई राज्यों में जनसांख्यिकीय परिवर्तन ने सरकार और सुरक्षा एजेंसियों की पेशानी पर बल ला दिया है। उत्तर प्रदेश एवं बिहार से लगती नेपाल सीमा, उत्तराखंड से लगती चीन सीमा, राजस्थान और पंजाब से सटी पाकिस्तान सीमा, असम और पश्चिम बंगाल से लगते बांग्लादेश बॉर्डर सहित पूर्वोत्तर राज्य ‘डेमोग्राफिक चेंज’ की विभीषिका के शिकार हैं। उत्तराखंड में इसका प्रसार नैनीताल, रुद्रपुर, कुमाऊं, ऊधमसिंह नगर आदि तक हो गया है। इन जिलों में उत्तर प्रदेश के रास्ते घुसपैठ हो रही है। ये उत्तर प्रदेश के साथ सीमा साझा करते हैं।

हरिद्वार, ऊधमसिंह नगर, देहरादून और नैनीताल में हो रहा जनसांख्यिकीय परिवर्तन चिंताजनक है। वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार, उत्तराखंड में मुस्लिम आबादी 10,12,141 थी, जो 2011 की जनगणना में बढ़कर 14,06,825 हो गई। सर्वविदित है कि उत्तराखंड पलायन की समस्या से जूझ रहा है। इसी का फायदा उठाते हुए बीते एक दशक के दौरान बाहर से आए मुसलमान यहां रणनीतिक तरीके से जमीन खरीद कर बस गए। कमोबेश यही स्थिति यूपी, बिहार, झारखंड आदि राज्यों की भी है। इसी संदर्भ में ‘जमीन जिहाद’ चर्चा में है।

आज वही ‘शरणार्थी’ आबादी के आधार पर वहां शरिया कानून लागू करने की मांग कर रहे हैं। इसी शरीयत के बीच नारकीय जीवन की वजह से भागकर एक मुक्त, उन्नत एवं भौतिकतावादी समाज की आकांक्षा में पहुंचे मुसलमानों ने संघर्ष का वही रास्ता अपनाया, जिसकी वजह से उन्हें पलायन करना पड़ा था।

राजस्थान के सीमांत इलाकों में जहां अन्य पांथिक समुदायों की आबादी में 8-10 प्रतिशत की वृद्धि हुई, वहीं मुसलमानों की आबादी 20-25 प्रतिशत बढ़ गई है। पोखरण, मोहनगढ़ और जैसलमेर जैसे सीमाई इलाकों में मदरसों की बाढ़ आ गई है। इसी प्रकार, पिछले 10 वर्ष में उत्तर प्रदेश और असम के कई इलाकों में मुस्लिम आबादी में 32 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है, जबकि पूरे राज्य में यह दर 10-15 प्रतिशत ही है। एक अनुमान के अनुसार, उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती जिलों महाराजगंज, बलरामपुर, पीलीभीत, लखीमपुर खीरी और बहराइच में मुस्लिम आबादी की वृद्धि का औसत राष्ट्रीय औसत से करीब 20 प्रतिशत अधिक है।

महत्वपूर्ण बात यह है कि देश में मुस्लिमों की आबादी बढ़ने की दर लगभग 14 प्रतिशत है, जबकि केंद्रीय गृह मंत्रालय को इससे संबंधित भेजी गई रिपोर्ट के अनुसार सीमावर्ती क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी करीब 32 प्रतिशत तक बढ़ चुकी है।

60 साल में 4 प्रतिशत की बढ़ोतरी
कुछ समय पूर्व अमेरिकी संस्था प्यू रिसर्च सेंटर ने राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण और जनगणना आंकड़ों का विस्तृत अध्ययन कर भारतीय आबादी की पांथिक संरचना में अब तक हुए परिवर्तन को समझने का प्रयास किया था। इस शोध के अनुसार भारत में सबसे ज्यादा जन्मदर मुसलमानों की है।

2015 के आंकड़ों के मुताबिक भारत में सर्वाधिक जन्मदर प्रति मुस्लिम महिला 2.6 थी। वहीं, 1990 के दशक में औसतन प्रति मुस्लिम महिला 4.4 बच्चों को जन्म दे रही थी, जो हिंदुओं (3.3) से ज्यादा थी। इस शोध के अनुसार बीते 60 वर्ष में मुस्लिम आबादी 4 प्रतिशत बढ़ी है, जबकि इसी दौरान हिंदुओं की आबादी लगभग इतनी ही कम हो गई है।

2011 की जनगणना के अनुसार, देश की कुल आबादी में हिंदू 79.8 प्रतिशत थे, जो 2001 की जनगणना की तुलना में 0.7 प्रतिशत कम था। 1951 की जनगणना से इसकी तुलना करें तो हिंदुओं की आबादी 4.3 प्रतिशत कम हुई। तुलनात्मक रूप से इसी कालखंड में मुस्लिम आबादी बढ़ी।

2001 में देश की कुल आबादी का 13.4 प्रतिशत मुसलमान थे, जो 2011 में बढ़कर 14.2 प्रतिशत हो गए। यानी 1951 की तुलना में मुसलमानों की आबादी में 4.4 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। ऐसा नहीं है कि मात्र जन्म दर ही मुस्लिम आबादी की वृद्धि की वजह है, बल्कि इसमें घुसपैठ की भी बड़ी भागीदारी है। उपरोक्त आंकड़े भारत के सुनियोजित जनसांख्यिकी बदलाव की पुष्टि करते हैं।

एक और विभाजन नहीं चाहिए
भारतीय जनमानस मुस्लिम घुसपैठ एवं उनकी बढ़ती जनसंख्या को लेकर उद्वेलित है। इसका कारण उसका अतीत है। मध्यकालीन युग को छोड़ दें, तब भी स्वतंत्रता संघर्ष के समय भारत ने मजहबी कट्टरता के आधार पर एक स्पष्ट विभाजक रेखा देखी है। भारत दुनिया का एकमात्र देश है, जिसने मजहबी आधार पर विभाजन को झेला है। एनी बेसेंट ने इस मुद्दे को उठाते हुए कहा था, ‘‘मुसलमानों की पहली वफादारी मुस्लिम देशों के प्रति है, हमारी मातृभूमि के प्रति नहीं। हमें यह भी मालूम हुआ है कि उनकी उत्कट इच्छा है ‘अल्लाह का साम्राज्य स्थापित करना’, न कि संसार के परमात्मा का, जिसे अपने सभी प्राणियों से समान प्रेम है।

मालाबार में हमें सीख मिल चुकी है कि इस्लामी शासन के अर्थ क्या हैं और अब हम भारत में खिलाफत राज्य का दूसरा नमूना नहीं देखना चाहते।’’ वे यह भी कहती हैं, ‘‘हमें स्वाधीन भारत के बारे में सोचते समय मुस्लिम शासन के आतंक के बारे में भी विचार करना होगा।’’ (द फ्यूचर आफ इंडियन पॉलिटिक्स, पृष्ठ-301-305) रवींद्रनाथ ठाकुर ने एक बंगला समाचारपत्र को दिए साक्षात्कार में कहा था, ‘‘हिंदू-मुस्लिम एकता को असंभव बनाने वाला कारण मुसलमानों की राष्ट्रभक्ति थी, जो वे किसी एक देश के प्रति कायम नहीं रख सकते।’’
(‘थ्रू इंडियन आईज’, टाइम्स आफ इंडिया, 18 अप्रैल,1924)

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद रोहिंग्या घुसपैठियों को शरणार्थी कार्ड जारी करती है,लेकिन भारत इन्हें शरणार्थी मानने के लिए बाध्य नहीं है

मुस्लिम समुदाय की मूल समस्या उसके मजहबी संस्कार हैं। किसी भी देश में मुसलमान प्रथमतया इस्लाम की शुद्धता, शरिया की हिफाजत तथा दार-उल-इस्लाम की स्थापना के नाम पर हिंसक संघर्ष शुरू करते हैं। जब वहां प्रतिपक्ष में उन्हें कोई काफिर-मुशरिक समाज या दार-उल-हर्ब नहीं मिलता तो उनका संघर्ष आंतरिक होता है, जिसमें शिया-सुन्नी, अहमदी, हनफी, वहाबी, सलाफी इत्यादि फिरके एक-दूसरे के निशाने पर होते हैं

घुसपैठियों को शरणार्थी का दर्जा नहीं
दूसरे दृष्किोण से, किसी भी राष्ट्र के लिए शरणार्थियों की समस्या मूलत: विधिक, आर्थिक एवं राष्ट्रीय संप्रभुता का प्रश्न है। भारत ने संयुक्त राष्ट्र के 1951 के शरणार्थी अधिवेशन तथा 1967 के प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। अत: वह यू.एन.एच.आर.सी. की तरफ से जारी किए जाने वाले शरणार्थी कार्ड को स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं है। इसका अर्थ यह है कि भारत में रहने वाले घुसपैठियों को आजीविका, खाद्य सुरक्षा, आवास या शिक्षा मांगने का अधिकार नहीं है, लेकिन वे शरणार्थी न्यायालय के माध्यम से इन अधिकारों का दावा कर रहे हैं।

घुसपैठ की समस्या दशकों पुरानी समस्या है, जिसके लिए पूर्ववर्ती सरकारें जिम्मेदार हैं। 1964-65 में कलकत्ता उच्च न्यायालय के समक्ष लाए गए विभिन्न मामलों से पता चला कि वीजा की मियाद खत्म होने के बाद भी बड़ी संख्या में मुसलमान अपने देश नहीं लौटे, बल्कि अपने संबंधियों की सहायता से पश्चिम बंगाल के सीमावर्ती इलाकों में स्थायी रूप से बस गए। इसके बाद पुलिस ने बहुत से घुसपैठियों को बांग्लादेश वापस भेजा। उसी दौरान बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने सार्वजनिक रूप से घुसपैठ को मानवीय समस्या बताते हुए कहा कि इसका मूल कारण बांग्लादेश में भोजन एवं आजीविका की कमी है।

उनके इस बयान के बाद मुस्लिम घुसपैठियों को वापस भेजने का कार्यक्रम न केवल बंद कर दिया गया, बल्कि सरकारी संरक्षण में सत्ताधारी दल इनके तुष्टीकरण में जुट गए। घुसपैठियों के राशन कार्ड बन गए। मतदाता सूची में भी उनके नाम चढ़ गए, जबकि उस समय देश गरीबी एवं खाद्य संकट से जूझ रहा था।

1961 में भारत में गरीबी दर 46.5 प्रतिशत थी। इसी तरह, 1973-74 में देश की कुल जनसंख्या 56.79 करोड़ थी, जिसमें 36 करोड़ से अधिक आबादी गरीब थी। ऐसे समय में भारत तथाकथित मानवीय मूल्यों के नाम पर घुसपैठियों का भरण-पोषण कर रहा था।

चोरी और सीनाजोरी
बीतते समय के साथ इन घुसपैठियों ने अपना सांप्रदायिक रंग दिखाना शुरू कर दिया। उसी समय बांग्लादेश के नेताओं ने खुलेआम धमकी दी कि वे पाकिस्तान के मुसलमानों के साथ भारत में (अवैध तरीके से रह रहे) मुसलमानों की एक लंबी यात्रा निकालेंगे। इससे उत्साहित घुसपैठियों ने 1992 में कलकत्ता प्रेस क्लब में एक सभा कर खुलेआम मांग की कि उन्हें भारत की नागरिकता प्रदान की जाए। घुसपैठ के गहरे निहितार्थ होते हैं।

यह अप्रत्यक्ष रूप से किसी राष्ट्र को हस्तगत करने का मार्ग है। इसके अंतर्गत रणनीतिक तौर पर लक्षित क्षेत्र में मजहबी आबादी की घुसपैठ कराई जाती है और उसे बसाया जाता है। नियत समय के बाद जब उनकी आबादी वहां की मूल आबादी की तुलना में अधिक हो जाती है, तो ये घुसपैठिये अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक एवं मजहबी मान्यताएं पूरे क्षेत्र में लागू करने की कोशिश करते हैं और इसके लिए हिंसा का मार्ग भी अपनाने को तत्पर रहते हैं।

इस तरह, वे धीरे-धीरे उस क्षेत्र की धार्मिक-सांस्कृतिक, आर्थिक एवं जनसांख्यिकी पर वर्चस्व स्थापित कर उस पर कब्जा जमा लेते हैं। 13वीं सदी में मंगोलों के हमलों से प्रताड़ित शरणार्थी के रूप में भारत भागकर आए मध्य एशिया के मुसलमान बाद में यहां इस्लामिक वर्चस्व स्थापित करने में जुट गए। ऐसे ही चीनी सरकार तिब्बत क्षेत्र के जनसंख्या अनुपात में फेरबदल करने के लिए ‘हान’ चीनी समुदाय को तिब्बत में बसा रही है।

संकट में यूरोपीय सभ्यता
इसी शरणार्थी समस्या के कारण यूरोपीय सभ्यता भी संकट में है। 2013-14 से मध्य-पूर्व के इस्लामी जगत में चल रहे भीषण संघर्ष के दौरान मुसलमानों ने वृहद तौर पर शरणार्थियों के रूप में यूरोप का रुख किया। तब यूरोपीय देशों ने बांहें फैलाकर इनका स्वागत किया।

आज वही ‘शरणार्थी’ आबादी के आधार पर वहां शरिया कानून लागू करने की मांग कर रहे हैं। इसी शरीयत के बीच नारकीय जीवन की वजह से भागकर एक मुक्त, उन्नत एवं भौतिकतावादी समाज की आकांक्षा में पहुंचे मुसलमानों ने संघर्ष का वही रास्ता अपनाया, जिसकी वजह से उन्हें पलायन करना पड़ा था।

असल में इस्लाम में जो विस्तारवाद एवं अतिव्यापन की भावना छठी-सातवीं शताब्दी में थी, वह 21वीं सदी में भी उसी तेजी से कार्य कर रही है। यूरोप में हिंसात्मक संघर्ष का मार्ग मुसलमानों के लिए अधिक सहज है, क्योंकि वह समाज ‘मुशरिक’ एवं ‘काफिरों’ का है, जिनका कत्ल कुरान के अनुसार जायज भी है और जरूरी भी।

यूरोपीय देशों में शरणार्थियों द्वारा अंजाम दी जाने वाली बलात्कार, हत्या, लूटपाट की घटनाएं आम हो चली हैं। ‘लोन वुल्फ’ आतंकी हमलों से पूरे यूरोप महाद्वीप में कोहराम मचा हुआ है। स्थिति यह है कि यूरोप मजहबी-नृजातीय टकराव के मुहाने पर खड़ा है। अमेरिका भी ऐसे ही संकट का सामना कर रहा है।

हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओर्बन ने तब भविष्यवाणी की थी, ‘‘यूरोप वाले एक दिन पछताएंगे।’’ उनकी भविष्यवाणी सही साबित हुई। यूरोप की शरणार्थी समस्या में तुर्की की षड्यंत्रकारी भूमिका रही है। यूरोप के इस्लामीकरण की तुर्की की महत्वाकांक्षा किसी से छिपी नहीं है। शरणार्थी समस्या को लेकर यूरोप के दक्षिणपंथी वर्ग का यही कहना था, ‘‘1529 तथा 1683 की वियना की घेरेबंदी के बावजूद जो यूरोप तुर्की के आगे नहीं झुका, उसे वर्तमान यूरोपीय नेता तुर्की के कदमों में समर्पित कर रहे हैं।’’

समस्या की जड़ मजहबी संस्कार
मुस्लिम समुदाय की मूल समस्या उसके मजहबी संस्कार हैं। किसी भी देश में मुसलमान प्रथमतया इस्लाम की शुद्धता, शरिया की हिफाजत तथा दार-उल-इस्लाम की स्थापना के नाम पर हिंसक संघर्ष शुरू करते हैं। जब वहां प्रतिपक्ष में उन्हें कोई काफिर-मुशरिक समाज या दार-उल-हर्ब नहीं मिलता तो उनका संघर्ष आंतरिक होता है, जिसमें शिया-सुन्नी, अहमदी, हनफी, वहाबी, सलाफी इत्यादि फिरके एक-दूसरे के निशाने पर होते हैं।

हथियारों एवं हिंसा के आक्षेप और प्रतिकार में पिछड़ने वाला वर्ग पलायन कर जाता है। इस्लाम की यह समस्या उसके साथ संभवत: सदैव बनी रहने वाली है, क्योंकि वह अपने मध्यकालीन महजबी संस्कारों में किसी भी सुधारात्मक विचार को अपने अस्तित्व पर संकट की तरह देखता है। इस्लामिक जगत में हिंसक संघर्ष एवं पलायन अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है। जो इसी तरह गतिशील रही तो एक समय पूरा विश्व शरणार्थी शिविर में बदल जाएगा।

सुलगते सवाल
कुछ और मूलभूत विषय हैं, जिन पर विचार करना आवश्यक है। जैसे- अपने मूल देश में जिस हिंसात्मक संघर्ष और दंगे-फसाद के कारण दूसरे देशों में शरण लेने वाले मुसलमान क्या वहां शरीयत की लड़ाई नहीं लड़ेंगे या अन्य मतावलंबियों के प्रति संघर्ष का मार्ग नहीं अपनाएंगे? रोहिंग्याओं का उदाहरण सामने है।

दूसरा प्रश्न है मुस्लिम शरणार्थियों/घुसपैठियों के प्रारंभिक लक्ष्य गैर-इस्लामिक व लोकतांत्रिक रूप से पंथनिरपेक्ष राष्ट्र ही क्यों हैं? जबकि खिलाफत के नए दावेदार तुर्की, इस्लाम के रक्षक सऊदी अरब एवं कतर, कुवैत जैसे पेट्रो डॉलर से समृद्ध इस्लामिक राष्ट्र मौजूद हैं।

वे इन्हें अपने यहां क्यों नहीं आमंत्रित करते या उनकी सहायता करते? इस्लामिक मुल्कों के पास मुसलमानों की हर समस्या का हल है, ‘मस्जिदें बनवाना।’ जैसा कि सऊदी अरब ने जर्मनी में मुस्लिम शरणार्थियों के लिए 200 मस्जिदों का निर्माण करवाने का प्रस्ताव दिया था। जर्मन दार्शनिक फ्रेडरिक हीगल की संकल्पनानुसार, ‘‘समाज और राज्य के बीच चेतना और विवेक जैसा संबंध है। समाज ‘चेतना का राज्य’ है और वास्तविक राज्य विवेक युक्त है।’’

पूर्ववर्ती सरकारों की काहिलियत के कारण आज भारत की संप्रभुता पर संकट मंडरा रहा है। अत: आवश्यक है कि इस मसले पर राज्य के विवेक को जागृत रखने के लिए समाज की चेतना आंदोलित रहे। घुसपैठ की विकटता ने देश में उस विभाजक रेखा को सुदृढ़ कर दिया है जो भारत की अखंडता पर संकट उत्पन्न कर रही है।

प्रश्न यह है कि पूर्व में मजहब आधारित क्रूरता का नंगा नाच देख चुका भारत क्या पुन: इसके लिए तैयार है?
कुल वैश्विक क्षेत्रफल के मात्र 2.4 प्रतिशत एवं जल संसाधनों के मात्र 4 प्रतिशत भाग के बूते अपनी लगभग डेढ़ अरब आबादी का वहन कर रहा देश क्या घुसपैठियों का बोझ उठाने की हालत में है?

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