कथित धर्मनिरपेक्ष राजनीति के उभार के दौर में अगर यह सवाल पूछा जाए कि सबसे दकियानूसी शब्द और समाज कौन हैं, सेकुलर जुबानों से दो ही शब्द निकल कर आएंगे…हिंदू और हिंदुत्व। इन शब्दों की व्यापकता और इनके बुनियादी आधार भारतीय बौद्धिक समाज ने किस कदर सीमित बना दिया, अब छुपी हुई बात नहीं है। कथित प्रगतिवादी और वाम ताकतों के लिए ना सिर्फ ये दोनों शब्द, बल्कि हिंदू धर्म और हिंदू दर्शन भी दकियानूस और जाहिल हैं। ये ताकतें हर मुमकिन मंच और स्थान पर हिंदुत्व और हिंदू धर्म पर जब भी हमला करती हैं, या उन पर सवाल उठाती हैं तो उनका एक ही मकसद होता है, हिंदू धर्म, दर्शन और सनातनी सोच को नीचा दिखाना होता है।
लेकिन महज कुछ दशक पहले तक भारत का बौद्धिक समाज ऐसा नहीं था। आकाशवाणी पर 1986 में प्रसारित अपनी आत्मकथा में पंजाबी की मशहूर लेखिका अमृता प्रीतम ने हिंदुत्व और हिंदू शब्द को लेकर जो कहा है, वह आज के भारतीय बौद्धिक समाज की आंख खोलने वाला हो सकता है। अपनी इस आत्मकथा में अमृता प्रीतम ने हिंदू और हिंदुत्व शब्द को सीधे-सीधे भारत भूमि से जोड़कर देखा है। आज के दौर में अगर कोई भारतीय बौद्धिक ऐसा कहा तो उसे तनखैया घोषित करने से प्रगतिशील बौद्धिक समाज पीछे नहीं चूकेगा। अगर अमृता प्रीतम ने आज के दौर में ऐसा कहा होता तो अब तक उनकी लानत-मलामत हो रही होती, सोशल मीडिया के मंचों पर उनकी ट्रोलिंग हो रही होती और उन्हें अब तक जमात बाहर घोषित कर दिया गया होता।
अपनी इस रेडियो आत्मकथा में अमृता प्रीतम ने हिंदुस्तान में पैदा हुए हर व्यक्ति को हिंदू बताती हैं। पता नहीं अमृता प्रीतम ने वीर सावरकर को पढ़ा था या नहीं, क्योंकि इस आत्मकथा से यह पता तो नहीं चलता। लेकिन ध्यान देने की बात है कि वीर सावरकर ही पहले व्यक्ति हैं, जो मानते हैं कि हिंदुस्तान में पैदा हुआ हर व्यक्ति हिंदू है।
बहरहाल अमृता प्रीतम ने उस वक्त जो कहा था, जो आकाशवाणी पर प्रसारित भी हुआ था, जो प्रसार भारती के अभिलेखागार में सुरक्षित है, उसे देखना चाहिए। अमृता ने कहा है, “यहां(रेडियो आत्मकथा में) मैंने हिंदू लफ्ज को सिख, मुस्लिम और ईसाई लफ्जों के साथ इस्तेमाल किया है..आज के प्रचलित अर्थों में। लेकिन सही अर्थों में जाएं तो हिंदू किसी मजहब का नाम नहीं है। हिंदू हिंदुस्तान में पैदा होने वाले का नाम है। आठवीं सदी में इस लफ्ज का हवाला मिलता है। …कि फारस के लोग सिंधु लफ्ज का उच्चारण नहीं कर सकते हैं। और वहां से आए लोगों ने सिंधु नदी के दक्षिण में रहने वाले लोगों को हिंदू नाम दिया। ”
अमृता प्रीतम अपनी रेडियो आत्मकथा में भले ही सिंधु और हिंदू शब्द की प्रचलित ऐतिहासिक व्युत्पत्ति का ही हवाला देती हैं, लेकिन वे आगे जो कहती हैं, वह बेहद मानीखेज है। प्रीतम ने आगे हिंदुत्व की जो व्याख्या की है, वह कम से कम आज के दौर के बौद्धिकों की कलई खोलने वाली है। अमृता प्रीतम कहती हैं, “हिंदू लफ्ज से किसी धर्म या फिरके की तरफ इशारा नहीं था। आर्यावर्त यानी भारतवर्ष के सभी लोग हिंदुओं के रूप में जाने जाते थे और यही हिंदू लफ्ज को सही अर्थों में जाकर मैं मानती हूं…कि किसी का मजबह कोई भी हो, लेकिन पांच तत्व के रिश्ते से….मिट्टी, पवन, पानी, अग्नि और आकाश के रिश्ते से इस देश के मुसलमान भी हिंदू हैं, सिख, पारसी और ईसाई भी हिंदू हैं..जो कि(इसलिए) हिंदू लफ्ज हिंदुस्तान में पैदा होने के लिए है।”
आज के दौर में सांस्कृतिक नाभि-नाल से जुड़े तत्वों की बात करने, भारतीयता की अवधारणा के हिसाब से राष्ट्र और विचार की व्याख्या करने वालों को दकियानूस और पिछड़ा ही नहीं, सांप्रदायिक घोषित कर दिया जाता है। इस हिसाब से आज की बौद्धिकता भी कथित सेकुलर-प्रगतिवादी और राष्ट्रवादी खेमों में बंट गई है या बांट दी गई है। आज सांस्कृतिक और हिंदुत्व की बात करने वाला हर शख्स कम से कम कथित प्रगतिवादियों की नजर में सांप्रदायिक है। अमृता प्रीतम जब इन शब्दों का प्रयोग कर रही थीं, तब तो ये खेमे भी नहीं थे। जाहिर है कि अमृता प्रीतम भारत का सच सामने रख रही थीं और एक तरह से उन्होंने अपनी आत्मकथा में देश की माटी, हवा पानी और सांस्कृतिक अवधारणा को ही सामने रखा है। सवाल यह है कि क्या आज की कथित प्रगतिवादी बौद्धिकता इसे सही संदर्भों में समझने की कोशिश करेगी।
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