12वीं के छात्रों को जिहाद की तालीम, तुर्की की स्कूली किताब में बताया ‘इबादत के लिए जरूरी’

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WEB DESK

इस्लामी देश तुर्की की स्कूली पाठ्यपुस्तक में अब जिहाद पर भी एक अध्याय जोड़कर साफ दर्शाया गया है कि कट्टरपंथी ‘तालीम जिहाद’ जारी है। इस स्कूली किताब में एक पूरे अध्याय में जिहाद को एक ‘फर्ज’ की तरह पेश किया गया है और उसके लिए उकसाया गया है। किताब के अध्याय में लिखा है-‘इस्लाम में इबादत का सबसे जरूरी माध्यम है जिहाद। जिहाद में युद्ध के साथ ही दूसरे तरीके भी शामिल हैं’।

तुर्की में 12वीं क्लास के विद्यार्थियों को दो से ज्यादा साल से यह ‘जिहादी तालीम’ देने का सिलसिला चल रहा है। किशोंरों को सबक देते हुए बताया जा रहा है कि ‘चाहे जिस भी तरीके से जिहाद किया जाए, उसे अगर अल्लाह के नाम पर किया जाता है तो इससे जन्नत के रास्ते खुलते हैं’।  तुर्की जैसे देश में स्कूलों में बोए जा रहे नफरत के बीज और नफरती तालीम की बात कुछ समाचारों के माध्यम से सामने आई है।

इन समाचारों में बताया गया है कि तुर्की के शिक्षा मंत्रालय ने 12वीं क्लास के पाठ्यक्रम में एक किताब शामिल करवाई गई है। 2019 से पढ़ाई जा रही यह किताब दो खंडों में है। इस किताब का नाम है ‘‘फंडामेंटल्स ऑफ रिलीजियस नॉलेज: इस्लाम 2’’ । इसी के एक अध्याय में जिहाद की नफरती तालीम देता एक अध्याय है।

इस अध्याय में क्या छापा गया है, इस पर गौर करने पर जो सामने आया वह हैरान करने वाला है कि आज 22वीं सदी में जी रही दुनिया में इस तरह की पाषाणयुगीन सोच रोपी जा रही है। अध्याय में छपा है-‘‘युद्ध ही नहीं, उसके साथ कई और तरीके भी हैं जिनसे अल्लाह के नाम पर किए कामों को जिहाद कहा जाता है। जिहाद को दिल, जबान, हाथ या हथियार, किसी भी तरीके से किया जा सकता है’’।
इसी अध्याय में आगे लिखा है-‘‘शहादत को सबसे खास मानते हुए हमारे पुरखे जिहाद के लिए निकले थे। उनका यही कहना था कि-अगर मैं मरा तो शहीद कहलाऊंगा और बच गया तो गाजी। इस तरह हमारे पुरखे कभी भी शहीद होने से पीछे नहीं हटे।’’

यह जहर वहां कुछ छात्रों के दिमागों में नहीं बस चुका है, बल्कि लाखों बच्चे ये तालीम ले चुके हैं। तुर्की के स्कूलों में यह जिहादी तालीम 2019 में 12वीं पढ़कर निकले 8,91,000 छात्रों ने ली, फिर 2020 में 12वीं करने वाले 8,94,100 छात्रों ने यही तालीम ली।

किताब कहती है कि ‘जिहाद को बढ़ावा देने की बात कुरान में भी है, इसका जिक्र पैगंबर मोहम्मद ने हदीस में भी किया है। जो जिहाद करता है, मुजाहिद कहलाता है’। इसमें कई जगह कुरान का जिक्र किया गया है जिससे तालीम लेने वाले बच्चे इसी मजहब से जुड़ी जरूरी चीज समझकर ही अपने अंदर बैठने दें। अध्याय में आगे है कि कैसे ‘कयामत के दिन तक जिहाद करना हर मुसलमान के लिए जरूरी है’। लिखा है…‘‘जिहाद इबादत का ऐसा तरीका है कि जिसे मुसलमान शहीद होने की सोचते हुए अपनी जान, दौलत या उस दिमाग के जरिए कर सकते हैं जो अल्लाह ने उनको दिया है’’।

भारत के मदरसों की बात करें तो उनमें भी तो यही सब तालीम दी जा रही है। मदरसों को कई मुस्लिम विद्वानों ने ‘आतंक के ऐसे ठिकाने बताया है जहां आतंकवादियों की फसल तैयार की जा रही है’। उनका इशारा उसी नफरती तालीम की ओर है जो छोटे मुस्लिम बच्चों में ‘काफिर को मारने’ की सोच भरती है, जो उस देश से नफरत करने को उकसाती है जिसमें वे पैदा हुए, पले-बढ़े हैं।

केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने अनेक मंचों से बार-बार कहा है कि मदरसों में ईशनिंदा करने वालों का सिर कलम करने की बात सिखाई जाती है। मासूम बच्चों को ही यह ट्रेनिंग दी जाती है कि कोई विरोध में मुंह खोले तो उसका सिर कलम कर दो। आरिफ मोहम्मद खान ने यह भी कहा है कि यह कानून कुरान से नहीं आया है। यह कानून कुछ लोगों ने शहंशाहों के जमाने में बनाया था। लेकिन आज भी यही कानून बच्चों को सिखाया जाता है।

श्री खान हमेशा मजहबी कट्टरता के मुखर विरोधी रहे हैं। इसलिए वे यह कहते हैं कि मौलाना और मदरसे मुसलमानों के एक वर्ग को कट्टर बना रहे हैं। वे बच्चों को गैर-मुसलमानों के विरुद्ध उकसाते हैं। इसी से नफरत पैदा होती है। दूसरे पंथों के प्रति नफरत। सोचिए, ये सब पढ़कर बच्चे बड़े होने पर क्या-क्या नहीं कर गुजरते। इसके उदाहरण आए दिन देखने में आते हैं। ‘सर तन से जुदा’ की सोच का बीज नफरत की उसी तालीम से पड़ता है।

आरिफ मोहम्मद खान इसलिए मजहबी कट्टरपंथियों और उनके पैरोकार कम्युनिस्टों के निशाने पर रहते हैं। और ऐसे ही निशाने पर रहते हैं शिया नेता वसीम रिजवी, जो अब ‘सनातन धर्म अपना चुके हैं’। रिजवी ने यह कहकर कट्टरपंथी मुस्लिमों को बेचैन कर दिया था कि ‘कुरान की 26 आयतें हटा दी जानी चाहिए जो नफरत की वजह हैं, क्योंकि ये कट्टरपंथ को बढ़ावा देती हैं’। उनका यहां तक कहना था कि मदरसों में आईएसआईएस के आतंकी तैयार किए जा रहे हैं। उनका बयान था कि ‘अगर इन मदरसों को जल्दी ही बंद नहीं किया गया तो मुस्लिमों की आने वाली नस्लें 15 से 20 साल बाद आईएसआईएस की सिपाही बन जाएंगी’।

 

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