चोखाराम
गदाई, पाकिस्तान
मेरा गांव गदाई, डेरा गाजी खान से दो मील दूर था। गदाई में 1942 में संघ की शाखा शुरू हुई थी। नोनीत राय जी हमारे मुख्य शिक्षक थे। वे डेरा गाजीखान से रोजाना आते और शाखा लगाते। वे हम स्वयंसेवकों को जगाते भी थे। उनकी मेहनत और संघ के प्रति निष्ठा देखकर अनेक लोग स्वयंसेवक बने। उनमें मैं भी एक था। जब हम लोग शाखा लगाते तो उस समय मुसलमानों की भीड़ इकट्ठी हो जाती थी। बाद में कई बार यही भीड़ हिंसा पर उतारू हो गई। इसके बावजूद शाखा चलती रही।
शाखा से गांव के हिंदुओं को एक नई ऊर्जा मिलती थी और वही ऊर्जा उन्हें बंटवारे के बाद भी गांव में टिकाए रही। लेकिन धीरे-धीरे परिस्थितियां विकट होने लगीं। 1947 में पाकिस्तान बनने के बाद हमें धमकियां मिलनी शुरू हो गई। मुसलमान कहने लगे, यहां से बाहर निकलो, नहीं तो मार दिए जाओगे। इस माहौल में वहां कब तक रहते।
आखिर में हिंदुओं ने गांव छोड़ दिया। सभी पैदल ही डेरा गाजीखान पहुंचे। मेरे पास एक साइकिल और एक गधा था। हम लोग गधे पर सामान लादकर निकल पड़े। एक पड़ोसी की माता जी बीमारी की वजह से चल नहीं पा रही थीं। उन्होंने मेरी साइकिल पर माताजी को बैठा लिया और खुद चलाने लगे। रास्ते में हमले का भी डर था।
खैर, भगवान का नाम लेकर हम लोग डेरा गाजीखान पहुंचे। उस वक्त वहां धारा 144 लगी हुई थी। उस समय डेरा गाजीखान में ‘महावीर दल’ का अच्छा प्रभाव था। हम लोगों के आने की खबर महावीर दल तक पहुंची तो उसके कार्यकर्ता हम लोगों की मदद के लिए आ गए। उनकी मदद से ही हम लोग सुरक्षित जगह पहुंचे।
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