भारतस्वरूप आहूजा
डेराइस्माइल खान, पाकिस्तान
भारत विभाजन के समय मैं लायलपुर जिले के कमालिया स्थित एक गुरुकुल में पांचवीं में पढ़ता था। मेरा परिवार डेरा इस्माइलखान में रहता था। गुरुकुल में जानकारी मिली कि भारत का विभाजन हो गया है और अब यहां से हिंदुओं को भारत जाना होगा। फिर कुछ ही दिन में हालात ऐसे बन गए कि गुरुकुल के संचालक ही हम लोगों को तुलंबा के पास एक रेलवे स्टेशन पर ले गए और वहां से रेलगाड़ी से लाहौर पहुंचे। लाहौर स्टेशन पर काफी हंगामा हो रहा था।
चारों ओर ‘अल्लाह हू अकबर’ के नारे लग रहे थे। अंत में सेना ने रास्ता साफ करवाया और हमारी गाड़ी आगे बढ़ी। पहले जालंधर और फिर अमृतसर पहुंचे। मेरे एक चचेरे भाई करनाल में डॉक्टर थे। मैं एक दिन करनाल पहुंचा, लेकिन उनका पता नहीं चला। मेरे एक परिचित दिल्ली के कुतुब रोड पर रहते थे। इसलिए दिल्ली आ गया। पूछते-पूछते कुतुब रोड गया, लेकिन तब तक अंधेरा हो गया। कई लोगों से उनके बारे में पूछा, लेकिन उनकी जानकारी नहीं मिली।
अब समस्या हुई कि रात में कहां रहें? इसलिए स्टेशन की ओर लौटने लगे। रास्ते में एक व्यक्ति मिला। पूछा अंधेरे में अकेले कहां जा रहे हो? मैंने उन्हें सारी बात बता दी, तो वे हमें अपने घर ले गए। वही दूसरे दिन मुझे किग्ंजवे कैंप छोड़ आए। साथ ही कहा कि दिल्ली आने वाले अधिकतर शरणार्थी यहीं आते हैं।
यहां रहोगे तो हो सकता है कि तुम्हें एक दिन अपना परिवार मिल जाएगा। उस समय मेरे परिवार में माताजी, बहन और भाई थे। पिताजी गुजर चुके थे। कुछ दिन बाद उसी कैंप में मां और भाई मिले। मां मुझे बहुत देर तक सीने से लगाए खड़ी रही।
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