राजनीतिक बहस के समांतर सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई भी चल रही है। न्यायालय ने इसे गंभीर मुद्दा बताते हुए सरकार तथा चुनाव आयोग से इसे रोकने के लिए जरूरी समाधान खोजने को कहा है। इस मामले की सुनवाई 3 अगस्त को हुई
प्रमोद जोशी
राजनीति अन्य चीजों के अलावा लोक-लुभावन फॉर्मूलों से भी चलती है और ‘गरीब-परवर’ की छवि जादू का काम करती है। 1972 के चुनाव में इंदिरा गांधी के ‘गरीबी हटाओ’ नारे ने जादू किया था। 1985 के आंध्र विधानसभा चुनाव में तेलुगु देशम पार्टी (तेदेपा) के एनटी रामाराव ने दो रुपए किलो चावल देने का वादा किया। उन्हें जबर्दस्त सफलता मिली। भले ही चुनाव बाद वहां 8 रुपए किलो चावल बिका, पर जादू तो चला। तमिलनाडु में जयललिता ने जादू चलाया। उन्होंने ‘अम्मा नमक’, ‘अम्मा सीमेंट’, ‘अम्मा ग्राइंडर-मिक्सी, ‘अम्मा टेबल फैन’ व किसानों के लिए ‘अम्मा बीज’ जैसी योजनाएं चलार्इं और सस्ते टिकट पर सिनेमा देखने का इंतजाम भी किया था। मुफ्त में कुछ मिले, तो मन डोलता ही है। क्या यह सांविधानिक और नैतिक दृष्टि से ठीक है? इससे मुफ्तखोरी नहीं बढ़ेगी? क्या इस पैसे से कोई और बेहतर काम नहीं हो सकता? ऐसे कई सवाल हैं, जिनका जवाब देने का समय आ रहा है। देश की राजनीति में अचानक ‘रेवड़ी-संस्कृति’ के स्वर सुनाई पड़ रहे हैं।
सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई
इस पर राजनीतिक बहस के समांतर सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई भी चल रही है। न्यायालय ने इसे गंभीर मुद्दा बताते हुए सरकार तथा चुनाव आयोग से इसे रोकने के लिए जरूरी समाधान खोजने को कहा है। इस मामले की सुनवाई 3 अगस्त को हुई, जिसमें अदालत ने एक विशेषज्ञ समिति बनाने का सुझाव दिया। अदालत मानती है कि इस मसले में नीति आयोग, वित्त आयोग, विधि आयोग, रिजर्व बैंक, सत्तारूढ़ तथा विरोधी दलों के नेताओं से भी सलाह ली जानी चाहिए। उसने याचिका दायर करने वाले के अलावा सरकार और चुनाव आयोग से भी सुझाव मांगे हैं।
देश की राजकोषीय व्यवस्था में अनुशासन लाने, सरकारी खर्च व घाटे जैसे कारकों पर नजर रखने के लिए राजकोषीय जवाबदेही एवं बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) कानून 2003 में बना और जुलाई 2004 में वह लागू हुआ। इसके तहत केंद्र और राज्य-सरकारों की कुछ जिम्मेदारियां भी बनती हैं। सब्सिडी और ‘फ्रीबीज’ के अंतर को समझना भी आवश्यक है।
सब्सिडी न्यायसंगत है और इसमें विशेष रूप से लक्षित लाभ, विशिष्ट मांगों की पूर्ति का उद्देश्य रहता है। ‘फ्रीबीज’ राजनीतिक लाभ के लिए लोक-लुभावन वादों पर आधारित हैं। रेवड़ी-संस्कृति का मतलब केवल लोक-लुभावन बातें हैं। इसमें सरकार के सांविधानिक-दायित्वों को शामिल नहीं किया जा सकता। कई सेवाएं सरकार अपने संवैधानिक दायित्वों (राज्य नीति के निदेशक सिद्धांत) के तहत नागरिकों को प्रदान करती है। जैसे-सार्वजनिक वितरण प्रणाली, सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य, मुफ्त वैक्सीन, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम, मध्याह्न भोजन योजना वगैरह।
रेवड़ी-संस्कृति के खतरे
यह मामला केवल इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि इससे राजनीति में ‘मुफ्त की रेवड़ियां’ बांटने की संस्कृति जन्म ले रही है, बल्कि इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे राज-व्यवस्था के चरमराने का खतरा पैदा हो गया है। शीर्ष अदालत की हिदायतों से इतर आरबीआई की एक रिपोर्ट में इस खतरे के प्रति आगाह किया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि राज्य सरकारें मुफ्त की योजनाओं पर जमकर खर्च कर रही हैं, जिससे वे कर्ज के जाल में फंसती जा रही हैं।
‘स्टेट फाइनेंसेज: अ रिस्क एनालिसिस’ शीर्षक रिपोर्ट के अनुसार, पंजाब, राजस्थान, बिहार, केरल व पश्चिम बंगाल कर्ज के दलदल में धंसते जा रहे हैं। मीडिया में यह चर्चा शीर्ष न्यायालय की सुनवाई या आरबीआई की रिपोर्ट पर नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की टिप्पणी के बाद शुरू हुई है। उन्होंने 16 जुलाई को बुंदेलखंड एक्सप्रेसवे का उद्घाटन करते हुए ‘रेवड़ी कल्चर’ का जिक्र किया और जनता को मुफ्तखोरी की राजनीति से बचने की सलाह दी।
केजरीवाल शिक्षा और स्वास्थ्य का नाम लेते हैं, मुफ्त बिजली-पानी का नहीं। उनकी दोनों ही बातें भ्रामक हैं। वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन ने इनका जवाब दिया। शिक्षा और सार्वजनिक-स्वास्थ्य सर्वमान्य सामाजिक कल्याण का काम है और केंद्र तथा सभी राज्य सरकारें इसका पालन करती हैं। केजरीवाल के वक्तव्य का ज्यादातर चैनलों पर सीधा प्रसारण हुआ। दिल्ली सरकार के कार्यक्रमों के सजीव-प्रसारण की परंपरा इन दिनों ज्यादा दिखाई पड़ रही है। क्या इसके पीछे कोई व्यावसायिक कारण है?
हालांकि उन्होंने किसी का नाम नहीं लिया, पर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इसे अपने ऊपर ले लिया और उसी शाम जवाब दिया कि उनका ‘दिल्ली-मॉडल’ वोट जुटाने के लिए मुफ्त पेशकश से दूर, कम आय वाले लोगों को निशुल्क शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली व पानी सुनिश्चित करके ‘देश की अर्थव्यवस्था की बुनियाद’ को मजबूत बनाने की कोशिश कर रहा है।
इस सवाल का जवाब राजनीतिक, नैतिक व अर्थव्यवस्था जैसे सभी नजरियों से खोजना चाहिए। शीर्ष अदालत में यही कोशिश की जा रही है। पहले भी अदालत इस प्रश्न पर विचार कर चुकी है। एस. सुब्रह्मण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु शासन (2013) मुकदमे की पृष्ठभूमि में तमिलनाडु विधानसभा के 2006 और 2011 के चुनाव थे। 2006 के चुनाव में डीएमके ने रंगीन टीवी देने का वादा किया। पार्टी चुनाव जीती और सरकार ने टीवी बांटे। 2011 के चुनाव में एआईएमडीएमके ने ग्राइंडर-मिक्सर, पंखा, लैपटॉप, बेटी की शादी के लिए 50,000 रुपये, लड़कियों को चार ग्राम का मंगलसूत्र, मकान, मुफ्त मवेशी और 20 किलो चावल आदि देने के वादे किए।
पार्टी चुनाव जीत गई। दोनों मामलों को सुब्रह्मण्यम बालाजी ने उच्च न्यायालय में चुनौती देते हुए कहा कि उपहार देना जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 के तहत भ्रष्ट आचरण है। पर न्यायालय ने इन वादों को भ्रष्ट आचरण नहीं माना। शीर्ष अदालत ने भी नहीं माना। अलबत्ता अदालत ने यह माना कि मुफ्त चीजों से वोटर प्रभावित होते हैं। साथ ही, कहा कि इसे रोकने के लिए चुनाव आयोग आचार संहिता बनाए। इसमें राजनीतिक दलों की राय भी शामिल करे। बाकी जिम्मेदारी वोटर की है। क्या मतदाता इन बातों पर वोट देता है? क्या वह इतना समझदार है?
केजरीवाल का बयान
अदालत में इस विषय पर विचार चल ही रहा है। इसी बीच अरविंद केजरीवाल ने 6 अगस्त को व्यापारियों की एक बैठक में किसी का नाम लिए बगैर कहा, ‘‘उन्होंने अपने दोस्तों के 11 करोड़ रुपये माफ कर दिए हैं। मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि क्या ऐसा करना सही है या बच्चों को मुफ्त शिक्षा देना सही है? हमारी सरकार ने गरीबों को मुफ्त शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराकर कुछ गलत किया है?’’ केजरीवाल शिक्षा और स्वास्थ्य का नाम ले रहे हैं, मुफ्त बिजली-पानी का नहीं। उनके इस वक्तव्य का ज्यादातर चैनलों पर सीधा प्रसारण हुआ। दिल्ली सरकार के कार्यक्रमों के सजीव-प्रसारण की परंपरा इन दिनों दिखाई पड़ रही है। क्या इसके पीछे कोई व्यावसायिक कारण है? ये वही चैनल हैं, जिन पर ‘गोदी-मीडिया’ का आरोप लगता है।
केजरीवाल के वक्तव्य में दो बातें ध्यान देने वाली थीं। एक ‘अपने दोस्तों के 11 करोड़ रुपये माफ कर दिए’ और दूसरा ‘हमारी सरकार ने गरीबों को मुफ्त शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराकर क्या कुछ गलत किया है?’ ये दोनों बातें भ्रामक हैं। वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन ने इनका फौरन जवाब दिया भी। शिक्षा और सार्वजनिक-स्वास्थ्य सर्वमान्य सामाजिक कल्याण का काम है और केंद्र तथा सभी राज्य सरकारें इसका पालन करती हैं। सार्वजनिक बैंकों पर कारोबारियों की जिस देनदारी को केजरीवाल माफ करने के बारे में कह रहे हैं, वह क्या है? किसका कर्ज माफ हो गया? केजरीवाल ‘वेव-आफ’ और ‘राइट-आफ’ का मतलब अच्छी तरह जरूर जानते होंगे।
किसानों के कर्जे माफ किए गए हैं, कारोबारियों के नहीं। केजरीवाल ने दावा किया कि दिल्ली शून्य कर्ज वाला राज्य बन गया है, जबकि भाजपा शासित गुजरात पर 3.5 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है। मोदी और केजरीवाल के बयानों के पीछे की राजनीति को भी देखना चाहिए। प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी बात गुजरात के चुनाव के संदर्भ में भी कही होगी, जहां आम आदमी पार्टी भी प्रवेश पाने की कोशिश कर रही है। केजरीवाल को बताना चाहिए कि गुजरात और पंजाब को शून्य-कर्ज बनाने का कौन सा फॉर्मूला उनके पास है। उन्हें इस बात से घबराने की जरूरत नहीं है कि अदालत का फैसला क्या होता है। अलबत्ता सार्वजनिक रूप से इस विषय पर विचार जरूर होना चाहिए कि ‘रेवड़ी-संस्कृति’ और ‘सामाजिक-कल्याण’ में अंतर क्या है। क्या ‘मुफ्तखोरी’ का नाम ही सामाजिक कल्याण है?
कल्याणकारी योजनाएं
जन कल्याण से जुड़े मुद्दों और योजनाओं ने भाजपा को भी चुनावी सफलताएं दिलाई हैं, पर इसमें एक बुनियादी फर्क है। भाजपा ने मध्यवर्ग को आकर्षित करने के लिए मुफ्त बिजली-पानी, साइकिल, लैपटॉप, मिक्सर ग्राइंडर, मंगलसूत्र, टीवी, गाय, बकरी देने का कार्यक्रम नहीं चलाया, बल्कि अपेक्षाकृत गरीब तबकों पर ध्यान केंद्रित किया है। उसका लक्ष्य सार्वजनिक सफाई, शौचालय, ग्रामीण सड़कें, पक्के मकान, पेय जल, घरेलू गैस, घरेलू बिजली, बैंकिंग, आवास, स्वास्थ्य बीमा और मातृत्व सुरक्षा रहा है। इनमें कुछ भी पूरी तरह मुफ्त नहीं है, जैसे घरेलू-गैस। संप्रग का मनरेगा, खाद्य-सुरक्षा कार्यक्रम और भूमि-सुधार कानून भी कल्याणकारी था।
एस. सुब्रह्मण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु शासन मुकदमे (2013) की पृष्ठभूमि में तमिलनाडु विधानसभा के 2006 और 2011 के दो चुनाव थे। 2006 के चुनाव में डीएमके ने रंगीन टीवी देने का वादा किया। पार्टी चुनाव जीती और सरकार ने टीवी बांटे। 2011 के चुनाव में एआईएमडीएमके ने ग्राइंडर-मिक्सर, बिजली का पंखा, लैपटॉप, बेटी की शादी के लिए 50,000 रुपये, लड़कियों को चार ग्राम सोने का मंगलसूत्र, मकान, मुफ्त मवेशी और 20 किलो चावल वगैरह देने के वादे किए। पार्टी चुनाव जीत गई।
आप पूछ सकते हैं कि बीते दो वर्ष में देश के करीब 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज देने का कार्यक्रम क्या मुफ्त की रेवड़ी नहीं है? बेशक वह मुफ्त है, पर उसे भी ‘मुफ्त की रेवड़ी’ कहना उचित नहीं होगा। मुसीबत में फंसे लोगों के लिए यह योजना बहुत मददगार साबित हुई है। यह राज्य की जिम्मेदारी है। बेशक इसकी भारी कीमत देश ने दी है। वैसे भी सरकारी कार्यक्रमों पर भारी सब्सिडी दी जाती है। मुफ्त अनाज के अलावा खाद्य-सुरक्षा कार्यक्रम के तहत गरीबों को सस्ता अनाज भी दिया जाता है। देश में इस बात पर आम सहमति है और शहरी गरीबों के लिए भी कल्याणकारी कार्यक्रम चलाए जाएं।
संसाधनों का पुनर्वितरण
दुनिया से गरीबी मिटाने के जो सुझाव अर्थशास्त्रियों ने दिए हैं, उनसे ये योजनाएं मेल खाती हैं। इसे सार्वजनिक-संसाधनों का पुनर्वितरण माना जाता है। यह भी सच है कि सब्सिडी बेशक रेवड़ी नहीं हैं, लेकिन चुनाव नतीजों पर उनका असर तो होता ही है। इसमें अनैतिकता तो नहीं है। हां, सरकार की प्रशासनिक सूझ-बूझ का पता इससे जरूर लगता है।
बीते 75 वर्षों में हमारी व्यवस्था ग्रामीण-क्षेत्रों और गरीबों के विकास पर विमर्श करती रही है। सामाजिक-कल्याण की आड़ में सार्वजनिक धन का दुरुपयोग भी हुआ है। बैंकों के राष्ट्रीयकरण और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में ऐसे उदाहरण मौजूद हैं। निजी उद्योगों का विकास नहीं होने के कारण अर्थव्यवस्था में अकुशलता का तत्व भी शामिल हो गया। कर्ज माफी का इस्तेमाल राजनीतिक-उपकरण की तरह हुआ, जिससे अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचा।
दिल्ली मॉडल
दिल्ली मॉडल से केजरीवाल को राजनीतिक सफलता मिली है। यह मॉडल दिल्ली को उपलब्ध वित्तीय सुरक्षा पर आधारित है। दिल्ली का कर संग्रह अच्छा है। यह देश के सर्वाधिक प्रति व्यक्ति आय वाले राज्यों में शामिल है। तमिलनाडु में जयललिता ने भी मुफ्त-सुविधाओं पर आधारित प्रशासन कायम किया था। उनका राज्य भी आर्थिक-दृष्टि से बेहतर था। केंद्रशासित राज्य होने के नाते दिल्ली को एक सुविधा है कि उसे पुलिस बल का खर्च नहीं उठाना पड़ता। बिजली और जलापूर्ति से जुड़ी ‘क्रॉस सब्सिडी’ भी इसमें सहायक है।
आआपा पंजाब में इस मॉडल को लागू करने का प्रयास करेगी, तो उसे दिक्कतें होंगी। इस रेवड़ी-चर्चा पर जिस संजीदगी से विचार किया जाना चाहिए, वैसा हुआ नहीं। इन दिनों श्रीलंका की दुर्दशा के संदर्भ में जरूर इसका जिक्र हुआ है। यह सवाल केवल गुजरात या दिल्ली तक सीमित नहीं है। एक अरसे से चुनाव के दौरान तोहफों और लोक-लुभावन वायदों की बौछार होती रही है।
चुनाव जीतने के क्षुद्र हथकंडों के बरअक्स विचारधारा, दर्शन और आर्थिक-सामाजिक अवधारणाएं पाखंड लगती हैं। वादों के व्यावहारिक-पक्ष पर कोई ध्यान नहीं देता। गरीबों और जरूरतमंदों की बात समझ में आती है, पर खाते-पीते घरों को मुफ्त का माल क्यों चाहिए? गरीबों को कम खर्च पर पानी बिजली मिले, गरीब महिलाओं को मुफ्त परिवहन मिले, तो उसके सामाजिक लाभ भी नजर आएंगे। मुफ्त में मिलेगा तो मना कोई नहीं करेगा, पर इससे मुफ्तखोरी की जो संस्कृति पैदा होगी, उसके दुष्परिणाम भी होंगे।
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