छत्रपति
डेरा इस्माइलखान, पाकिस्तान
बंटवारे के दौर की रातों को पाकिस्तान से आने वाला कोई भी हिन्दू नहीं भूल सकता। मैं उस समय 8 वर्ष का था। मुझे याद है जब ज्यादा माहौल खराब होने लगा तो हमारे चाचा संघ के स्वयंसेवकों के साथ छत पर पहरा दिया करते थे ताकि हिन्दू मोहल्ले में आततायी हमला न करने पाएं। दिनोंदिन आतंक बढ़ता जा रहा था।
लोग पलायन करने पर मजबूर थे। जब हम सभी लोग मोहल्ले से निकल रहे थे तो सैनिकों ने बड़ी मदद की। उनके डर के कारण स्थानीय मुसलमान हमला नहीं कर पाए। लेकिन जो लोग हमसे पहले निकले थे, उन्हें मुसलमानों ने मार-काट दिया।
सभी बचते हुए किसी तरह अलवर पहुंचे। और फिर दिल्ली। यहां संघ के स्वयंसेवक पाकिस्तान से आने वाले परिवारों की हर संभव मदद कर रहे थे। उनके कारण हमारी भी बहुत जल्दी रहने की व्यवस्था हो गई। चूंकि आर्थिक स्थिति खराब ही थी। तो चांदनी चौक में कंघी तक बेची।
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