राजकृष्ण
दिपालपुर, मिंटगुमरी, पाकिस्तान
एक ऐसा बवंडर उठा कि 1947 में हम जैसे अनगिनत हिंदुओं को अपना घर-बार छोड़ना पड़ा। उस वक्त मैं सातवीं में पढ़ता था। चारों ओर दंगे-फसाद होने लगे। गांव के पास ही नौखड़ा नाम की एक जगह थी। वहीं पर गांव के सारे हिंदू इकट्ठे हो गए। एक शाम हमारे गांव के पीछे के गांवों से हजारों हिंदुओं का काफिला आ रहा था। हम सब भी उसी में शामिल हो गए।
दो दिन बाद यह काफिला पैदल ही फाजिल्का (पंजाब) पहुंचा। कभी तेज बारिश, तो कभी तेज धूप होती। बारिश के कारण सारे गड्ढे और तालाब पानी से भर गए थे। उनमें लाशें तैर रही थीं। वे उन हिंदुओं की थीं, जिन्हें गाड़ी रोककर मुसलमानों ने मार दिया था। यह भी पता चला कि जो हिंदू किसी कारणवश किसी काफिले में शामिल नहीं हो पाए, उन्हें मार दिया गया।
हमारे परिवार में माता-पिता के अलावा मेरे दो भाई थे। पिताजी वहां पर खेती करते और मेरे बड़े भाई लाहौर में नौकरी करते थे। वहां का घर बहुत बड़ा था। सारी संपत्ति वहीं रह गई। भारत आने के बाद जगह-जगह भटकते रहे। न जाने कितनी रातें खाली पेट सोना पड़ा। एक कमीज और एक पैंट से ही काम चलाना पड़ता। सर्दी के लिए तो कपड़े होते ही नहीं थे।
अपनी जन्मभूमि देखने का आज भी मन करता है, परंतु मजबूरी है कि हम अपनी इच्छा पूरी नहीं कर सकते। कई दफा रात को नींद नहीं आती तो मन से वहीं पर अपनी गलियों में घूम आते हैं। लगता है मां की गोद में बैठे हैं और फिर नींद आ जाती है। भला कोई कैसे अपनी जन्मभूमि को भूल सकता है?
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