विजय कुमार मल्होत्रा
ग्वालमंडी, लाहौर, पाकिस्तान
मुझे अभी भी याद है 15 अगस्त,1947 का वह दिन, जब लाहौर सहित पूरे पश्चिम पंजाब और सीमांत क्षेत्रों में रहने वाले हिन्दू-सिखों के घर धू-धू कर जल रहे थे। लोग हजारों के काफिले में सुरक्षित स्थान की तलाश में भारत की ओर भाग रहे थे। स्थान-स्थान पर अपहरण, लूटपाट और हत्याएं की जा रही थीं। रेलगाड़ियां चल तो रही थीं लेकिन भीड़ इतनी ज्यादा थी कि लोग डिब्बों की छतों पर बच्चों समेत बैठने को मजबूर थे।
छतों पर बैठे कितने ही लोग पटरियों के पास छिपे पाकिस्तानी मुसलमानों की गोलियों का शिकार हो गए। मैं उस समय लाहौर में था और मैंने लोमहर्षक घटनाएं स्वयं देखी थीं, जो 75 वर्ष बीत जाने के बाद आज भी दिलो-दिमाग को दहला देती हैं। उन्हीं दिनों पंजाब के संघ स्वयंसेवकों के लिए फगवाड़ा में ओटीसी लगी हुई थी।
यह शिविर 20 अगस्त को समाप्त होना था, लेकिन पश्चिमी पंजाब व सीमांत क्षेत्रों में हिन्दुओं के साथ भीषण मार-काट, हत्या व बड़ी संख्या में हिन्दू-सिखों के पलायन की खबरें आ रही थीं। इस समय फगवाड़ा में 1900 स्वयंसेवक और अधिकारी मौजूद थे। संघ अधिकारियों ने निर्णय लिया कि शिविर को 20 अगस्त की बजाए 10 अगस्त को ही समाप्त कर दिया जाए।
हम लोग 10 अगस्त को ही पहली गाड़ी से लाहौर के लिए चल पड़े। अटारी स्टेशन पार करते ही वातावरण बदला-सा मिला। लाहौर पहुंचते ही स्टेशन पर संघ द्वारा संचालित पंजाब रिलीफ कमेटी का शिविर लगा हुआ था। वहां सेवा कर रहे स्वयंसेवकों ने बताया कि दूसरे प्लेटफार्म पर एक अन्य गाड़ी खड़ी है, जिसे रावलपिंडी से आते समय लूटा गया, और अनेक लोगों की हत्या कर दी गई।
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