रामचंद्र आर्य
चोटी, डेरा गाजीखान, पाकिस्तान
डेरा गाजीखान जिले में कस्बा चोटी एक बाजार के रूप में मशहूर था। 1947 में चोटी में 10 प्रतिशत हिंदू और 90 प्रतिशत मुसलमान थे। जब मुसलमानों को पता चला कि भारत का विभाजन हो गया है, तब उन लोगों ने चोटी में मारकाट शुरू कर दी। मेरी दो दुकानों में आग लगा दी गई। किसी भी हिंदू की दुकान नहीं बची।
मारकाट के बीच ही गोरखा सैनिक आ गए। बाद में एक षड्यंत्र के तहत गोरखा सैनिकों को वहां से हटाकर बलूच सेना को लाया गया। उन्होंने हिंदुओं को बहुत परेशान किया। इसलिए सबने चोटी छोड़ने का निर्णय लिया। बलूच सैनिकों ने ही हमें डेरा गाजीखान पहुंचाया। शायद वे लोग यही चाहते थे कि हिंदू चोटी से चले जाएं।
उस समय मैं 22 वर्ष का था। जनवरी 1947 में विवाह हुआ था। डेरा गाजीखान में दो महीने रहने के बाद एक दिन गोरखा सैनिक आए और कहने लगे कि फटाफट चलो। उन्होंने यह नहीं बताया कि कहां चलना है। चूंकि गोरखा सैनिकों पर ही हिंदुओं को भरोसा था, इसलिए सभी उनके कहने पर चल पड़े।
गोरखा सैनिकों ने हम लोगों को मुजफ्फरगढ़ पहुंचा दिया। वहां शहर के बाहर एक बहुत बड़े मैदान में शरणार्थियों के लिए शिविर बना था। यहां हम 15 दिन रहे। वहां पर गाड़ी आती थी और भरकर चली जाती थी। एक दिन हमारी भी बारी आई और हम गाड़ी पकड़कर संगरूर पहुंच गए। मेरे ससुराल वाले हिसार के शिविर में थे। हम हिसार आ गए।
वहां पत्नी बहुत बीमार हो गई। काफी दिनों तक अस्पताल में भर्ती रही। जब वह ठीक हुई तो हम पलवल आ गए। पलवल से फरीदाबाद और फिर गुड़गांव। कुछ समय बाद हमें मुआवजे में जमीन मिली तो खेती करने लगे।
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