संत साहित्य में जाम्भोजी की सबद-वाणी का विशेष स्थान है। विश्नोई संप्रदाय के प्रवर्तक संत जाम्भोजी महाराज ( 1451-1536 ई) की सबद-वाणी के वैचारिक चिंतन में समाज सुधार और मानव कल्याण के साथ-साथ प्रकृति और गो संरक्षण से जुड़ा दूरगामी दृष्टिकोण भी निहित है। उनकी सबद-वाणी साधक को आत्मानुभूति और आत्मसाक्षात्कार करवाती है। संत जाम्भोजी ने सन् 1485 में विश्नोई सम्प्रदाय की स्थापना की। उन्होंने अपने अनुयायियों को मानव जीवन के आचार-विचार से सम्बद्ध 29 नियम बताए, जोकि व्यक्ति के दैनिक जीवन, रहन-सहन, आहार-पान, भजन-संध्या की सात्विकता, वैचारिक पवित्रता, प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण का प्रतिपादन करते हैं। चूंकि उस समय मुग़लों का शासन था। गो वंश पर अत्याचार हो रहे थे। ऐसे समय में गो वंश संवर्द्धन और संरक्षण के प्रति जनता को सचेत करना बहुत जरूरी था। इसलिए संत जाम्भोजी ने अपनी सबद-वाणी में गो चिंतन को पर्याप्त स्थान दिया है। उनके द्वारा प्रवर्तित 29 नियमों में नियम संख्या 24 इसी संबंध में है, जोकि इस प्रकार है-
बैल बधिया न करावै।
अर्थात् बैलों का बंध्याकरण नहीं करवाएं।
वस्तुतः संत जाम्भोजी का मानव जाति को संदेश है कि बैलों का बंध्याकरण पाप है। इस नियम द्वारा उन्होंने बैलों की वंश वृद्धि, स्वास्थ्य और संरक्षण पर ज़ोर दिया है। उन्होंने स्वयं 27 वर्षों तक गायें चराईं और इस दौरान उन्होंने विश्व मानवता को गो सेवा और पर्यावरण संरक्षण के महत्त्व को उपदेशित किया। उन्होंने अपनी सबद-वाणी में लिखा है-
जा दिन तेरे होम न जाप न तप न क्रियाए जाण के भागी कपिला गाई।।
संत जाम्भोजी जीवात्मा को सावधान करते हैं कि जब से तू ने यज्ञ, जप, तपादि अध्यात्म कर्म नहीं किए। यह जानकार कपिला, भूरी गाय भी तुम्हें छोड़ कर भाग गई! अर्थात् जिस घर में यज्ञ, श्रीहरि संकीर्तन आदि नहीं होते हैं, वहां पर गाय नहीं रहना चाहती !
संत जाम्भोजी ने गायों के प्रति किसी भी तरह की यातना से सावधान किया है। वे सबद-वाणी द्वारा जीवात्मा से प्रश्न करते हैं .
कै तैं सुवा गाय का बच्छ बिछोड्या।
कै तैं चरती पिवती गऊ बिडारी।।
अर्थात् क्या तू ने प्रसूता गाय से दूध पीते बछड़े को बिछोड़ा है, क्या तू ने चारा चरती और पानी पीती गाय को डराया, है, संत जाम्भोजी ने अपनी सबद-वाणी में ऐसे कुकृत्यों को गो दोष और पाप कहा है। उनका संदेश है कि ऐसे गो अत्याचारी की कभी भी सद्गति नहीं होती।
आज भारत में गोवंश, गाय और बैल की संख्या करोड़ों में है। 20वीं पशुगणना ; 2019 के अनुसार देश में 19 करोड़ 24 लाख से भी अधिक गोवंश हैं, जोकि 19वीं पशुगणना (2012) 19 करोड़ 9 लाख की तुलना में 0.83 प्रतिशत ज़्यादा है।
गो वंश में संख्यात्मक वृद्धि अच्छी बात है, लेकिन गायों की उपेक्षा और इनकी गिरती दशा चिंतनीय है। मानव की स्वार्थ वृत्ति ने गायों को भी आवारा पशु की तरह निराश्रय मरने के लिए छोड़ दिया। आज घर और गोशाला सभी स्थानों पर गायों की बेहतर देखभाल, संरक्षण और उनके प्रति गहरी संवेदनशीलता की ज़रूरत है। गोहत्या पर सख़्त प्रतिबंध, पशु क्रूरता से जुड़ें विभिन्न क़ानूनों की दृढ़ पालना और गाय को माता के राष्ट्रीय दर्जें के लिए गो भक्तों की मांग है।
अभी हाल ही में राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र सहित देश के अधिकांश राज्यों में लम्पी वायरस से गायों में बढ़ते संक्रमण के कारण हज़ारों गायों की असमय मौत हो गई। गो वंश को बचाने के लिए इनको समय पर टीकाकरण और देशी इलाज दिया जाना अत्यावश्यक है। यह ज़िम्मेदारी सरकारों के साथ-साथ देश के सभी गो पालकों और हम सब की साझा है। वर्तमान के ऐसे वातावरण में संत जाम्भोजी महाराज का गो चिन्तन, संस्कृति और इनके धार्मिक महत्त्व को समझने के लिए ऐसे साहित्य को स्कूली पाठ्यक्रमों में समय पर यथोचित स्थान देने की बेहद ज़रूरत है। इससे आज की युवा और अनेक भावी पीढ़ियां गो सेवा और संस्कृति के मूल्यों को पढ़कर और समझकर उन्हें आत्मसात् करेगी, जिससे गो संरक्षण के अभियानों को ज़्यादा गति और मज़बूती मिलेगी।
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