बद्रीनाथ शर्मा
लच्छीपुर, गुजरांवाला, पाकिस्तान
मैं केवल 15 वर्ष का था, जब हमारे परिवार को अपनी जन्मभूमि छोड़कर रातोरात भागना पड़ा। जुलाई, 1947 में माहौल बिगड़ गया था। हम पर कई बार हमले हुए। अगस्त, 1947 के प्रारंभ में तो स्थिति और भी खराब हो गई। इसके बाद गांव के सभी हिंदुओं ने पलायन करना ही ठीक समझा। 8 अगस्त, 1947 को हम लोगों ने गांव छोड़ दिया। पैदल ही निकल पड़े।
रास्ते में लाशें ही लाशें नजर आ रही थीं। हम लोग शवों के बीच से ही सफर कर रहे थे। सोच रहे थे कि जल्दी से गुजरांवाला पहुंच जाएं। वहां से लाहौर जाने वाली रेलगाड़ी में चढ़े। रास्ते में हमले होते थे तो पूरी गाड़ी में चीख-पुकार मच जाती थी।
दूसरे दिन लाहौर पहुंचे। पूरे दिन और पूरी रात लाहौर स्टेशन पर हमारी गाड़ी खड़ी रही। बार-बार मुसलमान आते और गाड़ी पर हमला करते। रात को तो लगा कि अब शायद जिंदा नहीं बचेंगे, लेकिन कहते हैं कि मारने वाले से ज्यादा ताकतवर बचाने वाला होता है।
भगवान की ऐसी कृपा हुई कि सुबह चार बजे तेज वर्षा होने लगी। भीड़ तितर-बितर हो गई और मौका देखकर चालक ने गाड़ी चला दी। सुबह छह बजे हम लोग अटारी पहुंच गए। वहां से लोग अलग-अलग स्थानों के लिए निकल गए। कोई कहीं चला गया, तो कोई कहीं। हमारा परिवार जालंधर पहुंच गया। इसके बाद दिल्ली आ गया।
पास में पहने हुए कपड़ों के अलावा और कुछ नहीं। राहत शिविर में खाना मिल जाता था। हमारे परिवार में सात लोग थे। बाद में हम लोगों ने कुछ काम करना शुरू किया। बरसों बाद ठीक से खाना और कपड़े मिले थे। जब उन दिनों को याद करते हैं, तो आंखें डबडबा जाती हैं और गला रुंध जाता है।
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