भारत का विभाजन… एक ऐसा घाव जो आज तक नहीं भरा है…उसे कभी भरने का प्रयास भी नहीं किया गया। उलटा इसे छिपाया और दबाया जाता रहा। लाखों लोगों के विस्थापन, हत्याओं और बलात्कारों की कहानियां गायब कर दी गई। विश्व में मानवीय त्रासदी की कई घटनाएं हुई हैं, लेकिन उन देशों ने अपने इतिहास को हमेशा याद रखा, उन टीस देती यादों को संग्रहालयों में सहेज कर रखा ताकि आने वाली पीढ़ियां उनसे सबक लें।
भारत का विभाजन… एक ऐसा घाव जो आज तक नहीं भरा है…उसे कभी भरने का प्रयास भी नहीं किया गया। उलटा इसे छिपाया और दबाया जाता रहा। लाखों लोगों के विस्थापन, हत्याओं और बलात्कारों की कहानियां गायब कर दी गई।
विश्व में मानवीय त्रासदी की कई घटनाएं हुई हैं, लेकिन उन देशों ने अपने इतिहास को हमेशा याद रखा, उन टीस देती यादों को संग्रहालयों में सहेज कर रखा ताकि आने वाली पीढ़ियां उनसे सबक लें।
दूसरी ओर, हमारा देश है जहां इतिहास के इस सबसे भयावह घटनाक्रम को ‘गंगा-जमुनी तहजीब’ और ‘भाईचारे’ की सुहानी बातों में दबाने और भुलाने के प्रयास किए गए। कभी इस बात पर चर्चा नहीं हुई कि सहस्रों वर्ष पुरानी भारतीय सभ्यता की धरती के टुकड़े क्यों हुए? उस धरती के जहां पर कभी हमारे ऋषियों ने वेदों की ऋचाएं लिखी थीं, वहां पर सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति के चिन्ह तक क्यों मिटा दिए गए?
केंद्र की भाजपानीत सरकार ने बंटवारे के दिन अर्थात् 14 अगस्त को ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ के रूप में मनाना आरंभ किया है। यह एक अवसर है कि हम मानवता और सभ्यता पर हुए इस अत्याचार को याद करें। इसके दोषियों की पहचान करें, आने वाली पीढ़ियों को उनके बारे में बताएं ताकि भारतीय इतिहास का वह भयावह कालखंड हमें दोबारा कभी देखना न पड़े।
13 मई, 1940 को ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल के भाषण की एक महत्वपूर्ण उक्ति थी-‘ब्लड, टॉइल, टियर्स एंड स्वेट’। अर्थात् रक्त, कड़ा परिश्रम, अश्रु और स्वेद।
चर्चिल की उस बात का संदर्भ भले ही भिन्न रहा हो, किंतु सात वर्ष बाद यह सब लागू हुआ…भारत की धरती पर, पाकिस्तान के रूप में।
-भारत के विभाजन की पृष्ठभूमि किसने तैयार की?
-भारत के टुकड़े करके पाकिस्तान पैदा करने के लिए कौन उत्तरदायी था?
-मजहब के नाम पर एक ऐसा देश क्यों बनाया गया, जो जिहाद और आतंकवाद से ऊपर कभी उठ ही नहीं पाया, जिसका अस्तित्व ही भारत और भारतवासियों से घृणा पर आधारित है?
वैसे तो पाकिस्तान की बात आते ही सबसे पहले दो नाम ध्यान में आते हैं- मोहम्मद अली जिन्ना और आल इंडिया मुस्लिम लीग। लेकिन दोषियों की यह सूची इससे बहुत लंबी है। इनके बाद स्थान आता है विंस्टन चर्चिल का। यह व्यक्ति 1940 से 1945 तक ब्रिटेन का प्रधानमंत्री रहा। भारत के विभाजन की गहरी योजना बनाने वालों में विंस्टन चर्चिल सबसे महत्वपूर्ण था, इसमें कोई संदेह नहीं। शेष सारे चेहरे उसकी बिछाई शतरंज के मोहरे मात्र थे।
वर्ष 1943. भारत की स्वतंत्रता और विभाजन से मात्र चार वर्ष पहले… जून से सितंबर के बीच बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा था। इस अकाल में 30 लाख से अधिक लोगों के मारे जाने का अनुमान व्यक्त किया जाता है। ये लाखों लोग अन्न की कमी के कारण नहीं… बल्कि चर्चिल की नीतियों के कारण मारे गए थे…और इस पर खुद चर्चिल का कहना था-
‘अकाल हो या न हो, भारतीय लोग खरगोशों की तरह बच्चे पैदा करते हैं। यदि इतनी ही भुखमरी है तो महात्मा गांधी अभी तक जीवित कैसे हैं? अकाल में भारतीयों के लिए राहत भेजने की कोई आवश्यकता नहीं है’। यह वक्तव्य उस समय के ब्रिटिश शासकों की घृणित नस्लभेदी मानसिकता की एक झलक मात्र है। मधुश्री मुखर्जी ने अपनी पुस्तक-‘चर्चिल्स सीक्रेट वॉर: द ब्रिटिश एम्पायर एंड द रैवेजिंग आफ इंडिया ड्यूरिंग सेकिंड वर्ल्ड वॉर’ में उक्त वक्तव्य को उद्घृत किया गया है।
एक बड़ी चाल की शुरुआत
द्वितीय विश्व युद्ध में, 5 मई, 1945 को जर्मनी ने आत्मसमर्पण कर दिया था। इसके तत्काल बाद विंस्टन चर्चिल ने ‘भारत और हिंद महासागर में ब्रिटिश साम्राज्य के रणनीतिक हितों की रक्षा के लिए दीर्घकालिक नीति’ के मूल्यांकन का आदेश दिया। दो सप्ताह बाद चर्चिल को वह गुप्त रिपोर्ट पेश की गई, जिसमें अन्य प्रस्तावों के अतिरिक्त भारत के उत्तर पश्चिमी क्षेत्रों में ब्रिटिश उपस्थिति की रणनीतिक आवश्यकता का उल्लेख किया गया था ताकि ब्रिटिश वायु सेना सोवियत संघ के सैन्य प्रतिष्ठानों को निशाना बना सके। मध्य पूर्व के देशों पर भी दबदबा बनाए रखने के लिए ब्रिटेन को इसी क्षेत्र में अपने सैनिक अड्डे की आवश्यकता अनुभव हो रही थी। यह संयोग मात्र नहीं कि ठीक उसी भूभाग को तोड़कर अलग इस्लामी देश पाकिस्तान बनाया गया।
मुस्लिम लीग और उसके नेता जिन्ना को अंग्रेजों के इस प्रस्ताव पर कोई आपत्ति नहीं थी, उन्हें इस साम्राज्यवादी योजना में अपना हित दिखाई दे रहा था। ब्रिटेन को भी पाकिस्तान चाहिए था, जो भारत का चिर शत्रु बना रहे और भारत सदियों तक उसके साथ ही उलझा रहे। यह तथ्य भारतीय धर्म और संस्कृति के विरुद्ध एक अंतरराष्ट्रीय गठजोड़ की ओर भी संकेत करता है।
भारत विखंडन की चर्चिल की उसी योजना के कार्यान्वयन के लिए लॉर्ड वेवेल को वायसरॉय बनाकर भेजा गया। फिर सब कुछ वैसे-वैसे हुआ जैसी-जैसी योजना चर्चिल ने तैयार की थी। मुस्लिम लीग पाकिस्तान के लिए अड़ी रही और कांग्रेस ने दबाव के आगे घुटने टेक दिए। यदि कहीं से थोड़ा-बहुत प्रतिरोध हुआ तो वे सुभाषचंद्र बोस थे। वेवेल ने स्वयं स्वीकार किया है कि ‘नेताजी सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिन्द फौज के कारण ब्रिटेन अब भारत में अपने भरोसेमंद लोगों पर भी विश्वास नहीं कर पा रहा है।’
भारत की स्वतंत्रता से ठीक पहले ब्रिटेन में हुए चुनाव में विंस्टन चर्चिल की हार हुई। लेकिन तब तक सहस्रों वर्ष प्राचीन भारतीय सभ्यता की पवित्र भूमि पर एक कृत्रिम रेखा खींची जा चुकी थी। जून 1947 को लंदन में भारत का एक हिस्सा अलग करने की घोषणा की गई, जिसे इस्लामिक रिपब्लिक आॅफ पाकिस्तान कहा गया। वह 1956 तक वह सिर्फ डोमिनियन स्टेट था और अमेरिका ने वहां अपना सैनिक अड्डा बनाया। आज हम पाकिस्तान की जो भूमिका देखते हैं वह वही है जो ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने तभी तय कर दी थी।
ब्रिटेन की रणनीति
पाकिस्तान निर्माण अर्थात् भारत विभाजन ब्रिटेन की सबसे महत्वपूर्ण रणनीति का अंग था। औपनिवेशिक राज्य के हाथ से निकलने के बाद ब्रिटेन को लूट के नए तरीके चाहिए थे। ब्रिटेन के सैन्य योजनाकारों ने यह स्पष्ट कर दिया था कि उन्हें उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत और बलूचिस्तान में एक सैनिक अड्डे की आवश्यकता है। इससे उन्हें ईरान पर नियंत्रण बनाए रखने में सहायता मिलनी थी, जहां के तेल भंडारों पर ब्रिटिश पेट्रोलियम की पूर्ववर्ती, एंग्लो-परशियन आयल कंपनी का स्वामित्व था।
इराक में भी ब्रिटिश कठपुतली राजशाही थी, जिसने इराकी पेट्रोलियम कंपनी को ब्रिटिश नियंत्रण में दे दिया था। यही स्थिति कुवैत, बहरीन और कतर और ट्रुशियल स्टेट्स की थी। ट्रुशियल स्टेट्स को ही आज संयुक्त अरब अमीरात या यूएई कहा जाता है। इन देशों में तेल के भंडार मिलने की संभावना थी इसलिए उन पर ब्रिटेन की गिद्धदृष्टि थी। यह भी एक रहस्य है कि इस्लाम के नाम पर बन रहे पाकिस्तान के नेताओं को इस बात पर कोई आपत्ति नहीं थी कि उनकी धरती का प्रयोग मध्य-पूर्व के अन्य इस्लामी देशों के विरुद्ध किया जाए।
ब्रिटेन के लिए समस्या यह थी कि उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत और बलूचिस्तान भारत में रहना चाहते थे। उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत ने वर्ष 1937 और 1946, दोनों चुनावों में कांग्रेस की सरकारें चुनी थीं। दिसंबर 1946 में उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत के प्रतिनिधिमंडल ने भारत की संविधान सभा में प्रवेश किया था, जबकि मुस्लिम लीग ने इसका बहिष्कार किया था।
उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत के भारत प्रेम का कांटा निकालने के लिए अंग्रेजों ने नई चाल चली। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू से सहायता मांगी और उनके माध्यम से वे उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत में जनमत संग्रह के लिए सहमति बनवा ली। विभाजन का विरोध करने वाले हमारे नेता न केवल उसके लिए तैयार हो गए, बल्कि एक तरह से उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत क्षेत्र को पाकिस्तान के हवाले करने पर भी सहमत थे। सीमांत गांघी गफ्फार खान के खुदाई खिदमतगारों ने इसका कड़ा विरोध किया था। लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई। पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच खींची गई डूरंड रेखा के दोनों तरफ के पठान आज भी विभाजन की विभीषिका झेल रहे हैं।
एक ओर औपनिवेशिक शक्तियों के दांवपेंच, उनकी कठपुतली बने नेता और दूसरी ओर वह मानवीय त्रासदी जिसका दूसरा कोई उदाहरण हाल के इतिहास में नहीं मिलता।
विशेष रूप से वर्ष 1946 से 1947 के अंत तक भारत का इतिहास अभूतपूर्व विस्थापन और क्रूरतम नरसंहार का गवाह है। यह मुस्लिम लीग द्वारा उभारे गए जिहादी उन्माद और उसके आगे हमारे राजनीतिक नेतृत्व के समर्पण का इतिहास है।
विभाजन का निर्णय इतना अचानक और अप्रत्याशित था कि किसी को भी सोचने-समझने का अवसर नहीं मिला। अंतिम समय तक कांग्रेस के नेता, आश्वासन देते रहे कि मुस्लिम लीग की मांग किसी कीमत पर स्वीकार नहीं की जाएगी। गांधी जी भी जनता को आश्वासन दे रहे थे कि ‘देश का विभाजन मेरी लाश पर होगा’। परंतु एकाएक 3 जून, 1947 को विभाजन की घोषणा कर दी गई। उस पर हमारे नेताओं ने अपनी स्वीकृति की मुहर भी लगा दी। मात्र 72 दिन बाद 15 अगस्त को इस निर्णय के क्रियान्वयन के लिए भी वे सहमत हो गए। देश की बहुसंख्यक आबादी की सहमति-असहमति की कोई चिंता नहीं की गई।
विभाजन का निर्णय इतना अचानक हुआ कि इतने कम समय में विभाजन के विरोध में कोई जनांदोलन छेड़ना भी संभव नहीं था। लोगों को तो अपनी जान बचाने की पड़ी थी। कोई भी विभाजन के विरुद्ध खड़े होने की स्थिति में नहीं था। मानवता के इतिहास के इस अभूतपूर्व सर्वनाश और विस्थापन का शिकार बन रहे लोगों से प्रतिरोध की अपेक्षा भी व्यर्थ ही थी।
…और निकल पड़े काफिले
15 अगस्त, 1947 के दिन जब दिल्ली समेत पूरा देश स्वतंत्रता का उत्सव मना रहा था, ठीक उसी समय हजारों काफिले लाहौर, मुल्तान, लायलपुर और स्यालकोट जैसे शहरों से भारत की ओर बढ़ रहे थे। उनके लिए इस उत्सव का कोई अर्थ नहीं था। उनके लिए तो पग-पग पर मौत का साया मंडरा रहा था। रास्ते में क्या हो जाए, कोई कुछ नहीं जानता था। मोहल्ले के मोहल्ले धू-धू कर जल रहे थे। जिधर देखो-शव ही शव। अनगिनत महिलाओं का अपहरण हुआ, सामूहिक बलात्कार हुए, उन्हें लूट के माल की तरह नीलाम किया गया। सधवाएं विधवा हो रही थीं, बच्चे अनाथ हो रहे थे।
रेलगाड़ियों से चलना भी सुरक्षित नहीं था। उन्हें कहीं भी रास्ते में रोककर हथियारबंद जिहादी जत्थे नरसंहार शुरू कर देते थे। यात्रियों की जगह वे लाशों से भरी रेलगाड़ियां इधर भेज रहे थे।
अधिकांश स्थानों पर हमलावर कोई बाहरी नहीं, बल्कि अपने ही परिचित नगरवासी और मित्र थे। ये वे लोग थे जो मानवता और दोस्ती की कसमें खाते थे। लेकिन अवसर पाते ही उन्होंने पीठ में छुरा घोंपा।
हिंदू और सिख बड़ी संख्या में इस विभीषिका का शिकार बने। लाखों लोगों को अपने पुरखों और देवताओं की पुण्यभूमि को छोड़ उस बाकी बचे भूभाग की ओर चल देना पड़ा जिसे ‘स्वतंत्र भारत’ कहा जा रहा था। लोगों के पास भागने के अतिरिक्त कोई चारा भी नहीं था। लेकिन जहां तक संभव हुआ, लोगों ने अपने स्तर पर प्रतिरोध किया। हमारे राजनेताओं ने भले ही अत्याचारों के आगे हथियार डाल दिए थे, पर जनता ने उनका अनुकरण नहीं किया।
अकाली नेता मास्टर तारा सिंह ने लाहौर में असेंबली भवन पर लहराए लीगी झंडे को फाड़ दिया और म्यान से तलवार निकालकर प्रण किया कि वे पाकिस्तान कभी नहीं बनने देंगे। इससे पूरा सिख समुदाय, विशेष रूप से जिहादियों का कोपभाजन बना। तब लीगी नेताओं ने हिंदुओं और सिखों में दरार डालने के लिए कई चालें चलीं लेकिन वे सफल नहीं हो सके। उन दिनों प्राय: सभी गुरुद्वारे समाज की रक्षा के दुर्ग बन गए थे, जहां पर पूरा एकजुट हिंदू समाज हत्यारी भीड़ से अपनी और अपने परिवारों की रक्षा करता था।
भारत के बंटवारे पर मुहर लगाकर कांग्रेस के बड़े नेता दिल्ली की राजनीति में व्यस्त हो गए। उन्होंने हजारों-लाखों लोगों को उस भूमि पर लाचार छोड़ दिया, जिसे पाकिस्तान का नाम दे दिया गया था। वहां उनकी सहायता करने वाला कोई नहीं था।
मदद को आगे आए संघ स्वयंसेवक
ऐसे कठिन समय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने युवकों को एकजुट करके बड़ी संख्या में लोगों को लीगी गुंडों से बचाया। और हजारों लोगों को मुस्लिम बहुल क्षेत्रों से निकालकर सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया। यहां तक कि कांग्रेस के पदाधिकारी भी अपनी जान बचाने के लिए संघ के स्वयंसेवकों पर ही आश्रित थे।
पाकिस्तान से बचकर आए लोग मानते हैं कि यदि संघ न होता तो मारे गए लोगों की संख्या बहुत अधिक होती। संभवत: बहुत कम लोग ही बचकर भारत तक आने में सफल हुए होते।
पंजाब विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे अ. ठ. बाली की पुस्तक ‘नाओ इट कैन बी टोल्ड’ के अनुसार, ‘कांग्रेस के बड़े नेताओं ने लोगों को अहिंसा के मार्ग पर चलने का परामर्श दिया था। उनसे भगवान पर भरोसा करने को कहा गया। किंतु संकट में फंसे लोग यह समझ चुके थे कि ऐसी एक आदर्श स्थितियों की बात है जो किसी सुरक्षित दुर्ग में ही लागू होती है। ऐसी कठिन घड़ी में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने लोगों की रक्षा का बीड़ा उठाया। उन्होंने हर नगर, हर मोहल्ले में हिंदू-सिख महिलाओं और बच्चों को निकाला। उनके खाने-पीने, चिकित्सा और कपड़ों का प्रबंध किया। साथ ही वे हथियारबंद होकर उनकी सुरक्षा भी करते थे।’
प्रोफेसर बाली लिखते हैं, ‘पश्चिमी पाकिस्तान से आए शरणार्थी आज भारत में चाहे जहां भी रह रहे हों, एक स्वर में यही कहेंगे कि जब सबने उनका साथ छोड़ दिया था, ऐसे समय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ही उनका साथ दिया।’
देश के प्रथम गृह मंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल ने तत्कालीन सरसंघचालक पूज्य श्रीगुरुजी द्वारा 11 अगस्त, 1948 को भेजे पत्र के उत्तर में लिखा था, ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने संकटकाल में हिंदू समाज की सेवा की, इसमें कोई संदेह नहीं है। ऐसे क्षेत्रों में जहां उनकी सहायता की सबसे अधिक आवश्यकता थी। संघ के नवयुवकों ने स्त्रियों तथा बच्चों की रक्षा की।’
गृह मंत्री बल्लभभाई पटेल का संघ कार्यों के प्रति यह सद्भाव अकारण नहीं था। वे जानते थे कि विभाजन के दौरान भारतीय सेना की टुकड़ियों और संघ के स्वयंसेवकों ने कितने तालमेल के साथ लोगों को निकाला था। विभाजन की विभीषिका के बीच राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका का संकलन ‘ज्योति जला निज प्राण की’ नामक पुस्तक में किया गया है। इसके लेखक माणिकचंद वाजपेयी और श्रीधर पराड़कर हैं।
हिंदुस्तान टाइम्स में 27 मार्च, 1947 को छपी एक रिपोर्ट विशेष रूप से उल्लेखनीय है। अखबार के संवाददाता ने रावलपिंडी के कुटी नाम के कस्बे का दौरा करके वहां हुई बर्बरता का वर्णन किया था। ‘कट्टरपंथियों ने अफवाह उड़ा दी कि जामा मस्जिद पर हमला हुआ है। इसके बाद सुबह-सुबह 5000 से अधिक हथियारबंद लोगों ने कस्बे में रहने वाले हिंदुओं की दुकानों और मकानों में आग लगा दी। एक भी हिंदू पुरुष जिंदा नहीं बचा। महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार किया गया और अधिकांश को मार दिया गया। पूरा क्षेत्र मलबे का पहाड़ बन चुका है। ऐसा लगता है, मानो यहां विमान से बमबारी की गई हो।’
15 अप्रैल, 1947 को स्टेट्समैन अखबार ने रावलपिंडी के एक गांव का समाचार छापा था, ‘थोहा खालसा नाम के इस गांव पर 3000 से अधिक कट्टरपंथियों की भीड़ ने हमला कर दिया था। गांव के पुरुषों ने कई दिन तक संघर्ष किया, लेकिन जब वे हारने लगे तो महिलाओं ने सम्मान की रक्षा के लिए आत्मबलिदान का निर्णय लिया। 90 बहू-बेटियों ने गांव के इकलौते कुएं में छलांग लगाई। कुआं इतना भर गया कि अंतिम तीन महिलाएं डूब नहीं पाई।’
यह इकलौती घटना नहीं थी। विभाजन के उस काल में ऐसे जौहर गांव-गांव में हुए। अधिकांश लोगों ने इस्लाम कबूलने के बजाय अपने धर्म और सम्मान की रक्षा के लिए मृत्यु को चुना।
मीरपुर में रक्तपात
विभाजन की सबसे दर्दनाक विभीषिका जम्मू से लगे मीरपुर के लोगों ने झेली। पाकिस्तानी सेना और कबाइलियों के विरुद्ध 25 हजार से अधिक मीरपुरवासियों ने पूरे 20 दिन तक मोर्चा लिया। इनमें बड़ी संख्या में संघ के स्वयंसेवक भी थे। उन्हें आशा थी कि भारत सरकार उनकी सहायता को सेना भेजेगी, लेकिन पास में ही भारतीय चौकी होने के बावजूद सेना नहीं पहुंची। हजारों की संख्या में लोगों ने अपना बलिदान दिया। जिहादी हमलावरों ने सैकड़ों बच्चों को भालों और तलवारों की नोक पर उछालकर मारा। महिलाओं और बच्चियों के साथ क्या किया गया होगा, इसकी हम केवल कल्पना ही कर सकते हैं। कहते हैं कि मात्र हजार पांच सौ लोग ही किसी तरह बचते-बचाते जम्मू पहुंच पाए थे। मीरपुर के उस हत्याकांड की स्मृति में दिल्ली के लाजपतनगर में मीरपुर भवन बना हुआ है। मीरपुर से आए विस्थापित यहां हर वर्ष कार्यक्रम करते हैं और अपनी नई पीढ़ियों को बताते हैं कि देश के बंटवारे ने कैसे उनका सबकुछ छीन लिया था।
मीरपुर ही नहीं, पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर, गिलगित और बाल्टिस्तान के क्षेत्र आज केवल मानचित्र में भारत का हिस्सा हैं। विभाजन के तत्काल बाद इन सभी क्षेत्रों में रहने वाले हिंदू, सिख और बौद्ध जनसंख्या को पूरी तरह से साफ कर दिया गया। यहां हुए नरसंहारों का तो कोई प्रत्यक्षदर्शी भी नहीं बचा।
पंजाब और कश्मीर ही नहीं, राजस्थान और दिल्ली से लेकर बंगाल तक, बड़ी संख्या में लोग मजहबी दानवता का शिकार बने। कलकत्ता में डायरेक्ट एक्शन डे हो या नोआखली में हिंदुओं का नरसंहार, हर घटना में एक समानता थी, लोगों को असहाय छोड़ दिया गया। देश का राजनीतिक नेतृत्व एक तरह से पंगु स्थिति में था। लेकिन जब इन घटनाओं की प्रतिक्रिया बिहार में हुई तो उससे पूरी सख़्ती से निपटा गया। इसके पीछे की जो मानसिकता है, उसका विश्लेषण बहुत आवश्यक है।
पूज्य गुरुजी का आह्वान
7 मार्च, 1950 को संघ के तत्कालीन सरसंघचालक पूज्य गुरुजी ने वक्तव्य जारी किया था कि, ‘मैं पूर्वी बंगाल से लौटा हूं। वहां के हिंदुओं को भारतवासियों से तत्काल सहायता की आवश्यकता है। उनकी दयनीय स्थिति वर्णनातीत है। नित्य प्रति हत्याएं, लूटमार, अग्निकांड, बलात्कार और बलात् कन्वर्जन की घटनाएं हो रही हैं।’ बांग्लादेश के हिंदू लगभग सात-आठ दशक बाद भी विभाजन की पीड़ा सहने को अभिशप्त हैं।
जिस मानसिकता ने भारत को तोड़कर अलग इस्लामी देश को जन्म दिया वह आज भी सिर उठाती रहती है। आज जब हम कहीं राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत के विरोध के समाचार सुनते हैं तो उसके पीछे भी यही मानसिकता काम कर रही होती है।
प्रख्यात समाजवादी नेता डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने अपनी पुस्तक ‘भारत विभाजन के गुनहगार’ में लिखा है कि ‘विभाजन के परिणामों का लेखा-जोखा ले सकने की अयोग्यता के कारण भारत का नेतृत्व न तो क्षमा, न ही सहानुभूति का पात्र है। जो लोग घटनाचक्र के केंद्र में थे, उन्हें हिंदू-मुस्लिम दंगों की उतनी आशंका नहीं थी कि उसके कारण विभाजन स्वीकार कर लें। विभाजन के कारण तो और भी बड़े पैमाने पर हिंसा हुई। विभाजन के पाप-कर्म से जिन लोगों की आत्मा भस्म हो जानी चाहिए थी, वे अपनी अपकीर्ति की गंदगी में कीटाणुओं की तरह मजा ले रहे थे।’
स्वतंत्रता के बाद एक सुनियोजित प्रचार द्वारा समाज में यह धारणा बनाई गई कि देश के विभाजन को जनता ने खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया था और उस दौरान हिंदू समाज पर जो दानवी अत्याचार हुए, वे तो नए राष्ट्र के जन्म की ‘प्रसव पीड़ा’ मात्र थे। जबकि लाखों-करोड़ों विस्थापितों की गवाहियां इस झूठ की पोल खोलती हैं।
हजारों वर्ष पुरानी भारतीय सभ्यता की पुण्य भूमि के बंटवारे को सैद्धांतिक रूप से कभी स्वीकार नहीं किया जा सकता। 5 अगस्त, 1947 के दिन कराची में संघ की जनसभा में पूज्य गुरुजी ने कहा था-‘हमारी मातृभूमि पर विपदा आ गई है। भारत का विभाजन एक पाप है और जो उसके उत्तरदायी हैं, उन्हें भावी पीढ़ियां कभी क्षमा नहीं करेंगी। यह विभाजन अप्राकृतिक है। इसे एक न एक दिन निरस्त करना होगा।’
कुछ ऐसी ही भावना महान क्रांतिकारी महर्षि अरविंद ने 1957 में व्यक्त की थी। ‘देर चाहे कितनी भी हो, पाकिस्तान का विघटन और भारत में विलय एक दिन तय है। यही ईश्वर की इच्छा है। भारत फिर से अखंड होगा और मैं उसे स्पष्ट रूप से देख रहा हूं।’ महापुरुषों की ये भविष्यवाणियां एक आशा का संचार करती हैं। करोड़ों भारतवासी इस कामना को अपने हृदय में बिठाएंगे तो यह और भी बलवती होगी। जिस दिन यह सत्य सिद्ध होगी वह दिन विभाजन की विभीषिका झेलने वाले करोड़ों निर्दोषों को सच्ची श्रद्धाञ्जलि का दिन होगा।
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