त्यौहार हिन्दुओं के और महिमामंडन और परम्परा मुगलों से? यही तो है कल्चरल जीनोसाइड!
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त्यौहार हिन्दुओं के और महिमामंडन और परम्परा मुगलों से? यही तो है कल्चरल जीनोसाइड!

जो पर्व सखा एवं भगवान के रूप में कृष्ण जी द्वारा द्रौपदी की रक्षा से जुड़ा था, उसे उस अफीमची हुमायूं के साथ जोड़ दिया गया

by सोनाली मिश्रा
Aug 11, 2022, 06:20 pm IST
in भारत, तथ्यपत्र
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भारत में हिन्दुओं के हर त्यौहार को, हर पर्व को कहीं न कहीं हिन्दुओं की सांस्कृतिक पहचान से छीन कर उन मुगलों के हवाले कर दिया गया है, जिन्होनें कुछ ही वर्ष पूर्व भारत में इस्लाम के प्रचार प्रसार के लिए ही भारत में कदम रखा था और जिन्होनें भारत की सांस्कृतिक पहचान को नष्ट करने के हर संभव प्रयास किया था। जिन्होनें मंदिरों को तोडा, त्योहारों पर रोक लगाई और जिनके कारण हिन्दू रानियों को जौहर करने पर बाध्य होना पड़ा था, उन्हें ही सेक्युलर इतिहासकारों ने ऐसा जनता के सामने प्रस्तुत किया जैसे उन्होंने ही हिन्दुओं के पर्वों की रक्षा की!

उनमे सबसे बड़ा नाम है रक्षाबंधन का, और जो पर्व सखा एवं भगवान के रूप में कृष्ण जी द्वारा द्रौपदी की रक्षा से जुड़ा था, उसे उस अफीमची हुमायूं के साथ जोड़ दिया गया जो चौसा के युद्ध में जब उसकी जान पर बन आई थी, अपनी नन्हीं बेटी को पानी में बहती छोड़ गया था। चूंकि इन बादशाहों के साथ उनकी औरतें भी चला करती थीं, अत: वह भी उन्हीं के साथ थी।

अफीक बेगम, जो आठ वर्ष की थी और जो हुमायूं और बेया बेगम की दूसरी संतान थी, वह चौसा के युद्ध के दौरान खो गयी थी और उसका कुछ पता नहीं चल सका था। हुमायूँ नामा में गुलबदन बेगम ने इस घटना का उल्लेख किया है।

गुलबदन बेगम ने और ऐसी बातें लिखी हैं, जो उस हुमायूं के चरित्र को बताती हैं, जिसे सेक्युलर इतिहासकार रक्षाबंधन से जोड़ देते हैं। गुलबदन बेगम के हुमायूंनामा में पृष्ठ 44 पर लिखा है कि

“माहम बेगम की बहुत इच्छा थी कि हुमायूं के पुत्र को देखूं। जहाँ सुन्दर और भली लड़की होती, वह बादशाह की सेवा में लगा देतीं थी। खदंग चोबदार की पुत्री मेव जान मेरी गुलामी में थी। बादशाह फिर्दैसमकानी की मृत्यु के उपरान्त एक दिन उन्होंने स्वयं कहा कि हुमायूं, मेव जान बुरी नहीं है। इसे अपनी कनीज क्यों नहीं बनाते। इस कथनानुसार उसी रात हुमायूँ बादशाह ने उससे निकाह कर लिया”

हुमायूं की महिलाओं के प्रति मानसिकता को देखने के बाद आइये जानते हैं कि सेक्युलर इतिहासकारों द्वारा जो झूठ फैलाया गया है कि रानी कर्णावती ने हुमायूं को राखी भेजी थी और वह उन्हें बचाने आया था। वह समय पर नहीं पहुँच सका था तो रानी कर्णावती ने जौहर कर लिया था। क्या वास्तव में वह गया भी था? और यदि गया था तो कब और कैसे?

इस पूरे प्रकरण को इतिहासकार एसके बनर्जी ने विस्तार से अपनी पुस्तक हुमायूं बादशाह में लिखा है। इसमें यह लिखा है कि कैसे उन दोनों के मध्य पत्राचार हुआ और कैसे काफ़िर से दूर रहने के लिए कहा गया।

बहादुर शाह ने हुमायूं को पत्र लिखा था कि-

“चूंकि हम ही न्याय लाने वाले एवं यकीन के रखवाले हैं, तो पैगम्बर के शब्दों में ‘अपने भाई की मदद करें, फिर चाहे वह एक दुष्ट हो या पीड़ित!” और यही कारण हैं कि हमने उसे शरण दी है!”

अर्थात वह किसी को भी शरण दे सकते थे, किसी भी मुस्लिम का कोई अपराध हो ही नहीं सकता था। उसके बाद पुर्तगाली फ़रिश्ता के हवाले से लिखते हैं, कि बहादुरशाह ने हुमायूँ को लिखा-

“मैं चित्तौड़ का दुश्मन है, और मैं काफिरों को अपनी सेना से मार रहा हूँ, जो भी चित्तौड़ की मदद करेगा, आप देखना, मैं उसे कैसे कैद करूंगा”

मिरत-ए-सिकंदरी, में एक और आयत दी गयी है, जिसे Tazkirah-i-Bukharai में भी दिया गया है। Tazkirah-i-Bukharai के अनुसार यह हुमायूँ ने लिखी थी। वह आयत कहती है,

जिसका अनुवाद है-

“मेरे दिल का दर्द अब यह सोच कर खून में बदल गया है, कि हमारे एक होने के बावजूद हम दो है। मैने कभी भी आपको रोते हुए याद नहीं किया है, मैने कभी सोचा नहीं था कि मैं इतना रोऊँगा,”

यह बहादुर शाह और हुमायूं के बीच पत्राचार था, हालांकि यह बहुत बड़ा पत्राचार है। जब यह पत्राचार समाप्त हुआ, तब तक हुमायूं सारंगपुर पहुँच चुका था और वह वहां पर एक महीने के लगभग रुका रहा।

एसके बनर्जी पृष्ठ 118 पर लिखते हैं, जब हुमायूं मालवा की ओर आ रहा था तो बहादुरशाह को चिंता हो गयी थी कि कहीं उस पर ही हुमायूं आक्रमण न कर दे। और चित्तौड़ छोड़कर अपनी राजधानी मांडू जाने के लिए तैयार हो रहा था, मगर उसके मंत्री सदर खान ने उसी मुस्लिम परम्परा की दुहाई देते हुए कहा कि एक काफ़िर के कारण कभी भी हुमायूं इस युद्ध में आपके खिलाफ नहीं जाएगा।

अर्थात जब एक मुस्लिम और गैर मुस्लिम के बीच युद्ध हो रहा हो, तो एक मुस्लिम दूसरे मुस्लिम का विरोध नहीं करेगा। और यही हुआ था। हुमायूं ने तब तक बहादुर शाह पर हमला नहीं किया जब तक वह रानी कर्णावती के साथ युद्ध कर रहा था। एसके बनर्जी लिखते हैं कि हुमायूं दरअसल काफिर के खिलाफ बहादुर शाह के युद्ध में निष्पक्ष रहकर अपनी सेना का यकीन हासिल कर रहा था।

और यह यकीन कैसे हासिल हो सकता था, वह ऐसे कि किसी भी ईमान वाले इंसान से तब लड़ाई न की जाए जब वह किसी काफ़िर से लड़ रहा है।

इसके बाद जो उन्होंने लिखा है, वह पढ़कर रक्षाबंधन पर पढ़ाई जाने वाली इस कहानी का सबसे बड़ा झूठ सामने आता है कि जब तक हुमायूं आता, तब तक चित्तौड़ हार चुका था। पुस्तक में लिखा है कि “जब यह सुनिश्चित हो गया कि बहादुरशाह चित्तौड़ को जीत लेगा तो हुमायूं उज्जैन की ओर चला अर्थात वर्ष 1535 में, और वह वहां तब तक रहा जब तक कि चित्तौड़ बहादुरशाह के हाथों में नहीं चला गया। अर्थात 8 मार्च 1535 तक।

अर्थात जो यह झूठ पढ़ाया जाता है कि रानी कर्णावती ने राखी भेजी थी और हुमायूं जब तक आया तब तक बहादुरशाह जीत चुका था और फिर उसने बदला लेने के लिए बहादुरशाह पर हमला किया।

दरअसल वह जानबूझकर ही नहीं गया था।

सेक्युलर इतिहासकारों ने भारत के सांस्कृतिक प्रतीकों पर आक्रमण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है, परन्तु उससे भी कहीं आधिक घातक है, हर हिन्दू प्रतीक को, हर हिन्दू त्योहार की हिन्दू पहचान छीनकर उस समुदाय के साथ जोड़ देना, जो दरअसल हिन्दुओं के अस्तित्व तक को स्वीकार नहीं कर पाते हैं। परन्तु अब धीरे धीरे परतें खुल रही हैं और छल का आवरण हटाकर सही तथ्य सामने आ रहे हैं, अब एजेंडा इतिहास नहीं बल्कि तथ्यों पर बात हो रही है!

Topics: कल्चर जीनोसाइडRaksha Bandhan NewsRakshabandhan and MughalCulture Genocideरक्षा बंधन समाचाररक्षाबंधन और मुगल
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