नर्मदा की सेहत दर्ज करने के लिए ‘इन्फॉर्मेशन मैनेजमेंट सिस्टम’ भी तैयार किया गया है जिसे आजमाने और अपनाने के लिए देशव्यापी मंथन होना चाहिए। और इस बीच जनजातियों तक विकास की उजास पहुंचाना सरकारों की जवाबदेही का हिस्सा होना चाहिए।
पंचभूत में समाए विज्ञान और सनातन परम्पराओं को नमन करती आस्था का अद्भुत नजारा कुछ साल पहले सिंहस्थ ‘विचार’ कुम्भ में देखा था। बड़ी बात थी, आयोजकों का प्रकृति, अन्न और वैचारिक अनुशासन के प्रति आग्रह। पूरे आयोजन की कमान थी ‘नर्मदा समग्र’ के संस्थापक और बाद में वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के केंद्रीय मंत्री बने अनिल माधव दवे के हाथ। वे हर दिन आयोजन में व्यर्थ हुए खाने का तोल बताते हुए प्रतिभागियों को आगाह करते कि यह सबकी शर्मिंदगी की वजह है और अगले दिन यह बर्दाश्त नहीं होगा, सब पर मेरी निगाह रहेगी। मेरे लिए यह सुखद अनुभव था कि इतने भव्य आयोजन में जो असली फिक्र मंच से कही बातों के बजाय आदतों में दिखनी चाहिए, वह कम से कम एक व्यक्ति की बातों और बर्ताव, दोनों में झलक रही थी। यही वे सबक हैं जो पीढ़ियों को याद रहते हैं, विरासत के तौर पर साथ रहते हैं और नतीजों के तौर पर वर्षों बाद नजर भी आते हैं।
बेकाबू भूख, बेनकाब धड़े
ये बातें इसलिए भी याद रखी जानी चाहिए कि हमें हर वक्त दुनिया की ताकतों के सामने अपनी तैयारी का भी जायजा लेते रहना है। हाल ही में, जलवायु बदलाव को बड़ा एजेंडा बनाकर चुनाव जीते अमेरिकी राष्ट्रपति को वहां की उच्चतम अदालत ने कहा कि पर्यावरण की निगरानी करने वाली एजेंसी, कार्बन उगलने और कोयले से चलने वाले ऊर्जा उद्यमों पर अमेरिकी संसद यानी कांग्रेस की इजाजत के बगैर लगाम नहीं लगा सकेगी। इधर अंदरूनी और अगल-बगल की तमाम चुनौतियों से जूझती भारतीय अर्थव्यवस्था पर ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों की ओर जाने और नेट-जीरो उत्सर्जन की पाबंदियों में बंधने का दबाव है। और विकास की अंधाधुंध दौड़ में पूरी धरती को कार्बन-स्याह कर चुके अमेरिका और चीन अपनी नीयत से उबरने को तैयार नहीं। चीन आर्थिक-उपनिवेशवाद और अमेरिका दुनिया को धड़ों में बांटने की अपनी चालों से बाज नहीं आने वाला।
इस रवैये के बीच भारत को जलवायु बदलाव से उपजी आपदाओं से भी जूझना है, तो नदी, अन्न, मिट्टी, पेड़, पशु सबका खयाल रखते हुए अपनी देशज ताकत बढ़ाने के रास्ते पर बिना रुके चलते जाना है। यूं तो भारत में भी बेकाबू हो रही व्यावसायिक भूख ने नदियों के रास्ते रोके हैं, जनजातियों से उनकी आस छीनी है, पेड़ों की जमीन खिसकाई है, चरागाहों को कागजों में समेटा है और पशुधन को लाचार बनाने में कसर नहीं छोड़ी है।
लालच और लूट की व्यवस्था ने कुछ इलाकों में चकाचौंध कर दी तो अपने मूल स्वभाव के साथ कुदरत की गोद में रहने वाली आबादी की परवाह ही नहीं की। पढ़ाई, सेहत, कमाई सबके लिए जूझती उस आबादी की तकलीफ का अन्दाज सिर्फ़ उन्हें हो पाया जिन्होंने पहाड़ों के कटने पर उजड़ी बस्ती देखी, उफनती नदी में बहती जिंदगियों की घुटन देखी, और अकाल और महामारी में इलाज-दवाई को तरसती बस्तियों के दर्द को महसूस किया। यही वे लोग जिन्होंने इन आंसुओं के सैलाब से सामना करने का बीड़ा भी उठाया और जिनका जिÞक्र करने में कभी हिचकिचाना नहीं चाहिए।
‘नम्मदस’ और नदी घर
जब पहली बार भोपाल के ‘नदी घर’ जाना हुआ था तो महसूस हुआ कि इस घर की रग-रग में कलकल है। घर की दीवार पर अमरकंटक से निकलने वाली नर्मदा के हर पड़ाव को खूबसूरती से उकेरा गया है। ऊपरी मंजिÞल के कमरे में दीवार पर एक तस्वीर टंगी है जिसका कैप्शन है ‘नम्मदस’, नर्मदा नदी को ग्रीक यात्रियों ने इसी नाम से दर्ज किया था। यह घर ‘नर्मदा समग्र’ का बसेरा था जो अनिल माधव दवे के उस सपने से उपजा, जब उन्होंने करीब दो दशक पहले मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात से गुजरने वाली नर्मदा नदी की राफ्टिंग-यात्रा की थी। जहां-जहां किनारे बसे लोगों पर नजर गई, वहां-वहां बुनियादी जरूरतों की किल्लत दिखी। इसके बाद जो काम उस आबादी की बेहतरी के लिए हुए, उसने रुआंसी आंखों में चमक पैदा कर दी। इस आस के निशान नदी घर की दीवारों, अलमारियों और पूरी बसावट में सुने जा सकते हैं।
भारत को जलवायु बदलाव से उपजी आपदाओं से भी जूझना है, तो नदी, अन्न, मिट्टी, पेड़, पशु सबका खयाल रखते हुए अपनी देशज ताकत बढ़ाने के रास्ते पर बिना रुके चलते जाना है। यूं तो भारत में भी बेकाबू हो रही व्यावसायिक भूख ने नदियों के रास्ते रोके हैं, जनजातियों से उनकी आस छीनी है, पेड़ों की जमीन खिसकाई है, चरागाहों को कागजों में समेटा है और पशुधन को लाचार बनाने में कसर नहीं छोड़ी है।
मध्य प्रदेश में अलीराजपुर, बड़वानी और धार जिले सहित महाराष्ट्र के नंदुरबार और गुजरात के छोटा उदयपुर जिÞलों को छूती नर्मदा, दोनों ओर विंध्य और सतपुड़ा पर्वत से घिरी हुई अपनी पूरी मौज में बहती है। पूरब से पश्चिम की ओर बहकर अरब की खाड़ी में मिलने वाली नर्मदा अकेली ऐसी नदी है जिसकी परिक्रमा की जाती है। नदियों को पूजने की हमारी परम्परा में घाट-घाट साफ रखना, सहायक नदियों के बहाव के रास्तों को खुला रखना, इंसानी बसावटों को आबाद रखना और नदी की पूरी पारिस्थितिकी की सम्भाल करना, सब शामिल है। संगठन और समुदाय मिलकर इसकी भरपूर कोशिश कर रहे हैं। लेकिन नदी बहाव के रास्तों में जो अड़चनें हैं, अतिक्रमण हैं, खनन है, लोभ हैं, उसके लिए जनजातियों को वंचित कहलाने पर मजबूर करने वाली व्यवस्था की अंदरूनी सफाई भी जरूरी लगती है। सरकारों के सरोकारों पर सवालों की बौछार और डिजिटल-निगरानी का कारगर तरीका तैयार हुए बगैर उसके बहाव की दशा-दिशा ठीक रहने की गुंजाइश कम ही रहेगी।
‘नदी एम्बुलेंस’ और जनजातीय समाज
जल-यात्रा के दौरान नजर में आया कि नर्मदा के तट पर बसे लोगों के लिए सरकारी सुविधाओं और शहरों तक पहुंचने के रास्ते गिने-चुने हैं। यह इलाका सरदार सरोवर बांध की डूब का होने की वजह से अब भी जनजातियों के लिए नदी के रास्ते आना-जाना ही सबसे आसान है। यह भी समझ बनी कि मौसमी बीमारियों से लेकर सांप काटने, खून की कमी, कमजोरी, चोट, हड्डी टूटने जैसी आम तकलीफों के लिए इनके पास कोई आसान विकल्प नहीं है। इस समझ के बाद मध्य प्रदेश के मंडला जिÞले के बरगी इलाके में साल 2013 में सरदार सरोवर इलाके में ‘नदी-एंबुलेंस’ सेवा की शुरुआत हुई।
2014-2018 के बीच इसके लिए एक बहुराष्ट्रीय कंपनी ने सहयोग किया। ‘नर्मदा समग्र’ की कमान सम्भाले कार्तिक सप्रे बताते हैं कि यह सेवा हफ़्ते में पांच दिन चलती है और सामान्य चिकित्सा के साथ जरूरत के मुताबिक विशेषज्ञ भी मौजूद रहते हैं। करीब 40 बस्तियों और मोहल्लों तक पहुंच बना चुकी यह सेवा जागरूक नागरिकों को स्वैच्छिक सेवा के लिए भी प्रेरित कर रही है। मध्य प्रदेश के सदगुरु सेवा संघ के कार्यकर्ता अपनी सेवाएं देते हैं और कोविड के दौर में महाराष्ट्र के नर्मदा सेवा संघ के चिकित्सकों का दल भी अपनी सेवाएं देता रहा। अब नर्मदा के किनारे-किनारे 100-150 किलोमीटर तक फैली इस सेवा के जरिए जनजातीय समाज के लोगों की चिकित्सा के साथ ही पारम्परिक ज्ञान, देसी बीजों के संरक्षण, जैव विविधता, लोक परम्पराओं को जीवंत करने की पहल हो रही है। अक्षय ऊर्जा के लिए जागृति और सौर ऊर्जा के विकल्पों को बढ़ावा देने का काम भी नर्मदा समग्र संगठन अपने हाथों कर रहा है।
न नेटवर्क, न रोजगार, न सेहत
नर्मदा पर चलने वाली ‘नदी एम्बुलेंस’ शुक्रवार को ककराना गांव में लगने वाले हाट के दिन घाट-घाट घूमने के बजाय वहीं खड़ी रहती है ताकि हाट में आने वाली भीड़ को इलाज से जोड़ सके। जो काम शासन-प्रशासन के बूते आसानी से होने चाहिए, उसकी भरपाई संगठन और समुदाय मिलकर कर रहा है, यह स्थिति विकास के बहाव की पोल खोलने के लिए काफी है। नर्मदा के जलमार्ग से सटे गांवों में करीब 40 हजार भील आबादी है जिन्हें 15-20 किलोमीटर पैदल चले बगैर न सड़कें नसीब हैं, न सूचनाओं की क्रांति के युग में संचार के माध्यम। अगर कोई गंभीर रूप से बीमार हो जाए तो पहाड़ पर चढ़ कर मोबाइल नेटवर्क मिलता है और तब जाकर 108 नम्बर मिला पाते हैं।
‘नदी एम्बुलेंस’ से जुड़े मनोज का अनुभव यह है कि नदी के आस-पास रहने और बारिश के कारण, यहां त्वचा की बीमारियां ज्यादा हैं। पहले गांवों में परम्परागत इलाज वाले जानकार लोग हुआ करते थे, अब वो भी गिनती के बचे हैं। ये निशुल्क और निस्वार्थ एम्बुलेंस ही इनकी एकमात्र उम्मीद है। मछली पालन से आजीविका चलाने वाली इन जनजातियों में साक्षरता केवल 3-4 प्रतिशत ही है और विकास की सारी योजनाओं से भी ये छिटके हुए हैं। ‘नर्मदा समग्र’ यहां बच्चों के लिए तीन संस्कार केंद्र भी चलाता है और दवाएं, कपड़े आदि मदद भी पहुंचाता है। बारिश के दिनों में जीवन और कठिन होता है, न रोजगार है, न नए जमाने के मुताबिक दक्षताएं और न प्रशिक्षण। जनजातियों के उत्थान के लिए अलग विभाग हैं, मंत्रालय हैं, फाइलें हैं, अफसर हैं, लेकिन बगैर समन्वय और नीयत तो नसीब बदलना मुमकिन ही नहीं।
महिलाओं पर प्यास का भार
नर्मदा किनारे के गांव वालपुर के सरपंच जयपाल खरत इस बात से तो सहमत हैं कि ‘नदी एम्बुलेंस’ ने मुश्किलें कम की हैं, लेकिन गर्भवती महिलाओं के लिए 10-15 किलोमीटर पैदल जाकर सरकारी एम्बुलेंस मिल पाने का दर्द उन्हें बहुत है। आज भी उनके आसपास के इलाके में कई मौतें सिर्फ़ इसीलिए हो जाती हैं कि उन्हें वक्त से इलाज नहीं मिल पाता। वैसे लोगों को सरकार की ओर से दी जाने वाली सुविधाओं का कोई भरोसा भी नहीं। सरकारी एम्बुलेंस ठेकेदारों के पैसा बनाने का जरिया बन चुकी हैं। अफसर आते हैं तो इन्हें चलाते हैं, नहीं तो ठप पड़ी रहती हैं। पूरा इलाका पहाड़ी है तो पीने के पानी की बेहद किल्लत भी रहती है। हर घर की एक महिला तो दिन भर सिर्फ़ पानी के इंतजाम में लगी रहती है। हर दिन उसे 5-6 किलोमीटर सिर्फ़ पानी लाने के लिए चलना पड़ता है। लोगों की मांग है कि पानी लिफ़्ट होकर इन इलाकों तक पहुंचे तो महिलाओं का जीवन आसान हो।
संगठन से जुड़े मनोज जोशी और राजेश जादम से भी आसानी से बात नहीं हो पाई क्योंकि यहां आसानी से मोबाइल नेटवर्क नहीं मिलता। ऐसे में किसी से सम्पर्क करना, मदद मांगना, बुलाना सब बेहद तकलीफ भरा है। रोजगार के लिए मछली पालन पर निर्भरता है और उसमें भी जनजातियों के हिस्से कुछ खास नहीं आता। व्यवसायी 50-60 रुपये किलो में मछलियां खरीदकर उन्हें 100-150 रुपये किलो बेचकर मुनाफा कमाते हैं। तीसरी बार सरपंच बने जयपाल का कहना है कि यदि पशुपालन, बकरी पालन और खेती को बढ़ावा देकर आजीविका को मजबूत किया जाए तो जनजातीय समाज धीरे-धीरे नए उद्यम अपनाकर नए दौर के साथ तालमेल में रह पाएंगे। बाजरा, मूंग, मूंगफली तो यहां कुदरती तौर पर होती है, और अब कपास भी होने लगी है। नया सीखने और करने की चाह तो है मगर अभी जीवन की मूलभूत जरूरतों के संघर्ष में ही जीवन उलझा हुआ है।
नदी और विज्ञान चिंतन
हाल के सालों में सहायक नदियों और बाकी मसलों को लेकर ‘नदी उत्सवों’ के बहाने हुई चचार्एं सिर्फ़ इस बात का दोहराव हैं कि हमें अपनी नदियों की सेहत की फिक्र के साथ ही तट की बसावटों को भी आबाद रखना है। परम्परा के साथ आधुनिक विज्ञान को हर काम-काज में गूंथने के जो काम गैर-सरकारी स्तर पर मध्य प्रदेश में हुए हैं, वे जल और समाज के मसलों पर ईमानदारी से जुटी संस्थाओं के लिए अच्छी मिसाल है जिन्हें सहमना लोगों को मिलकर बड़े पैमाने पर हाथ में लेना चाहिए।
समग्र जल-स्वास्थ्य को लेकर वैज्ञानिक पैमानों पर नर्मदा ‘नदी स्वास्थ्य सूचकांक’ तैयार करने, इसके लिए समुदाय आधारित निगरानी व्यवस्था और पानी छानकर पीने सहित आदतों में बदलाव के काम बेहद जरूरी हैं। नर्मदा की सेहत दर्ज करने के लिए ‘इन्फॉर्मेशन मैनेजमेंट सिस्टम’ भी तैयार किया गया है जिसे आजमाने और अपनाने के लिए देशव्यापी मंथन होना चाहिए। और इस बीच जनजातियों तक विकास की उजास पहुंचाना सरकारों की जवाबदेही का हिस्सा होना चाहिए।
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