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होम विश्लेषण

वामपंथ एवं मिशनरी “मानस” पर हमलावर क्यों ?

सोनाली मिश्रा by सोनाली मिश्रा
Aug 4, 2022, 09:17 pm IST
in विश्लेषण
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सावन माह की शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को जन्म हुआ था गोस्वामी तुलसीदास जी का। उनके जन्मस्थान में मतभेद है कि सोरों में हुआ था या बांदा में! यहकोई नई बात या विषय नहीं है, हिन्दुओं के महापुरुषों के इतिहास को या उनके जीवन को इस प्रकार विवादित कर दिया जाता है कि लगभग पूरा जन्म उन्हें ही साफ़ करने में निकल जाता है।

भारत में अब भी असंख्य लोक कलाकार हैं, जिनके विषय में हिन्दुओं को जानकारी शून्य है, क्योंकि पहले मुग़ल और फिर अंग्रेजी एवं उसके उपरान्त कांग्रेस सरकार में वामपंथी विमर्श ने हिन्दुओं की चेतना जागृत करने वाले रचनाकारों की उपेक्षा ही की। परन्तु फिर भी यह रचनाएं जीवित रहीं, यह लोग जीवित रहे, यह स्पंदित होते रहे और अंतत: वह विमर्श का केंद्र बने रहे।

गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरित मानस भी विमर्श का केंद्र रहता है। जहाँ वह लोक में आदर और गर्व का विमर्श रहता है तो वहीं वामपंथ द्वारा पोषित किए गए अकादमिक विमर्श में उपेक्षा एवं तिरस्कार का केंद्र रहता है। उस पर बहुधा स्त्री विरोधी होने का आरोप लगाया जाता है, परन्तु यह हास्यास्पद है कि जो ग्रन्थ स्वयं ही स्त्री की पीड़ा को यह कहते हुए व्यक्त करता है कि

कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं।

पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।

वह स्त्री विरोधी हो सकता है? परन्तु इस दोहे एवं प्रसंगों के अनुसार स्त्री पर कुछ कहने वाले दोहों के आधार पर उन्हें स्त्री विरोधी ठहराया जाता है जैसे जब लक्ष्मण जी को शक्ति बाण लगा हुआ है तो प्रभु श्री राम विलाप करते हुए कह रहे हैं कि भाई यदि चला जाता है तो नारी लेकर वह क्या करेंगे?

यह सहज विलाप है और यह उस भाई का विलाप है जिस भाई पर अपने छोटे भाई की रक्षा का उत्तरदायित्व था। परन्तु एक षड्यंत्र के चलते इन्हें जानबूझकर उठाया गया। फिर भी कहीं न कहीं प्रश्न तो उठता ही है कि इसके पीछे कारण क्या हो सकते हैं? या अचानक से ही साधारण जनमानस के हृदय में रामचरित मानस के प्रति घृणा भरना आरम्भ कर दिया गया?

इसका उत्तर हमें कहीं न कहीं उस पुस्तक में मिलता है जिसे एक मिशनरी सीएफ एंड्रूज़ ने लिखा था और जिसका प्रकाशन वर्ष 1912 में हुआ था।

क्या था उस पुस्तक में?

इस पुस्तक को मिशनरी सीएफ एंड्रूज़ ने भारत में हुए विभिन्न पुनर्जागरण और उसके मिशनरी पहलुओं के विषय में लिखा था और कैसे अंग्रेजी शिक्षा ने हिन्दू जनमानस को प्रभावित किया है, कैसे अंग्रेजी साहित्य का अर्थ ईसाई साहित्य था, और कैसे साहित्य और शिक्षा ने शिक्षित हिन्दुओं को ऐसा बनाने का स्वप्न देखा है, जो अंतत: मिशनरी के सपने पूरे करेंगे।

इस पुस्तक को लेकर यूनाईटेड काउंसिल फॉर मिशनरी खासी उत्साहित थी जिन्होनें लिखा कि वह इस वर्ष अध्ययन सर्कल के लिए यह दो पुस्तकें प्रस्तुत करके बहुत ही प्रसन्नता का अनुभव कर रही हैं, जिनमें से एक है गॉडफ्रे फिलिप्स, एम ए की आउटकास्ट्स होप और सीएफ एंड्रूज़ की द रेनेसां इन इंडिया एंड इट्स मिशनरी आस्पेक्ट, जो गावों और लोगों की बातें करती है।

यह महत्वपूर्ण था कि गाँवों के विषय में वह क्या लिखते हैं। लोगों और गाँवों के विषय में बात करते हुए सीएफ एंड्रूज़ कई विशेषताओं एवं स्वभाव पर लिखते हैं, परन्तु सबसे महत्वपूर्ण वह लिखते हैं, गोस्वामी तुलसीदास जी के विषय में, वह लिखते हैं कि भक्तिकाल में तुलसीदास महानतम कवि थे और उन्होंने जिस प्रकार से राम जी के चरित्र को लोक भाषा में रचा है, उसके कारण राम जनमानस की चेतना का अभिन्न अंग बन गए हैं। तुलसीदास ने जनता के दिलों में गहरे तक राम बसा दिए हैं।

यह कथन मिशनरी सीएफ एंड्रूज़ का है, जो भारत में ईसाई रिलिजन के प्रचार और प्रसार में बाधाओं पर यह पुस्तक लिख रहे थे। तो जब वह यह लिखते हैं कि तुलसीदास का सन्देश सीधा भारत के हृदय तक पहुँचता है। इसे उन्होंने अपनी मातृभाषा में लिखा है एवं उन्होंने अपने वैभवशाली अत्तीत की कहानियाँ कहीं हैं। उनका लिखा रामचरित मानस भारत के लगभग हर गाँव में बोला जाता है और सबसे इस कहानी को सबसे भव्य एवं निश्छल हिन्दू धार्मिक त्यौहार इसका मंचन करते हैं।

वह यह भी लिखते हैं कि राम जो अपने कार्य करने के उपरान्त हालांकि अपने लोक वापस चले गए हैं, परन्तु तुलसी लोगों के दिल में यह विश्वास जगाने में सफल रहे हैं कि चाहे कुछ भी हो जाए यदि कुछ गलत हो रहा है, तो राम उसका निराकरण करने के लिए आएँगे अवश्य!

यदि इस पुस्तक को पूरा पढ़ते हैं तो ज्ञात होता है कि कैसे यह भक्ति आन्दोलन के संत हिन्दुओं को हिन्दू बनाए रखकर ही कुरीतियों से लड़ने पर जोर दे रहे थे, जो मुगलों और अंग्रेजों के आगमन के साथ हिन्दू समाज में आ गयी थीं न कि ऐसे कथित सुधार आन्दोलन थे वह जिन्हें ईसाई मिशनरी हिन्दुओं के धर्म परिवर्तन के लिए प्रयोग कर रही थीं।

अत: यह विवरण पढ़ने पर ज्ञात होता है कि कहीं न कहीं मिशनरी इस बात को समझ चुकी थीं कि गाँव-गाँव में पढ़े जाने वाले एवं मंचित किए जाने वाले “रामचरित मानस” के कारण ही वह धर्मपरिवर्तन के अपने उद्देश्य में आगे नहीं बढ़ पा रही हैं। तो क्या यही कारण था कि रामचरित मानस को “अकादमिक” रूप से निशाना बनाया गया?

इसका और विस्तार उन प्रशंसाओं में प्राप्त होता है जो रामचरितमानस के अंग्रेजी भाषा में किए गए। दो अंग्रेजी अनुवाद इसके अधिक प्राप्त होते हैं।

Growse द्वारा अनूदित द रामायण ऑफ गोस्वामी तुलसीदास (The Ramayana of Tulsidasa) में भूमिका में लिखा है कि तुलसीदास एक महान कवि थे, एक विश्व कवि जिन्होनें विश्व को अपने ज्ञान का ही उपहार नहीं दिया है बल्कि उनके पास वाणी का भी उपहार था।”

फिर वह लिखते हैं कि यदि शाश्वत होने की बात की जाए तो इस बात से इंकार ही नहीं किया जा सकता है कि तुलसीदास जी के ग्रन्थ को अभी तक पढ़ा जा रहा है और वह जारी रहना चाहिए क्योंकि उन्होंने आने वाली पीढ़ियों को ज्ञान देने एवं लाभान्वित करने का कार्य किया है।

फिर Growse लिखते हैं कि आज का आधुनिक विज्ञान भी वेदों के उस सिद्धांत को कहता है जो कि तुलसीदास जी ने लिखा कि प्रभु निराकार हैं, उनका रंग और रूप नहीं है, और वह अपने प्रभावों से अनुभव किए जा सकते हैं। परन्तु कठिनाई यह है कि इतिहास के दायरे में यह स्थापित करना अत्यंत कठिन है कि राम एवं कृष्ण ने क्या वास्तव में कभी अवतार लिया होगा, क्या कभी संतों के साथ हो रहे अन्याय का प्रतिकार किया होगा?

The Ramayana of Tulsidasa

तो क्या मिशनरी और वामपंथ इस लोकप्रियता से घबरा गए थे और इस बात से विचलित हुए कि मात्र एक ग्रन्थ जो लिखा भी स्थानीय भाषा में है वह ही आधुनिक विज्ञान के उस रहस्य को बताने के लिए पर्याप्त है जिसके लिए आधुनिक विज्ञान भी हाथ पैर मार रहा है? ऐसा अनुवादकों द्वारा बताई गयी भूमिका से कहीं न कहीं स्पष्ट होता है।

वहीं दूसरा अनुवाद जे एम मैक्फी का प्राप्त होता है! उन्होंने जब रामचरित मानस का अनुवाद किया तो उन्होंने इसे उत्तर भारत की बाइबिल कहा। “हमें यह स्वीकार करना होगा कि यह उत्तर भारत की बाइबिल है। और यह आपको हर गाँव में मिलेगी, इतना ही नहीं, जिस घर में यह पुस्तक होती है, उसके स्वामी का आदर पूरे गाँव में होता है, जब वह इसे पढता है। कवि बहुत चतुर थे जिन्होनें इस कविता को स्थानीय भाषा में लिखा-

“We might speak of it with truth as the Bible of Northern India। A copy of it is to be found in almost every village। and the man who owns it earns the gratitude of his illiterate neighbors when he consents to read aloud from its pages। The poet was wiser than he knew, when he insisted on writing his book in the vernacular”

एक और अनुवाद प्राप्त होता है वह भी द होली लेक ऑफ राम- रामचरित मानस के नाम से है और इसे किया है डगलस पी हिल ने! इसमें भी भूमिका में इस ग्रन्थ की लोकप्रियता की बात की गयी है और लिखा है कि इस ग्रन्थ की लोकप्रियता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि कितनी रामलीलाओं का मंचन वार्षिक किया जा रहा है और वह भी उत्तर भारत के हर गाँव में। तीन सप्ताह तक यह प्रदर्शन चलता है।

क्या अंग्रेजी अकादमिक जगत में इस प्रभाव को देखकर लोग डर गए थे?

जब हम तीनों ही अनुवादों की भूमिका को पढ़ते हैं तो एक बात स्पष्ट रूप से निकलकर सामने आती है कि जैसे जैसे इस ग्रन्थ का अंग्रेजी भाषा में विद्वान अधिक से अधिक अनुवाद करते गए इसकी लोकप्रियता अवधी और हिन्दी से बढ़कर अंतर्राष्ट्रीय होने लगी। तो ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या यही कारण था कि एक ऐसे ग्रन्थ पर जिसमें विश्व कल्याण की भावना निहित है, जिसमें प्रभु श्री राम के जीवन के साथ ऐसे मूल्य समाहित हैं जो हर काल, हर युग में जनमानस की चेतना को जागृत किए रहेंगे, उनमें शाश्वत मूल्यों का, उनमें सम्बन्धों के प्रति आदर एवं प्रेम का संचार करते रहेंगे, उसे जानबूझकर ही षड्यंत्र का शिकार बनाया गया? एवं निरर्थक विवाद उत्पन्न किए गए?

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