रुद्रहृदयोपनिषद् में शिव के बारे में कहा गया है कि सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मका अर्थात् सभी देवताओं की आत्मा में रुद्र उपस्थित हैं और सभी देवता रुद्र की आत्मा हैं। हमारे शास्त्रों में विविध कामनाओं की पूर्ति के लिए रुद्राभिषेक के पूजन के निमित्त अनेक द्रव्यों तथा पूजन सामग्री को बताया गया है
सृष्टि में प्रकृति और जीव के बीच अन्तर को मिटा कर शिव तत्व उसमें एकरूपता, एकात्मता व सहज साम्य स्थापित करता है। सम्पूर्ण ब्रह्मांड में सर्वत्र समान रूप से व्याप्त और सृष्टि के प्रत्येक अणु व जीव मात्र में परमानन्द, उल्लास व साम्य का दायक होने से अर्थात परम कल्याण का कारक होने से शिव कहलाता है। इसलिए निरुक्तकार यास्क ने कहा है शेते अनेन इति शिवम् कल्याणमित्यर्थ: अर्थात् सृष्टि में नित्य सुखमय आह्लाद व सहज विश्रान्ति के प्रदाता को शिव कहा गया है। एक अन्य अर्थ है शिवं कल्याणं नित्यम् ऽ अस्येति शिव: अर्थात् नित्य कल्याण का कारक होने से शिव कहा गया है। उसी शिव तत्व की साकार मूर्ति को ‘शंकर’ या ‘हर’ जैसे अनेक संकटहर्ता नामों से सम्बोधित किया जाता है। ‘शंकर’ शब्द की निरुक्ति ‘शं तनोतु इति शंकर: का अर्थ ही संकटों का हरण करे वही ‘हर’ है। शिव महिम्न स्तोत्र में भी यही कहा है कि शिव की महिमा का क्या वर्णन करें, संकटों का हरणकर्ता होने से ही उसे ‘हर’ सम्बोधित कर ‘हर -हर महादेव’ कहा जाता है।
ब्रह्मांड का प्रतीक
ब्रह्मांड के वैज्ञानिक विवेचन की दृष्टि से सम्पूर्ण ब्रह्मांड को ठीक वैसा ही अण्डाकार माना गया है जैसे नर्मदा नदी में हजारों-लाखों छोटे-बड़े कंकर व पत्थर स्वयंमेव ही प्राकृतिक रूप से होने वाले घर्षण से बाणलिंग का आकार ग्रहण कर लेते हैं (चित्र 1 व 2)।
उसी शिव विग्रह को कृत्रिम रूप से गढ़े जाने पर उसके शीर्ष की गोलाई को फैला लिया जाता है, जिससे उसकी पुष्प, बिल्व पत्र, धतूर फल आदि चढ़ाकर अर्चना की जा सके। ब्रह्मांड के कई आकलनों में उसकी अण्डाकृति न प्रतीत हो कर वह ठीक वैसी ही बेलनाकृति होती है जैसे कई शिवलिंग बेलनाकार होते हैं। वैदिक उक्ति में ‘यत्पिण्डे तत्ब्रह्माण्डे’ अर्थात् ‘जो पिण्ड में है, वही ब्रह्मांड में है’ उक्ति के अनुसार प्रत्येक शिवलिंग ब्रह्मांड के प्रतीक चिन्ह के रूप में है। शास्त्रों के अनुसार अंगुष्ट के आकार का अदृश्य विद्युत आवेश रूपी आत्मा भी विराट ब्रह्ममय हो जाता है। इस प्रकार सम्पूर्ण बह्मांड में परमात्मा व्याप्त है, उसके विविध गुणों की साकार प्रतिमा के रूप में शिव के विविध रूपों की पूजा की जाती है।
सकाम व साकार शिव उपासना
शिव व्यक्ति के सारे कष्टों का हरण कर इसकी सभी कामनाएं सहज में पूरी करते हैं। इसलिए शिव को ‘रुद्र’ भी कहा जाता है, क्योंकि रुतम्-दु:खम्, द्रावयति-नाशयतीतिरुद्र: यानी दु:खों से द्रवित होकर ही भोलेनाथ सभी दु:खों को नष्ट कर देते हैं। इसलिए उन्हें आशुतोष अवढ़र (उदार) व दानी भी कहा गया है। वे सदा ही भक्तों की पूजा व स्मरण करने पर प्रसन्न होकर उन्हें सभी प्रकार के उपहार उदारतापूर्वक प्रदान करते हैं।
धर्मग्रंथों के अनुसार हमारे द्वारा किए गए पाप ही हमारे दु:खों के कारण हैं। रुद्रार्चन, पूजा और रुद्राभिषेक से हमारे सभी पाप निर्मूल होते हैं और हमारी कुंडली से पातक कर्म एवं महापातक जनित प्रारब्ध भी जलकर भस्म हो जाते हैं। शिवपूजा से हमारे ही साधक में शिवत्व का उदय होता है, भगवान शिव का शुभाशीर्वाद भक्त को प्राप्त होता है और उनके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। ऐसा कहा जाता है कि एकमात्र सदाशिव रुद्र के पूजन से सभी 33 कोटि के देवी-देवताओं की पूजा स्वत: हो जाती है। रुद्राष्टध्यायी अथवा शिव महिम्न स्तोत्र से अभिषेक करके, ऊँ नम: शिवाय मंत्र के साथ बिल्व, धतूरे का फल, केवड़ा छोड़ कोई भी पुष्प, नैवेद्य व फल भी अर्पित करते हुए एवं शिव प्रतिमा को जल, पंचामृत, पुन: शुद्ध जल, गंगाजल आदि से स्नान कराकर धूप, दीप नैवेद्य अर्पित कर श्रद्धापूर्वक सदा शिव स्मरण करना चाहिए।
रुद्रहृदयोपनिषद् में शिव के बारे में कहा गया है कि सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मका अर्थात् सभी देवताओं की आत्मा में रुद्र उपस्थित हैं और सभी देवता रुद्र की आत्मा हैं। हमारे शास्त्रों में विविध कामनाओं की पूर्ति के लिए रुद्राभिषेक के पूजन के निमित्त अनेक द्रव्यों तथा पूजन सामग्री को बताया गया है। साधक रुद्राभिषेक पूजन विभिन्न विधि से तथा विविध मनोरथ को लेकर करते हैं। किसी खास मनोरथ की पूर्ति के लिए तद्नुसार पूजन सामग्री तथा विधि से रुद्राभिषेक किया जाता है।
श्रावण मास व सोमवार का महत्व
श्रावण मास शिव को विशेष प्रिय है। श्रावण मास में प्रतिदिन, प्रत्येक सोमवार दोनों प्रदोष, मासिक शिवरात्रि (कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को अवश्य शिवार्चन करना चाहिए। मास शिवरात्रि में रात्रि के चारों पहर (प्रति 3-3 घण्टे) पर पूजा का विशेष फल होता है। श्रावण मास में जल से अभिषेक करने व बिल्वपत्र चढ़ाने से शिव की कृपा अवश्य होती हे। जल सदैव धीरे-धीरे पतली धार से चढ़ाना चाहिए।
प्रतिदिन, प्रति सोमवार, मास शिवरात्रि प्रदोष, श्रावण मास और महाशिवरात्रि के अवसर पर भगवान शिव की सच्चे मन से पूजा से सारे कष्टों से मुक्ति मिलती है और सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। शिव सदा अपने भक्तों पर कृपा बरसाते हैं। प्रात:काल स्नान करके भगवान शिव की आराधना करनी चाहिए। महामृत्युंजय मंत्र का 108 बार जप करने से भगवान शिव की विशेष कृपा होती है। सोमवार के दिन शिवलिंग पर गाय का कच्चा दूध चढ़ाने से भगवान शिव की कृपा सदैव बनी रहती है।
शिव पूजा में निषेध
शिव पूजा में कई निषेध भी हैं। भगवान शिव की पूजा में हल्दी नहीं चढ़ाई जाती। शिव को कनेर और कमल के अलावा लाल रंग के फूल प्रिय नहीं हैं, शिव को केतकी अर्थात् केवड़े के फूल चढ़ाने का निषेध है। आक, बिल्वपत्र, भांग आदि चढ़ाएं। लेकिन शिव जी को कुमकुम और रोली नहीं लगाई जाती। शिव पूजा में वर्जित है शंख। शिवजी ने शंखचूड़ नामक असुर का वध किया था, इसलिए शंख भगवान शिव की पूजा में वर्जित माना गया है। नारियल पानी से कभी भगवान शिव का अभिषेक नहीं करना चाहिए। नारियल लक्ष्मी का स्वरूप माना जाता है। तुलसी भी भगवान शिव को नहीं चढ़ानी चाहिए।
रुद्राभिषेक के पूजन के लाभ
शिव सदैव सन्तुष्ट रह सबका कल्याण ही करते हैं। इसलिए शिव प्रतिमा पर जल चढ़ाने या जल से अभिषेक से ही वे प्रसन्न जाते हैं। संसार के रक्षार्थ शिव ने सम्पूर्ण ब्रह्मांड को नष्ट कर देने वाले विष का पान किया था। उस विष को पीकर उन्होंने संसार की रक्षा की थी। उस विष को अपने कण्ठ में धारण करने से वे नीलकण्ठ कहलाते हैं। उस विष की ज्वाला को शान्त करने हेतु ही भगवान शिव पर जल चढ़ाते हैं या अभिषेक करते हैं, ऐसी भी मान्यता जल चढ़ाने के सम्बन्ध में प्रचलित है। तथापि कामनापूर्ति हेतु शास्त्रों में भिन्न पदार्थों से अभिषेक का विधान है।
अभिषेक द्रव्य
जल से अभिषेक करने पर समय पर उत्तम वर्षा होती है। असाध्य रोगों को शांत करने के लिए कुशा युक्त जल से, भवन-वाहन प्राप्ति के लिए दही से रुद्राभिषेक करें। लक्ष्मी प्राप्ति के लिए गन्ने के रस से, धनवृद्धि के लिए व पारिवारिक समृद्धि के लिए शहद एवं घी से, तीर्थ के जल से अभिषेक करने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। इत्र मिले जल से अभिषेक करने से बीमारी नष्ट होती है और शरीर पुष्ट होता है। पुत्र प्राप्ति के लिए दुग्ध से और यदि संतान उत्पन्न होकर मृत पैदा हो तो गोदुग्ध से रुद्राभिषेक करें। ज्वर की शांति हेतु शीतल गंगाजल से रुद्राभिषेक करें। सहस्रनाम मंत्रों का उच्चारण करते हुए घृत की धारा से रुद्राभिषेक करने पर वंश का विस्तार होता है। शक्कर मिले दूध से अभिषेक करने पर जड़बुद्धि वाला भी विद्वान हो जाता है। सरसों के तेल से अभिषेक करने पर शत्रु पराजित होता है। शहद के द्वारा अभिषेक करने पर यक्ष्मा (या टी.बी.) दूर हो जाती है। गोदुग्ध से तथा शुद्ध घी द्वारा अभिषेक करने से आरोग्यता प्राप्त होती है।
सोमवार, प्रदोष और शिवरात्रि आदि पर्व के दिनों में या अन्य विशेष अवसरों पर शिव के किसी रूप या विग्रह पर किसी भी मंत्र, रुद्राष्टध्यायी या शिव महिम्न स्तोत्र के उच्चारणपूर्वक गोदुग्ध या अन्य किसी दूध मिलाकर से भी अभिषेक किया जाता है। विशेष पूजा में दूध, दही, घृत, शहद और चीनी से अलग-अलग अथवा सबको मिलाकर पंचामृत से भी स्नान कराया जाता है या अभिषेक किया जाता है।
शिववास का महत्त्व
शिववास कैलाश पर है, वृषभ पर आरूढ़ है, सभा में है, ऐसे सात स्थानों पर वास में, सभा में, भोजन पर, क्रीड़ा व श्मशान में हो, तब अभिषेक न करें। शिववास को देखकर ही रुद्राभिषेक किया जाना चाहिए। लेकिन, ज्योतिर्लिंग क्षेत्र एवं तीर्थस्थान तथा शिवरात्रि प्रदोष, श्रावण के सोमवार आदि पर्वों में शिववास का विचार किए बिना भी रुद्राभिषेक किया जा सकता है। अन्यथा शिववास देखकर ही रुद्राभिषेक करना चाहिए। विधिपूर्वक शिवलिंग का अभिषेक आशुतोष शिव को शीघ्र प्रसन्न करके साधक को उनका कृपापात्र बना देता है और उनकी सारी समस्याएं स्वत: समाप्त हो जाती हैं। अत: हम यह कह सकते हैं कि रुद्राभिषेक से मनुष्य के सारे पाप-ताप धुल जाते हैं।
त्रिनेत्र का आशय है, जब तक हमारे पास भीतरी दृष्टि या अन्तर्दृष्टि नहीं होगी, तब तक हम अपना आन्तरिक मूल्यांकन नहीं कर पाएंगे। बाहरी दृष्टि ज्ञान की दृष्टि और भीतरी दृष्टि विवेक की दृष्टि है। बाहरी दो आंखों से जगत अवलोकन करें। लेकिन भीतरी व तीसरी विवेक रूपी आंख से जो कुछ अकल्याणकारक है, अरिष्टकारक है, उद्वेगकारक है और जीवन के उत्थान में बाधक है, उसका प्रतिरोध करें। यही त्रिनेत्रधारी भगवान शिव के तीसरे नेत्र का रहस्य है।
भगवान शिव त्रिशूल रखते हैं। इसका सन्देश यह है कि हम अपने तीन विकारों को नियंत्रित रखें। ये त्रिशूल अर्थात् काम, क्रोध और लोभ हैं। अपनी शक्ति का सही दिशा में प्रयोग ही पुण्य है और गलत दिशा में प्रयोग ही पाप है। शिवजी ने अपनी ऊर्जा को नियंत्रित कर रखा है। ऊर्जा का नियंत्रण ही साधना है और यही योग है। योग के आदि गुरु भगवान शंकर ही है। शिवजी जी का वाहन नंदी है, वृषभ है। वृषभ को धैर्य एवं धर्म का स्वरूप कहा जाता है। शिवजी धैर्य व धर्म की सवारी करते हैं। अर्थात् धैर्य व धर्म युत आचरण करते हैं। जीवन की सात्विक प्रगति के लिए हमारे जीवन में धर्म की बहुत बड़ी आवश्यकता है।
पशुपति से आशय
व्यक्ति तब तक ही सही चलता है, जब तक उसकी पाशविक वृत्तियों या दुर्गुणों पर लगाम होती है, लगाम हटी कि वह लड़ पड़ता है। पशु को लगाम और आदमी को धर्म नियंत्रित करता है। जीवन अगर एक ऊर्जा है तो धर्म जीवन रूपी ऊर्जा की लगाम है। इसलिए उन्हें पशुपति भी कहा है। इस ऊर्जा का कब, कैसे, किसके लिए और कहां उपयोग करना है, यह धर्म ही हमें बताता है। ज्ञानी व्यक्ति अनासक्त भाव से कर्म करने के कारण कर्म के बन्धन में नहीं फंसता।
शिवजी के सिर पर गंगा का तात्पर्य है उसके पास उच्च विचारों की, आदर्श विचारों की पवित्र विचारों के ज्ञान की गंगा है। संसार की विषम परिस्थितियां आपको प्रभावित नहीं कर पाएंगी। आपको सकारात्मक, ज्ञानमय, आदर्शमय विचारों से सम्पन्न करना आवश्यक है। छोटी-छोटी बातों से खिन्न हो जाना, उदास हो जाना, निराश हो जाना, क्रोधित हो जाना ही दु:ख का कारण है।
शिव प्रतीकों की व्याख्या
त्रिनेत्रधारी, त्रिशूलधारी, नीलकण्ठ नागों से भूषित एवं वृषभारूढ़ जैसे शिव के रूपों में पंच मुख, त्रिनेत्र, नागों से विभूषित, जटाजूटधारी, बैल पर आरूढ़, गंगा के धारणकर्ता शिव के इन अलंकरणों की अनेकानेक व्याख्याएं हैं।
शिवजी की तरह ज्ञान की गंगा में, भगवद चिन्तन की गंगा में और ईश्वर भजन की गंगा में नहाएं, तभी आप जीवन का आनन्द ले सकेंगे। ये महादेव नीलकंठ हैं। अमृत पीकर देवताओं के देव कहलाते हैं जो राष्ट्र, समाज, धर्म, सृष्टि और प्रकृति की रक्षा के लिए विष को भी पी गए, वो महादेव बन गए। बिना संघर्षों व दु:खों के कोई भी महान नहीं बन सकता।
शिव परिवार से शिक्षा
परिवार व समाज में सामंजस्य व सहजीवन आवश्यक है। भगवान शिव की गृहस्थी को ध्यान से देखें कि कितने विरोधाभासी लोग शांति से इस परिवार में रहते हैं। मां पार्वती का वाहन शेर है और शिवजी का नंदी है। शेर का भोजन है वृषभ, लेकिन यहां उनमें कोई संघर्ष या कलह नहीं है। स्वामी कार्तिकेय का वाहन मोर है और शिवजी के गले में सर्प हैं। मोर और सर्प में वैर है लेकिन, यहां ये साथ ही रहते हैं। गणेश जी का वाहन चूहा है और चूहा सर्प का भोजन है।
इस परिवार में सब शांति और सद्भाव, निर्वैर, बिना कलह के रहते हैं। मतभेद हो जाएं, कोई बात नहीं, मनभेद नहीं होना चाहिए। यदि सबकी स्वतंत्र चेतना का सम्मान करते हुए सबको स्नेह, सहकार व आदर देंगे तो हमारा घर भी शिवालय बन जाएगा। इस धरती पर भगवान शिव जैसा कृपालु, दयालु कोई दूसरा देव नहीं है। जल, दूध, वेलपत्र, प्रणाम मात्र से ही ये प्रसन्न होकर मनवांछित फल दे देते हैं। यद्यपि स्वयं अभाव में रहते हैं लेकिन भक्तों के सारे अभाव और कष्टों को हर लेते हैं और उन्हें परम वैभव प्रदान करते हैं।
(लेखक उदयपुर में पैसिफिक विश्वविद्यालय समूह के
अध्यक्ष-आयोजना व नियंत्रण हैं)
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