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राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति चुनाव : एकात्म भारत के लिए जरूरी ‘दो कदम’

राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पदों के चुनाव। इनमें से एक सम्पन्न हुआ, दूसरे के लिए प्रक्रिया जारी है। ऐसे में प्रश्न यह है कि चुनाव सिर्फ दो राजनीतिक पदों के लिए हुआ है, या राजनीति के दो ध्रुवों, दो धारणाओं के बीच हुआ है?

हितेश शंकर by हितेश शंकर
Jul 26, 2022, 12:59 pm IST
in भारत, सम्पादकीय
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राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पदों के चुनाव। इनमें से एक सम्पन्न हुआ, दूसरे के लिए प्रक्रिया जारी है। ऐसे में प्रश्न यह है कि चुनाव सिर्फ दो राजनीतिक पदों के लिए हुआ है, या राजनीति के दो ध्रुवों, दो धारणाओं के बीच हुआ है?

इसका एक अनुमान राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पदों के उम्मीदवारों से लगाया जा सकता है। राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस ने कोई भी नाम आगे नहीं किया। जो नाम ममता बनर्जी ने दिया, उसी पर कांग्रेस ने मुहर लगा दी। ऐसा लगता है कि यह चिंतनहीनता या किंकर्तव्यविमूढ़ता नहीं थी। अधिक संभावना इसी बात की है कि यह विकल्पहीनता की स्थिति थी। कांग्रेस द्वारा अतीत में जिन व्यक्तियों को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार-और अंतत: राष्ट्रपति बनाया गया है, उनमें से कम से कम दो-तीन नामों के चयन की स्थितियों को याद करना बहुत समीचीन है।

जैसे स्व. प्रणब मुखर्जी को जब राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया गया था, तब यह बात सार्वजनिक तौर पर कही जाती थी कि कुछ (विदेशी) शक्तियों को प्रणब मुखर्जी का रक्षा मंत्री रहना रास नहीं आ रहा था। इससे भी ज्यादा अहम रहा है, इस बार श्रीमती मार्गरेट अल्वा को उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया जाना। श्रीमती मार्गरेट अल्वा अपनी पुस्तक में कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व या प्रथम परिवार पर भ्रष्टाचार सहित कई गंभीर आरोप लगा चुकी हैं। कांग्रेस में इस तरह की गुस्ताखी तो क्या, साधारण हुक्मउदूली के लिए जरा भी गुंजाइश नहीं होती है। वे किसी दृष्टि से चर्चा में भी नहीं थीं। फिर उनके नाम का चयन किसने किया? क्या संचालन करने वाला कोई और है, जिसके पास ज्यादा बड़ा कम्प्यूटर है?

यह प्रश्न इसलिए समीचीन है, क्योंकि ‘ब्रेक इंडिया’ नाम से जानी जाने वाली शक्तियों और कांग्रेस का गठजोड़ बार-बार उजागर हो चुका है। अतीत का एक और ताजा प्रकरण महत्वपूर्ण है। कांग्रेस ने तीन राज्यपाल बनाए थे- एस.सी. जमीर, बूटा सिंह और सैयद सिब्ते रजी। तीनों को एक ही काम सौंपा गया था-अपने अपने राज्य में भाजपा या उसके द्वारा समर्थित सरकार गिराओ। तीनों ने बहुत नाम कमाया। और उनके राज्य थे-बिहार, गोवा और झारखंड।
इन तीनों राज्यों में साझी बात क्या थी? सिर्फ यह नहीं कि वहां भाजपा सरकारें बननी थीं। बल्कि एक और साझी बात यह कि तीनों राज्य ईसाई मिशनरियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण और संवेदनशील थे।

 जहां नेहरूवादी पारिस्थितिकीय तंत्र लगातार किसी न किसी तरह के विभाजन करता-कराता रहा है, भारत विरोधी भावनाओं के लिए गुंजाइश छोड़ता रहा है और उसके लिए वहां विकास की कमी को एक प्रमुख तर्क के रूप में पेश करता रहा है, तो आप द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति चुने जाने से भारत की एकात्मता की इस लगातार प्रबल होती धारा की कलकल स्वयं सुन सकेंगे।

अब फिर उस वाक्य पर लौटें- ‘ब्रेक इंडिया’ शक्तियों और कांग्रेस का गठजोड़ बहुत गहरा है, और बार-बार उजागर हो चुका है।
इन भारत विरोधी शक्तियों के रचाये और नेहरूवाद के साये में पले नितांत झूठे नैरेटिव्स में से एक है- ‘आदिवासी’। इनकी नजर में वनों में निवास करने वाला हर व्यक्ति न केवल आदिवासी है, भारत का मूल निवासी है (माने बाकी सब बाहर से आए हैं) और वह हिन्दू नहीं है। इस नैरेटिव पर सवार होकर, सरकारी मदद, बाकी तंत्र, पैसा और नक्सली आदि मिल कर भारत में बड़े पैमाने पर वनवासियों को ईसाई बनाने की कोशिश करते रहते हैं।

ऐसे में डॉ. द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति चुना जाना भारत का विभाजन करने और उसके लिए भारत के समाज में फूट के बीज डालने वाली शक्तियों के मुंह पर एक करारा तमाचा है। एनडीए के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में द्रौपदी मुर्मू देश भर के वनवासियों को यह बेहद सकारात्मक संकेत भेजने में सफल रही हैं कि वे इस देश की मुख्यधारा का हिस्सा हैं। अब इन विघटनपरक शक्तियों को जवाब देने के लिए उनके पास एक सहज तर्क है।

वास्तव में यदि आप पूर्वोत्तर में विकास के लिए प्रधानमंत्री के विशेष आग्रह को भी साथ में देखें, जहां नेहरूवादी पारिस्थितिकीय तंत्र लगातार किसी न किसी तरह के विभाजन करता-कराता रहा है, भारत विरोधी भावनाओं के लिए गुंजाइश छोड़ता रहा है और उसके लिए वहां विकास की कमी को एक प्रमुख तर्क के रूप में पेश करता रहा है, तो आप द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति चुने जाने से भारत की एकात्मता की इस लगातार प्रबल होती धारा की कलकल स्वयं सुन सकेंगे।

एकात्मता की धारा का एक और प्रबल प्रतिरोधी है- भारत विरोधी शक्तियों का पारिस्थितिकीय तंत्र। यह तंत्र हर हथकंडे के प्रयोग में सक्षम-समर्थ है। इन तौर-तरीकों में से दो सबसे महत्वपूर्ण तरीके हैं- कानूनों का अपनी सुविधानुसार प्रयोग करना। इसमें किसी कानून के सत्यपरक आग्रह की आवश्यकता नहीं होती है, बल्कि उसकी मनमानी व्याख्या होती है और उस व्याख्या का ऐसा प्रचार होता है, जैसे वही सत्य हो। आप अंतुले प्रकरण याद कीजिए। सत्य को लावारिस छोड़ दिया गया था और बात कानूनों की मनमानी व्याख्या पर आ चुकी थी। भ्रष्टाचार सहित, देश में ऐसी अनेक अनियमितताओं को संरक्षण इसी पारिस्थितिकीय तंत्र ने प्रदान किया
हुआ है।

ए.आर. अंतुले प्रकरण की एक सीख यह है कि अंतुले जैसों को घुटनों के बल लाने के लिए आपमें राम नाईक और राम जेठमलानी जैसा दमखम और सुदृढ़ता होनी चाहिए। वास्तव में वह दमखम और सुदृढ़ता किसी व्यक्ति का लक्षण होना, पर्याप्त नहीं होता है। उसे एक संस्थागत स्वरूप के तौर पर स्थापित भी किया जाना चाहिए।

पूरे देश को विश्वास है कि श्री जगदीप धनखड़ का उपराष्ट्रपति पद पर निर्वाचन ऐसी सुदृढ़ता और दमखम में वैसे ही उत्साह का संचार करेगा, जैसा द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति पद पर निर्वाचन देश की एकात्मता के लिए कर रहा है।
@hiteshshankar

Topics: उपराष्ट्रपति चुनावएकात्म भारतIntegral Indiaजगदीप धनखड़उपराष्ट्रपति पदराष्ट्रपति
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