श्रीलंका को गर्त में धकेलने के पीछे कुछ दर्जन एक्टिविस्टों की रणनीति सामने आई है। साथ ही लोगों को मुफ्तखोरी की आदत डालने वाली एवं भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी राजपक्षे सरकार भी देश को डुबाने की उतनी ही जिम्मेदार
श्रीलंका में अंतत: तख्तापलट हो गया। अब पूर्व हो गए राष्ट्रपति गोतबाया राजपक्षे को अंतत: कहां शरण मिलती है, कहां नहीं, यह महत्वपूर्ण नहीं रह गया है। लेकिन वास्तव में हमारी आंखों के सामने एक बहुत बड़ी घटना घटी है। तख्तापलट के साथ-साथ श्रीलंका एक पूरी तरह विफल राज्य भी सिद्ध हो चुका है। आर्थिक हालात तो पहले ही सबके सामने थे, अब संवैधानिक और विधिक स्थिति भी अपनी अस्थियों और पेशियों के बूते उठ खड़े होने में सक्षम नहीं रह गई है। श्रीलंका का मात्र राजनीतिक नेतृत्व ही नहीं, वहां का पुलिस तंत्र, सेना और बाकी व्यवस्थाएं भी पस्त हो चुकी हैं।
अगर हम यह मानकर चलें कि श्रीलंका की आर्थिक स्थिति ही सारे घटनाक्रम का मूल कारण है, तो भी इसमें निहित विदेशी प्रभावों को नकारा नहीं जा सकता। आखिर किसने कहा था कि वही करो, जिसका नतीजा अब सामने है? हम्बनटोटा तो बहुत दिनों से चीनी विस्तारवाद का प्रतीक बना हुआ था। किसने कहा था कि सिर्फ जैविक खेती करो? उसके लिए चीन से कथित जैविक उर्वरक आयात करो? और अगर वह जैविक उर्वरक के नाम पर गंदा, विषाक्त कचरा भेज दे, जिसे श्रीलंका के ही सीमा शुल्क अधिकारी लेने से मना कर दें, तो अपनी भ्रष्ट मजबूरी को उजागर हो जाने दो? फिर भी, तख्तापलट होना और पूरे देश की व्यवस्था का ठप हो जाना कोई सामान्य बात नहीं है।
आमतौर पर तख्तापलट होने की हर घटना के कुछ न कुछ निहित अर्थ होते हैं। कुछ बातों का प्रत्यक्ष प्रमाण होता है, जिसे ‘रंगे हाथ पकड़ा जाना’ कहते हैं। कुछ का परिस्थितिजन्य साक्ष्य होता है। ‘हाइब्रिड वारफेयर’ के इस युग में कई बार न तो कोई प्रत्यक्ष प्रमाण होता है और न कोई परिस्थितिजन्य साक्ष्य। चीजों को सिर्फ समझा जा सकता है।
यह सारा खेल सिर्फ कुछ दर्जन एक्टिविस्टों ने रचा था, जिसके मूल में एक कैथोलिक पादरी, एक बड़ी विज्ञापन फर्म में डिजिटल रणनीतिकार और एक लोकप्रिय नाटककार शामिल थे। उन्होंने तंबू में शिविर लगाया, रोजाना घंटों तक रणनीति पर विमर्श किया। ये लोग खुल कर प्रेस के सामने आए। खुद उनके शब्दों में-‘यह 50 प्रतिशत पूर्वचिन्तन और समन्वय था, 30 प्रतिशत लोगों की इच्छा थी और 20 प्रतिशत भाग्य।’
कैसे जमा हुई लाखों की भीड़
कुछ चीजों को समझने का प्रयास करें। कोलंबो में लाखों की भीड़ जुटना, वह भी तब, जब कहा जा रहा था कि लोगों के पास मोटरसाइकिल चलाने लायक भी पेट्रोल नहीं है, क्या कोई बहुत सहज-संभव स्थिति है?
क्या इस भीड़ की आड़ में कुछ लोगों का श्रीलंका के सरकारी प्रतिष्ठानों, खासतौर पर राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री के निवास पर और अन्य ठिकानों पर आक्रमण करना, प्रमुख सरकारी भवनों और आवासों पर कब्जा करना, अमेरिका में ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन की हू-ब-हू कॉपी नजर नहीं आता, जिसमें सीधे कैपिटल हिल पर ही हमला कर दिया गया था?
तख्तापलट करना हाइब्रिड वारफेयर का एक खास शगल है। लेकिन श्रीलंका में जो हो रहा है, वह हाइब्रिड वारफेयर होने के बावजूद बहुत अनूठा है। यह कुछ ऐसा ही है, जैसे चर्च खुद सामने आकर कहे कि हां, तमिलनाडु के तूतीकोरिन स्थित वेदांता के स्टरलाइट कॉपर स्मेल्टिंग संयंत्र को बंद कराने के लिए दंगा आयोजित करने का काम उसने किया था। वह भी कम्युनिस्टों की तरह किसी ‘ऐतिहासिक भूल’ वगैरह जैसे नहीं, बल्कि उसी समय।
एक संवाद एजेंसी ने खबर दी है कि यह सारा खेल सिर्फ कुछ दर्जन एक्टिविस्टों ने रचा था, जिसके मूल में एक कैथोलिक पादरी, एक बड़ी विज्ञापन फर्म में डिजिटल रणनीतिकार और एक लोकप्रिय नाटककार शामिल थे। उन्होंने तंबू में शिविर लगाया, रोजाना घंटों तक रणनीति पर विमर्श किया।
स्वाभाविक है, किसी ने तो रणनीति बनाई ही होगी, लेकिन असली खबर यह है कि ये लोग खुल कर प्रेस के सामने आए, और कम से कम एक परत सार्वजनिक हो जाने दी। खुद उनके शब्दों में-‘यह 50 प्रतिशत पूर्वचिन्तन और समन्वय था, 30 प्रतिशत लोगों की इच्छा थी और 20 प्रतिशत भाग्य।’
उन्हीं के शब्दों में-‘यह एक बहुआयामी आंदोलन था, इसमें आनलाइन अभियान था, सोशल मीडिया का उपयोग था, राजनीतिक दलों, श्रमिक संघों और छात्र समूहों के साथ बैठकें और घर-घर प्रचार अभियान को अंतिम रूप देने के लिए सड़कों पर पर्याप्त लोगों को वापस लाने के लिए एक योजना थी।’
यह वह 50 प्रतिशत था, जिसका परिणाम कोलंबो में लाखों लोगों के सड़कों पर उतर आने के रूप में निकला। पुलिस के साथ झड़पें, उसे कर्फ्यू वापस लेने के लिए बाध्य करना, प्रदर्शनकारियों का सरकारी इमारतों पर कब्जा कर लेना आदि सब कुछ वैसे ही था, जैसा कि पहले भी, टुकड़े-टुकड़े रूप में विश्व में अन्य स्थानों पर देखा जा चुका है।
यह पटकथा कितनी सशक्त थी, इसका अनुमान ऐसे लगाया जा सकता है कि रणनीतिकारों ने उन विपक्षी राजनीतिक दलों से संपर्क नहीं किया, जो सर्वदलीय सरकार बनाने के हामी थे। ट्रेड यूनियनों के अलावा उन्होंने उस इंटर यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स फेडरेशन (आईयूएसएफ) नामक छात्र संगठन से समर्थन लिया, जो हिंसक आंदोलनों के लिए जाना जाता है।
रणनीतिकारों ने यह तक गणना कर ली थी कि राष्ट्रपति निवास के चार प्रवेश बिंदुओं में से प्रत्येक की रखवाली करने वाले कर्मियों पर काबू पाने में लगभग कितने लोग लगेंगे।
जाहिर है, सरकार या तो इससे निपट नहीं पाई, या उसमें इसकी इच्छाशक्ति ही नहीं रह गई थी। यहां सीधा प्रश्न पैदा होता है कि क्या आर्थिक स्थितियां तख्तापलट का कारण थीं या आर्थिक स्थितियों ने वह बहाना पैदा कर दिया, जिसने तख्तापलट को बेहद आसान बना दिया था?
जर्जर थी आर्थिक स्थिति
श्रीलंका की आर्थिक स्थितियों पर एक नजर डालना जरूरी है। श्रीलंका अपना विदेशी ऋण चुकाने के लिए अधिकांशत: वाणिज्यिक दरों पर बाजार से उधार लेता आ रहा था। यह स्थिति तेजी से उसके नियंत्रण के बाहर होती जा रही थी। इसके सकल घरेलू उत्पाद में ऋण का अनुपात 2010 में 36 प्रतिशत से बढ़कर 2015 तक 94 प्रतिशत हो गया, पिछले वर्ष यह 110 प्रतिशत से भी अधिक हो चुका था। अंतत: 2017 में श्रीलंका इस बात के लिए मजबूर हो गया कि वह चाइना मर्चेंट्स पोर्ट को 1.1 अरब डॉलर के बदले हम्बनटोटा बंदरगाह 99 साल के पट्टे पर सौंप दे। यह 1.1 अरब डॉलर हाथ में आते ही वह चीन और अन्य ऋणदाताओं का ऋण चुकाने में तुरंत स्वाहा हो गया।
पटकथा कितनी सशक्त थी, इसका अनुमान ऐसे लगाया जा सकता है कि रणनीतिकारों ने उन विपक्षी राजनीतिक दलों से संपर्क नहीं किया, जो सर्वदलीय सरकार बनाने के हामी थे। ट्रेड यूनियनों के अलावा उन्होंने उस इंटर यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स फेडरेशन (आईयूएसएफ) नामक छात्र संगठन से समर्थन लिया, जो हिंसक आंदोलनों के लिए जाना जाता है
श्रीलंका की आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था का इतना तीव्र विघटन हुआ है, जिसे अब स्थानीय तौर पर आसानी से सुधार पाना संभव नहीं है। भारत ने श्रीलंका को ‘सॉफ्ट लोन’ और सहायता के तौर पर लगभग करीब 4 अरब डॉलर दिए हैं-लेकिन यह स्पष्ट है कि यह दीर्घकालिक समाधान नहीं है।
यह निश्चित रूप से एक पहलू है कि इससे चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के जरिए एशिया और अफ्रीका में चीनी साम्राज्यवाद की मुहिम को एक झटका लगा है। लेकिन यह झटका कितना वास्तविक है, यह कह सकना आसान नहीं है। कारण यह कि अराजकता के जरिए तख्तापलट का हथकंडा पुराना है और नई सत्ता किसके हाथ में जाएगी, यह तय कर सकना सहज नहीं है।
क्या हैं विकल्प
श्रीलंका के नागरिकों के पास अब बहुत सीमित विकल्प नजर आ रहे हैं। श्रीलंका के नेता ही नहीं, नागरिक भी काफी समय से एक के बाद एक कई गलतियां करते आ रहे हैं। उन्हें अपने नेताओं के भ्रष्टाचार का अंदाजा था। उन्हें पता था कि किस तरह हम्बनटोटा पर बंदरगाह सिर्फ इसलिए बनाया जा रहा है, क्योंकि 1970 के दशक में, महिंदा राजपक्षे के पिता डॉन एल्विन राजपक्षे की इच्छा थी कि उनके गृह जिले हम्बनटोटा में एक बंदरगाह बनाया जाए। ‘बाबूजी चाहते थे’जैसे। बाकी काम उधार के पैसों और संभावित भ्रष्टाचार ने किया।
पिछले कम से कम दो वर्ष से श्रीलंका के नागरिक बहुत सारी चीजें मुफ्त में देने की सरकारी योजनाओं का आनंद लेते आ रहे थे। 2019 में श्रीलंका में राजपक्षे सरकार ने देश में करों में भारी कटौती की। यह कार्य आम नागरिकों की इच्छा के अनुरूप था, क्योंकि राजपक्षे इसका वादा करके चुनाव जीते थे। इस टैक्स कटौती ने देश की राजकोषीय और ऋण स्थिरता को कमजोर ही नहीं, लगभग समाप्त कर दिया। परिणाम यह हुआ कि एसएंडपी ग्लोबल रेटिंग्स और फिंच रेटिंग्स ने श्रीलंका को ‘डाउनग्रेड’ कर दिया।
उसके बाद जैविक उर्वरक का उपयोग, कंपनियों को एफडीआई आकर्षित करने के लिए कर में छूट जैसी कुछ अन्य नीतियां बनाई गई। अंधाधुंध परिवारवाद को भी श्रीलंका के समूचे पतन के लिए जिम्मेदार माना जाता है। राजपक्षे परिवार के सदस्य ही सरकार में प्रमुख पदों पर थे, और इस परिवार से करीबी संबंधों वाले लोगों को ही शीर्ष नौकरशाहों के रूप में नियुक्त किया गया था। सरकार ने एक परिवार की खातिर प्रतिभा की जिस तरह उपेक्षा की थी, उस कारण भी श्रीलंका की अर्थव्यवस्था से लेकर प्रशासन और नीतियों का प्रबंधन कमजोर होता गया।
मुफ्त का लालच
श्रीलंका के नागरिक अच्छी तरह से जानते थे कि राजपक्षे ने अतीत में क्या किया है, इसके बावजूद उन्होंने मुफ्त माल के लोभ में आकर राजपक्षे को वोट दिया। राजपक्षे सरकार ने सभी उत्पादों पर उनका जीएसटी घटाकर 8 प्रतिशत कर दिया, जिससे एक झटके में सब कुछ सस्ता हो गया (इससे सरकारी राजस्व भी समाप्त हो गया), लेकिन लोगों को सस्ती चीजें पसंद आ रही थीं।
श्रीलंका के नागरिक बखूबी जानते थे कि राजपक्षे ने अतीत में क्या किया है, इसके बावजूद उन्होंने मुफ्त माल के लोभ में आकर उन्हें वोट दिया। राजपक्षे सरकार ने सभी उत्पादों पर उनका जीएसटी घटाकर 8 प्रतिशत कर दिया, जिससे एक झटके में सब कुछ सस्ता हो गया (इससे सरकारी राजस्व भी समाप्त हो गया), लेकिन लोगों को सस्ती चीजें पसंद आ रही थीं
न्यूनतम आयकर सीमा 5 लाख रुपए प्रतिवर्ष से बढ़ाकर 30 लाख रुपए कर दी गई। श्रीलंका में 30 लाख रुपए से अधिक आमदनी वाले बहुत कम लोग थे, इस तरह व्यावहारिक तौर पर आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा कर मुक्त हो गया। जो 30 लाख रुपए से अधिक आय वाले थे, उनके लिए भी अधिकतम व्यक्तिगत कर की ऊपरी सीमा 15 प्रतिशत थी। राजपक्षे सरकार ने 2 प्रतिशत राष्ट्र निर्माण कर सहित सात अन्य करों को समाप्त कर दिया। पांथिक संस्थानों पर लगाए गए विभिन्न करों को समाप्त करने का वादा किया गया था। जवाब में श्रीलंका के शक्तिशाली बौद्ध भिक्षुओं ने चुनाव के समय राजपक्षे के लिए प्रचार किया।
चाय श्रमिकों की दैनिक न्यूनतम मजदूरी को बढ़ाकर 1,000 रुपए कर दिया गया। तुरंत उनके सभी वोट मिल गए। इसी तरह निजी कंपनी के कर्मचारियों के लिए न्यूनतम वेतन 12,500 रुपए प्रति माह निर्धारित किया गया था। ईंधन की कीमतों को कृत्रिम रूप से कम रखा गया था। श्रीलंका भारत से पेट्रोल खरीदता है, लेकिन इसे वह भारत से कम कीमतों पर बेचता रहा-भारत के हैप्पीनेस इंडेक्स ब्रिगेड की ‘हैप्पीनेस’ की एक खास वजह। श्रीलंका में पेट्रोल की बिक्री से सरकार को धेला भर भी राजस्व नहीं मिलता था।
लिहाजा, पिछले दो वर्ष से श्रीलंका के लोग इतनी सारी चीजें मुफ्त में पाने के आदी हो गए हैं और अब समय इसकी कीमत चुकाने का है। अब उनके सामने विकल्प यह है कि या तो वे अपनी आर्थिक बदहाली का बहादुरी से सामना करें या पुलिस और सेना का मुकाबला करें। और तीसरा यह कि किसी चमत्कार की प्रतीक्षा करें। हालांकि अब नया वादा करने वाला कोई राजपक्षे वहां उपस्थित नहीं है।
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