सावन में शिवभक्ति की अविरल धारा बहती है। सांस्कृतिक चेतना की वाहक कांवड़ यात्राएं गुरू पूर्णिमा के बाद देश के प्रमुख शिव तीर्थ के लिए आरंभ हो जाती हैं। ज्योतिषीय मान्यता के अनुसार हिंदू पंचांग के बारह मासों में पांचवें महीने सावन की उत्पत्ति श्रवण नक्षत्र से हुई है। ऋषि मनीषा कहती है कि मन ही मोक्ष और बंधन का कारण है। इसे श्रावण में ज्ञानयोग की साधना से ही साधा जा सकता है। इसके लिए गुरुपूर्णिमा से श्रावणी पूर्णिमा तक शास्त्रों के सत्संग, प्रवचन व धर्मोपदेश सुनने व चिंतन-मनन का विधान हमारे मनीषियों ने बनाया। सावन के पहले पखवाड़े में त्रयोदशी के दिन भगवान शंकर का जलाभिषेक होता है; इसलिए श्रद्धालु अपनी सहूलियत के अनुसार यह यात्रा इस तरह शुरू करते हैं ताकि निश्चित तिथि तक अपने इष्ट मंदिर में पहुंच जाएं। आम भारतीय जनमानस में भगवान शिव के प्रति कितनी गहरी आस्था है, इसका अनुमान श्रावण मास की कांवड़ यात्राओं के उत्साह को देखकर सहज ही लगाया जा सकता है। कांवड़ यात्रा भगवान शिव की आराधना का एक शास्त्रीय रूप है। मान्यता है कि इस यात्रा के जरिए जो भक्त भोले शिव की आराधना कर लेता है, वह सांसारिक कष्टों से मुक्त होकर शिवकृपा का अधिकारी बन जाता है।
इन कांवड़ों को पूरी श्रद्धा से अपने कंधों पर धारण करने वाले शिवभक्त भगवा यानी गेरुआ रंग के वस्त्र ही धारण करते हैं क्योंकि भारतीय दर्शन में भगवा रंग को त्याग, वैराग्य, बलिदान, पवित्रता, ओज, साहस, आस्था और गतिशीलता का प्रतीक माना गया है। कंधे पर कांवड़ उठाए, गेरुआ वस्त्र पहने, कमर में अंगोछा और सिर पर पटका बांधे, नंगे पैर चलने वाले देवाधिदेव शिव के इन समर्पित भक्तों में युवा व किशोर ही नहीं, बाल, वृद्ध व स्त्री पुरुष सभी शामिल रहते हैं। शिवभक्तों का यह स्वतः स्फूर्त जनसमूह राष्ट्र की सामाजिक समरसता का ऐसा अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करता है जिसमें गरीब-अमीर, अगड़े-पिछड़े, छोटे-बड़े, ऊंच-नीच सब एकरस हो उठते हैं। कांवड़ को कंधे पर उठाते ही राग-द्वेष, ऊंच-नीच, भाषा-क्षेत्र, अमीर-गरीब और स्त्री-पुरुष, के सारे भेद मिट जाते हैं। इस लम्बी यात्रा के दौरान शिव भक्त को संयम से आत्मनिरीक्षण करने का दुर्लभ अवसर मिलता है। ब्रह्मचर्य, शुद्ध विचार, सात्विक आहार और नैसर्गिक दिनचर्या कांवरियों को हलचल भरी अशांत दुनिया से कहीं दूर ले जाते हैं।
कौन था पहला कांवड़िया
हमारे देश में कांवड़ यात्राओं का इतिहास बहुत पुराना है। पौराणिक मान्यता है कि त्रेतायुग में महान मातृ-पितृ भक्त युवा श्रवण कुमार ने अपने दृष्टिहीन माता-पिता को कांवड़ में बैठकार चारों धाम की तीर्थयात्रा करायी थी। इसीलिए उन्हें पहला कांवड़िया माना जाता है। लेकिन जहां तक बात शिव अभिषेक की है तो इसका गौरव महर्षि परशुराम को जाता है जिन्होंने कांवड़ में जल भरकर सर्वप्रथम श्रावण मास में भोलेशंकर को अर्पित किया था, तभी से कांवड़ियों द्वारा जलाभिषेक की परम्परा शुरू हो गयी। एक अन्य पुरा कथा के मुताबिक रावण ने वैद्यनाथ में ज्योर्तिलिंग को स्थापित कर सबसे पहले कांवड़ से जलाभिषेक किया था। आनंद रामायण में मर्यादा पुरुषोत्तम राम द्वारा सदाशिव को कांवड़ चढ़ाने का उल्लेख मिलता है। इसी तरह रुद्रांश हनुमान द्वारा भोलेशंकर के अभिषेक के भी पौराणिक विवरण मिलते हैं। संभवतया इन्हीं पुरा कथाओं से प्रेरित होकर देवाधिदेव के अभिषेक की यह परम्परा शुरू हुई होगी।
कांवड़ियों के चार स्वरूप
कांवड़ों के चार प्रकार होते हैं- सामान्य कांवड़, डाक कांवड़, खड़ी कांवड़ और दंडी कांवड़। सामान्य कांवड़िए यात्रा की अवधि में जब और जहां चाहे रुक कर विश्राम कर सकते हैं। विश्राम की अवधि में कांवड़ स्टैंड पर रखा जाता है ताकि उसका स्पर्श जमीन से न हो सके। दूसरे प्रकार के भक्त “डाक कांवड़िया” कहलाते हैं। ये कांवड़ यात्रा के आरंभ से शिव के जलाभिषेक तक अनवरत चलते रहते हैं। बगैर रुके और अपने निर्धारित शिवधाम तक की यात्रा एक निश्चित अवधि तय करते हैं। इस दौरान शरीर से उत्सर्जन की क्रियाएं तक वर्जित होती हैं। तीसरे प्रकार के भक्त “खड़ी कांवड़” लेकर चलते हैं। इस दौरान उनकी मदद के लिए कोई-न-कोई सहयोगी उनके साथ चलता है। जब वे आराम करते हैं, तब सहयोगी अपने कंधे पर उनका कांवड़ लेकर कांवड़ को चलने के अंदाज में हिलाते-डुलाते रहते हैं। चौथे प्रकार के भक्त “दंडी कांवड़िए” कहलाते हैं। ये शिवभक्त नदी तट से शिवधाम तक की यात्रा अर्थात पूर्ण कांवड़ पथ की दूरी को अपने शरीर की लंबाई से लेटकर नापते हुए पूरी करते हैं। यह बेहद मुश्किल यात्रा होती है और इसमें एक महीने तक का वक्त लग जाता है। इस यात्रा में बिना नहाए कांवर यात्री कांवड़ को नहीं छूते। तेल, साबुन, कंघी की भी मनाही होती है। यात्रा में शामिल सभी एक-दूसरे को भोला, भोली या बम कहकर ही बुलाते हैं।
कांवड़ यात्रा से जुड़े कुछ दिलचस्प तथ्य
यूं तो कांवड़ यात्रा से जुड़ी तमाम जानकारियों से हम सब भली भांति परिचित हैं लेकिन इस यात्रा से जुड़ी अनेक ऐसी बातें हैं जिनसे कम ही लोग परिचित होंगे। कांवड़िए जब घर से निकलते हैं तो अपनी बहन से टीका कराकर चलते हैं और लौटने पर बहनें ही भाइयों की आरती उतारती हैं तभी वे घर में आते हैं। कांवड़ियों के घर पहुंचने तक उनके घरों पर बिना छौंक के साग सब्जी बनती है। कहते हैं छौक लगाने से उनके पैरों में छाले पड़ जाते हैं। जब तक कांवड़िए घर पर नहीं आते तब तक उनके घरों में भोले व माता गंगा के गीत भजन गाये जाते हैं और रात में खील, बताशे के प्रसाद बांटे जाते हैं। कांवड़िए अपनी कांवड़ को बेहद सम्मान देते हैं। उसका भूमि पर छूना भी पाप समझते हैं। दैनिक कर्म करते समय कांवड़ दूसरे साथी को पकड़ा दी जाती है। अगर कोई उपलब्ध नहीं है तो उस अवस्था में कांवड़ किसी पेड़ के ऊपर टांग दिया जाता है।
सावन-कांवड़ और शिवतत्व का दर्शन
प्रकृति के सबसे खूबसूरत मौसम में जब चारों तरफ हरियाली छाई रहती है तो हमें विश्व कल्याण के महानतम देवता की शिक्षाओं का श्रवण, मनन व अनुसरण करना चाहिए; यही है श्रावण मास में महादेव को अभिषेक और शिवपूजा का मर्म। इसीलिए हमारी सनातन भारतीय संस्कृति में श्रावण मास को आत्मोत्थान की साधना का सर्वाधिक फलदायी अवसर माना गया है। शिव यानी समष्टि के कल्याण के लिए समुद्र मंथन में निकले प्रलयंकारी हलाहल को कंठ में धारण कर लेने वाली महानतम देवशक्ति।
शिव तत्व के समान इस कांवड़ यात्रा का दर्शन भी विलक्षण है। कांवड़ क्या है? वैज्ञानिक अध्यात्म के प्रणेता पं. श्रीराम शर्मा आचार्य ने इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है कि “क” ब्रह्म का रूप है और “अवर” शब्द जीवन के लिए प्रयुक्त होता है। इस तरह “कावर” का अर्थ हुआ वह माध्यम जो “जीव” का “ब्रह्म” से मिलन कराये।
कांवड़ यात्री भोलेनाथ को जल चढ़ाने के लिए पैदल चलते हैं। पैदल चलने से हमारे आसपास के वातावरण की कई चीजों का सकारात्मक प्रभाव हमारे मन मस्तिष्क पर पड़ता है। चारों तरफ फैली हरियाली आंखों की रोशनी बढ़ाती है। बारिश की बूंदें नंगे पैरों को ठंडक देती हैं। धार्मिक आस्थाओं के साथ सामाजिक सरोकारों से रची बसी कांवड़ यात्रा जल संचय की अहमियत को भी उजागर करती है। इस यात्रा की सार्थकता तभी है जब आप वर्षा जल को संचित कर अपने खेत खलिहानों और पेड़ पौधों की सिंचाई करें तभी पर्यावरण पोषित होगा और प्रकृति की तरह उदार शिव सहज ही प्रसन्न होंगे।
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