किसी भी राष्ट्र के लिए राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक प्रतीकों का विशेष महत्त्व होता है। वे आस्था एवं श्रद्धा के केंद्रबिंदु तो होते ही हैं, सामूहिक पहचान एवं राष्ट्रीय अस्मिता के भी परिचायक होते हैं। लोक-स्मृतियां एवं परंपराएं इन्हें सहेजे चलती हैं और पीढ़ियां इनसे प्रेरित-अनुप्राणित होती हैं। ये प्रकारांतर से संस्कारों को सींचने तथा जीवन-मूल्यों को विकसित करने का माध्यम बनते हैं। हम अलोकधर्मी संस्कृति के वाहक हैं। हमारी जीवन-यात्रा अंधकार से प्रकाश की ओर प्रस्थान करती है। कदाचित इसीलिए भारतीय संस्कृति में दीपक का विशेष महत्त्व है और अपने किसी भी शैक्षिक-सांस्कृतिक आयोजन का शुभारंभ हम दीप-प्रज्ज्वलन से करते रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि पंथनिरपेक्षता की आड़ में अपने देश में अब दीप-प्रज्ज्वलन तक का विरोध किया जाने लगा है।
क्या धरती, आकाश, सूरज, चाँद, नदी, पर्वत, जल और प्रकाश जैसे प्राकृतिक उपादानों का भी भला कोई पंथ या मजहब हो सकता है? बल्कि इनका अपना अस्तित्व होता है, इनकी अपनी उपादेयता होती है। हाँ, विभिन्न सभ्यताओं द्वारा इन्हें देखने का एक भिन्न एवं विशेष दृष्टिकोण अवश्य होता है। जीवन और जगत को देखने का हम भारतीयों का भी अपना भिन्न एवं विशेष दृष्टिकोण है। उसे ही बृहत्तर परिप्रेक्ष्य में भारतीय या सनातन संस्कृति कहकर संबोधित किया जाता है। इन दिनों भारतीय संस्कृति में मान्य एवं प्रचलित ऐसे तमाम प्रतीकों को लांछित या अपमानित-अवमूल्यित करने का चलन-सा चल पड़ा है। इसीलिए केवल दीप-प्रज्ज्वलन ही क्यों, कभी सरस्वती पूजा, कभी गणेश-वंदना, कभी विद्यालयों में होने वाली प्रातः वंदना, कभी राष्ट्र-गान, कभी राष्ट्रगीत, कभी राष्ट्रीय ध्वज तो कभी अशोक-स्तंभ जैसे राष्ट्रीय प्रतीकों को लेकर भी अनावश्यक विवाद पैदा किया जाता है या जान-बूझकर इनकी उपेक्षा और अवमानना की जाती है।
राष्ट्रीय प्रतीक या युगों से चली आ रही सांस्कृतिक परंपरा को मजहबी या कथित पंथनिरपेक्षतावादी चश्मे से देखना न तो न्यायसंगत है, न ही विवेकसम्मत। कई बार ऐसे भी दृष्टांत सामने आए हैं कि किसी शुभ मुहूर्त या आयोजन के उपलक्ष्य पर बनाई जाने वाली रंगोली, उकेरे गए मांगलिक या स्वास्तिक चिह्न या नारियल आदि पर भी निरर्थक विवाद खड़े किए जाते हैं। यहाँ तक कि भारत माता की जय बोलने पर भी कई लोगों को आपत्ति होती है। जबकि यह सहज स्वीकार्य सिद्धांत होना चाहिए कि मजहब बदलने से पुरखे और संस्कृति नहीं बदलती। ये प्रतीक हमारे राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक जीवन के अभिन्न अंग हैं, न कि धार्मिक जीवन के। इनका संबंध पंथ विशेष की पूजा-पद्धत्तियों या मान्यताओं से न होकर राष्ट्र की अविच्छिन्न परंपराओं एवं संस्कृति से है, जीवन और जगत को देखने के चिरंतन व शाश्वत दृष्टिकोण से है।
इंडोनेशिया का उदाहरण हमारे सामने है। सर्वाधिक जनसंख्या वाला मुस्लिम देश होने के बावजूद उन्होंने अपनी संस्कृति नहीं बदली। उन्होंने अपनी सार्वजनिक संस्थाओं एवं उपक्रमों के नाम पूर्ववत व पारंपरिक ही रखे। उनकी विमान-सेवा का प्रतीक-चिह्न (लोगो) ‘गरूड़’ है। उनकी जलसेना का ध्येय वाक्य “जलेष्वेव जयामहे” यानी ‘जल में ही जीतना चाहिए’ है। रामायण और रामलीला वहां अत्यंत लोकप्रिय है। एक इस्लामिक देश में यदि यह सब संभव है तो भारत में इन पर अनावश्यक विवाद क्यों? जबकि पंथनिरपेक्षता के तमाम झंडाबरदार यहां आए-दिन कथित ‘गंगा-जमुनी’ तहजीब की डफली बजाते रहते हैं। ऐसे विवादों को हवा देते समय वे यह भूल जाते हैं कि इन सबसे सामाजिक वातावरण तो विषाक्त होता ही है, सबको साथ लेकर चलने वाली सर्वसमावेशी सनातन संस्कृति की मज़बूत धारा भी कमजोर पड़ती है।
ऐसा ही एक विवाद तब सामने आया, जब गत वर्ष बिहार विधानसभा अध्यक्ष विजय कुमार सिन्हा ने सार्थक पहल करते हुए यह निर्णय लिया कि सत्र की शुरुआत राष्ट्रगान तथा अंत राष्ट्रगीत से किया जाएगा। परंतु इस सार्थक पहल पर भी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के विधायकों को आपत्ति थी। न केवल आपत्ति थी, बल्कि उन्होंने शीतकालीन एवं बजट सत्र के समापन पर राष्ट्रगीत गाने से मना कर दिया। उससे पूर्व 2013 (बसपा) और 2019 में समाजवादी पार्टी के सांसद डॉ शफीकुर्रहमान बर्क भी राष्ट्रगीत का सार्वजनिक बहिष्कार एवं अपमान कर चुके हैं। एआईएमआईएम के नेता असदुद्दीन ओवैसी तो खुले मंच से घोषणा करते रहे हैं कि वे ‘भारत माता की जय’ नहीं बोलेंगे। क्या यह भी बताने की आवश्यकता है कि स्वतंत्रता के लिए किए गए विभिन्न आंदोलनों में ‘वंदे मातरम’ गीत की अत्यंत महती भूमिका थी? ‘वंदे मातरम’ एवं ‘भारत माता की जय’ बोलने से नाक-भौं सिकोड़ने वाले नेताओं एवं कथित पंथनिरपेक्षतावादियों को सदैव स्मरण रखना चाहिए कि इन्हीं ध्येय-वाक्यों एवं जयघोषों ने हजारों युवाओं के भीतर मातृभूमि के लिए प्राणोत्सर्ग की प्रेरणा जगाई थी।
कुछ वर्ष पूर्व प्रयागराज से राष्ट्रगान से संबंधित एक मामला भी प्रकाश में आया था। वहाँ एक कॉन्वेंट स्कूल में राष्ट्र गान पर रोक थी। जब मामले ने तूल पकड़ा तो पुलिस ने स्कूल प्रबंधक जिया उल हक को गिरफ्तार कर लिया। स्कूल में राष्ट्रगान नहीं होने देने के पीछे प्रबंधक जिया उल हक का तर्क था कि राष्ट्रगान में ‘भारत भाग्य विधाता’ शब्दों का गलत प्रयोग किया गया है। उन्हें इन शब्दों से घोर आपत्ति है। हक के अनुसार भारत में रहने वाले सभी लोगों के भाग्य का विधाता भारत कैसे हो सकता है? यह इस्लाम के विरुद्ध है। स्वस्थ मानसिकता वाले लोग क्या अपने ही राष्ट्रगान के प्रति ऐसा दृष्टिकोण रख सकते हैं?
हद तो तब हो गई जब 2019 में मध्यप्रदेश के सिंगरौली निवासी विनायक शाह द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर कर देश भर के केंद्रीय विद्यालयों की वंदना-सभा में प्रतिदिन गाए जाने वाले श्लोकों ”असतो मा सद्गमय..” तथा ‘ॐ सहनाववतु…” पर अविलंब रोक लगाने की माँग की गई। और उससे भी अधिक आश्चर्य तब हुआ, जब न्यायमूर्ति आर.एफ.नरीमन और न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा की पीठ ने याचिका का संज्ञान लेते हुए उसे पाँच न्यायाधीशों की संविधान-पीठ को सौंपने का निर्देश दिया। इनमें ऐसे शाश्वत मूल्य हैं, जो संपूर्ण मनुष्यता के लिए उपयोगी हैं। इनके मूल या स्रोत के आधार पर इन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या अल्पसंख्यक अधिकारों का हनन बताना मूढ़ता है। वह सब कुछ, जो संस्कृत में है, वह प्रकृति में भी पांथिक (रिलीजियस) हो, यह धारणा ही एकांगी एवं निराधार है। इस आधार पर तो कल को कोई यह भी दावा कर सकता है कि ‘ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी’ का सूत्र-वाक्य चूँकि अंग्रेजी में है, इसलिए यह ईसाईयत को आगे बढ़ाता है। सर्वोच्च न्यायालय में ‘यतो धर्मस्ततो जयः’ उच्च न्यायालय में ‘सत्यमेव जयते’ लिखा मिलता है और लगभग सभी शैक्षिक-सांस्कृतिक-राष्ट्रीय संस्थाओं के ध्येय-वाक्य संस्कृत में ही लिखे होते हैं तो क्या केवल इसी आधार पर इन संस्थाओं को ग़ैर-पंथनिरपेक्ष ठहराया-बताया जा सकता है? क्या यह उचित होगा? प्राप्त जानकारी के अनुसार अशोक स्तंभ के अनावरण-अनुष्ठान के सुअवसर पर सबसे पहला मंत्र ”ॐ वसुंधराय विद्महे भूतधत्राय धीमहि तन्नो भूमिः प्रचोदयात्” बोला गया। अब जो पृथ्वी सबका भरण-पोषण करती है, उससे आशीर्वाद की कामना भी भला हिंसक, संकीर्ण, अनुदार व सांप्रदायिक हो सकती है?
आकार-प्रकार, लंबाई-चौड़ाई, कम या अधिक खुले मुख के आधार पर नए संसद-भवन पर लगे अशोक स्तंभ की आलोचना करने वाले लोग जाने-अनजाने राष्ट्रीय चिह्न का अपमान कर रहे हैं। वे ‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी’ की उक्ति को चरितार्थ कर रहे हैं। वस्तुतः आवश्यकता इन प्रतीकों के पीछे की मूल भावना को समझने की है, न कि अन्यान्य कारणों से मीन-मेख निकालने या निरर्थक विवाद पैदा करने की। सच तो यह है कि राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक प्रतीकों पर छेड़ी गई निरर्थक एवं निराधार बहस अंततः राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को कमज़ोर करती है तथा सामाजिक सौहार्द्र को ठेस पहुँचाती है।
(लेखक शिक्षाविद एवं स्तंभकार हैं)
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