मोक्षस्वरूप, वेदस्वरूप, ईशान दिशा के ईश्वर और सबके स्वामी भगवान शिव का पावन माह सावन शुरू हो गया है। प्रचंड, रुद्ररूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, अखंड, अजन्मा, करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशवाले और प्रेम भाव के द्वारा प्राप्त होने वाले महादेव सभी दुखों को निर्मूल कर देते हैं।
रामचरित मानस में एक प्रसंग आता है। कागभुसुंडि जी गरुड़जी को कथा सुनाते हैं। कैसे एक बार अयोध्या में अकाल पड़ा और वह उज्जैन गए। उज्जैन में वह भगवान शंकर की आराधना करने लगे। एक दिन शिवमंदिर में वह भगवान शिव का नाम जप रहे थे। इसी दौरान उनके गुरु आए। उन्होंने अपने गुरु को न तो प्रणाम किया और न ही कोई अभिवादन। गुरु को कोई दुख नहीं हुआ और न ही लेशमात्र भी क्रोध आया। लेकिन गुरु का अपमान भगवान शिव के लिए असहनीय है। वह क्रोधित होते हैं और शिवजी के रौद्र रूप को देखकर गुरु के हृदय में संताप हुआ। उन्होंने शिव जी विनती की और रुद्राष्टक की रचना हुई। इसी रुद्र स्तुति में उल्लेख है कि – जो हिमाचल के समान गौरवर्ण तथा गंभीर हैं। जिनके शरीर में करोड़ों कामदेवों की ज्योति एवं शोभा है। जिनके सिर पर गंगा जी विराजमान हैं, जिनके ललाट पर द्वतीया का चंद्रमा और गले में सर्प सुशोभित हैं।… और जो प्रेम के द्वारा मिल जाते हैं। उन भगवान शिव को मैं भजता हूं।
चंद्रमा को ललाट पर स्थान देने वाले भगवान शिव का प्रथम ज्योर्तिलिंग सोमनाथ प्रभासतीर्थ (गुजरात) में है। सोमनाथ मंदिर राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़ा है। सज्जनों को सदा आनंद देने वाले भगवान शिव और चंद्रमा के संताप को हरने वाले भगवान सोमनाथ के मंदिर को आक्रांता महमूद गजनवी ने काफी नुकसान पहुंचाया, लेकिन राष्ट्रीय अस्मिता का ध्वज यहां आज भी फहरा रहा है।
पांचजन्य में वर्ष 2012 में एक लेख प्रकाशित हुआ था। उसमें वरिष्ठ इतिहासकार देवेन्द्र स्वरूप की पुस्तक ‘अयोध्या का सच’ के अंश थे। इस लेख के कुछ अंश प्रकाशित किए जा रहे हैं।
इस पवित्र तीर्थ (प्रभाषक्षेत्र) में मंदिर का सर्वप्रथम निर्माण कब हुआ, इसका निर्णय कर पाना इतिहासकारों के लिए संभव नहीं रहा। किन्तु सन् 1025 में महमूद गजनवी ने जिस मंदिर का विध्वंस किया उसकी विशालता, भव्यता तथा उसके धार्मिक महत्व का वर्णन गजनवी का समकालीन अलबरूनी करता है।
अलबरूनी लिखता है कि सोमनाथ पत्तन उस जगह स्थित है जहां प्राचीन वैदिक नदी सरस्वती समुद्र में गिरती है और जहां भगवान कृष्ण का देहोत्सर्ग हुआ था। अन्यत्र वह दक्ष प्रजापति द्वारा चंद्रमा को शाप देने की पौराणिक कथा का वर्णन करते हुए लिखता है कि चंद्रमा के बहुत याचना करने पर प्रजापति ने उपाय बताया कि शिवलिंग की प्रतिमा की पूजा करने से ही वह शापमुक्त हो सकेगा। तब चंद्रमा ने पत्थर का शिवलिंग स्थापित किया, जो ‘सोमनाथ’ कहलाया-सोम अर्थात् चंद्रमा का स्वामी।
— Shree Somnath Temple (@Somnath_Temple) July 14, 2022
अलबरूनी ने महमूद गजनवी द्वारा सोमनाथ मंदिर के विध्वंस का वर्णन करते हुए लिखा है कि ‘महमूद ने सोमनाथ मंदिर पर हमला 416 हिजरी या 947 शक काल में किया। उसने शिवलिंग के ऊपरी हिस्से को चूर-चूर करने का आदेश दिया और शेष भाग को उसके रत्नजड़ित, कसीदाकारी-युक्त मखमली गलीचों आदि के साथ गजनी भेजने का आदेश दिया। उसके कुछ भाग को गजनी शहर की मुख्य घुड़साल में रखवा दिया। कुछ भाग को गजनी की जामा मस्जिद के प्रवेश-द्वार पर फिंकवा दिया, ताकि वहां आने वाले श्रद्धालु उन्हें अपने पैरों से रौंदकर अपने तलवों में लगी गंदगी और कीचड़ को साफ कर सकें।’ सोमनाथ का मंदिर बार-बार बना, बार-बार तोड़ा गया। वह हमारी राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक चिन्ह बन गया। इसका पुनर्निर्माण का राष्ट्रीय स्वप्न देखा गया।
सरदार पटेल ने सोमनाथ मंदिर के पुननिर्माण का स्वप्न देखा और इसके निर्माण का संकल्प लिया। 8 मई, 1950 को जामसाहब ने चांदी के नंदी की स्थापना करके मंदिर का शिलान्यास किया। 19 अक्टूबर 1950 को पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने पांचवें मंदिर के ध्वंसावशेषों को हटाने का कार्य शुरू किया। लेकिन इसी बीच 15 दिसम्बर, 1950 को सरदार पटेल का निधन हो गया। सरदार पटेल के सपने को पूरा करना था, इसलिए कार्य तेजी से किया गया। केवल पांच माह में मंदिर की नींव तैयार कर ली गई। 11 मई, 1951 को गर्भगृह में शिवलिंग की प्राण-प्रतिष्ठा की गई। इसमें तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद जी शामिल हुए। यहीं पर उन्होंने लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि सोमनाथ का यह मंदिर आज फिर अपना मस्तक ऊंचा करके संसार के सामने यह घोषित कर रहा है कि जिसे जनता प्यार करती है, जिसके लिए जनता के हृदय में अक्षय श्रद्धा और स्नेह है, उसे संसार में कोई भी मिटा नहीं सकता। आज इस मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा पुन: हो रही है और जब तक इसका आधार जनता के हृदय में बना रहेगा तब तक यह मंदिर अमर रहेगा।
(नोट – पांचजन्य में वर्ष 2012 में प्रकाशित लेख से कई तथ्य लिए गए हैं)
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