गुरु पूर्णिमा अर्थात अंधकार से प्रकाश की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर यात्रा और स्वाभिमान को जाग्रत कराने वाले परम प्रवर्तक के लिये नमन दिवस । जो हमें अपने आत्मबोध, आत्मज्ञान और आत्म गौरव का भान कराकर हमारी क्षमता के अनुरूप जीवन यात्रा का मार्गदर्शन करें वे गुरु हैं । वे मनुष्य भी हो सकते हैं, कोई प्रतीक भी, अथवा संसार में कोई अन्य प्राणी भी हो सकते हैं। ज्ञान दर्शन कराने वाला वह कोई दृश्य भी हो सकता है, कोई घटना हो सकती है अथवा कोई ग्रंथ या ध्वज जैसा भी कोई प्रतीक हो सकता है। अपने इस ज्ञान दाता के प्रति आभार और उनके द्वारा दिये गये ज्ञान से स्वयं के साक्षात्कार करने की तिथि है गुरु पूर्णिमा।
देव शयन के बाद गुरु पूर्णिमा पहला बड़ा त्यौहार है, जिसे पूरे भारत में व्यापक रूप से मनाया जाता है। आषाढ़ माह की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाने का भी एक रहस्य है। भारत में प्रत्येक तीज त्यौहार के लिये तिथि का निर्धारण साधारण नहीं होता। प्रत्येक तिथि का अपना संदेश होता है। गुरु पूर्णिमा की तिथि का भी एक संदेश है। इसका निर्धारण एक बड़े अनुसंधान का निष्कर्ष है। वर्ष में कुल बारह पूर्णिमा आतीं हैं। इन सभी पूर्णिंमा में केवल आषाढ़ की पूर्णिमा ऐसी है जिसमें चंद्रमा का शुभ्र प्रकाश धरती पर नहीं आ पाता। या सबसे कम आता है। वर्षा के बादल चंद्रमा के प्रकाश का मार्ग अवरुद्ध कर देते हैं, एक प्रकार से चंद्रमा को ढक लेते हैं। यद्यपि अश्विन मास की पूर्णिमा सबसे धवल होती है। यदि ज्ञान गुरु का संबंध केवल ज्ञान और प्रकाश से होता तो अश्विनी मास की शरद पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा माना जा सकता था। लेकिन इसके ठीक विपरीत आषाढ़ की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा माना। इसका संदेश ज्ञान पर आनी वाली भ्रान्तियों को दूर करना भी है। जिस प्रकार आषाढ़ की पूर्णिमा को चन्द्र प्रकाश को रोकने वाले बादल स्थाई नहीं होते, अवरोध मौलिक नहीं होते, कृत्रिम होते हैं, जो समय के साथ छंट जाता है। ठीक इसी प्रकार मनुष्य की आँखों पर अज्ञान के बादल छाये रहते हैं। भीतर आत्मा तो परमात्मा का अंश है, जो ज्ञान और प्रकाश का पुंज है। पर मनुष्य का अज्ञान, अशिक्षा और भ्रांत धारणाओं की परतें आत्मा के ज्ञान को ढके रहती हैं। जिससे मनुष्य की प्रगति अवरुद्ध होने या उसके कुमार्ग पर चलने की आशंका हो जाती है। जिस प्रकार पवन देव बादलों को उड़ा ले जाते हैं, धरती और चन्द्रमा के बीच का अवरोध समाप्त कर देते हैं, और शुभ्र चंद्र प्रकाश पृथ्वी की मोहक छवि को पुनः उभारने लगता है उसी प्रकार मनुष्य के ज्ञान बुद्धि पर पड़े अवरोध स्वयं नहीं हटते उनके लिये कोई प्रयत्न चाहिए, कोई निमित्त चाहिए। जो इस अज्ञान की परत का क्षय कर सके, और स्वज्ञान का भान कराना सके।
व्यक्ति के स्वत्व से साक्षात्कार कराते हैं गुरु
अज्ञान का हरण कर स्वज्ञान के इस जाग्रत कर्ता को ही गुरु कहा गया है। यह गुरु की महिमा है, विशेषता है कि वह व्यक्ति के ऊपर अज्ञानता के अंधकार की ये सभी परतें हटाकर उसे उसके स्वत्व से साक्षात्कार कराता है। मनुष्य की विशिष्ठता को नये आयाम, नयी ऊंचाइयां देने में मार्ग दर्शन करता है। आषाढ़ की पूर्णिमा इसी का प्रतीक है। गुरुत्व परंपरा में एक बात और महत्वपूर्ण है। शिक्षक आचार्य और गुरु में अंतर होता है। शिक्षक गुरु तुल्य तो होता है पर गुरु नहीं होता। शिक्षक अस्थाई होते हैं, आचार्य पाठ्यक्रम में निधारित शिक्षा ही देते हैं । अपनी ओर से कुछ नया नहीं जोड़ते । लेकिन गुरु ऐसा नहीं करते। वे पहले शिष्य की प्राकृतिक प्रतिभा क्षमता रुचि का आकलन करते हैं, उसकी मौलिक प्रतिभा को जाग्रत करते हैं। फिर उसके अनुरूप पाठ्यक्रम का निर्धारण करते हैं। जैसे गुरु द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन तीनों को अलग-अलग अस्त्र शस्त्र में प्रवीण बनाया था। यह उनकी रुचि और प्राकृतिक क्षमता को ध्यान में रखकर निर्धारित किया था। एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से केवल चेहरे की बनावट, बोली, रुचि, पसंद नापसंद या डीएनए में ही अलग नहीं होता। वह प्राकृतिक विशेषता के रूप में पूरी तरह अलग होता है, विशिष्ट होता है। प्रकृति प्रत्येक व्यक्ति को उसकी प्रतिभा में विशिष्ट बनाती है। व्यक्ति की यह मौलिक प्रतिभा क्या है, क्षमता क्या है, मेधा क्या है और प्रज्ञा कैसी है। इसका आकलन गुरु करते हैं। और उस व्यक्ति को उसके मूल तत्व का आभास कराते हैं, उसके स्वत्व से साक्षात्कार कराते हैं। जिससे वह अपने जन्म जीवन को योग्य बनाता है। इस साक्षात्कार का स्मरण करने और इस साक्षात्कार के लिये स्वयं को योग्य बनाने के लिये गुरु के पास जाकर आभार व्यक्त किया जाता है इस तिथि को। गुरु इस दिन जीवन की आगामी अवधि में नये संकल्प लेने की प्रेरणा भी देते हैं। शिष्य गुरु की अभ्यर्थना करते हैं, वंदना करते हैं।
गुरु पूजन की परंपरा
गुरु पूजन की यह परंपरा कब से आरंभ हुई यह नहीं कहा जा सकता है। भारतीय वांड्मय में पीछे जितनी दृष्टि जाती है उतनी भारत में गुरु परंपरा के आख्यान मिलते हैं। परम गुरु भगवान शिव को माना गया है। आदि गुरु महर्षि कश्यप, देव गुरु बृहस्पति और दैत्य गुरु शुक्राचार्य माने गये हैं। इसके बाद विभिन्न ऋषियों राजकुलों के गुरु के रूप में उल्लेख मिलता है। राजकुलों में बीच-बीच में गुरु बदले भी हैं। यह वर्णन भी पुराणों में है। पौराणिक आख्यानों में केवल गुरु परंपरा का ही उल्लेख नहीं अपितु ऋषियों की ज्ञान सभा होने के भी उल्लेख हैं। आकस्मिक परिस्थितियों अथवा समय के साथ समाज के सामने आने वाली समस्याओं के समाधान खोजने के लिए ऐसी ज्ञान सभाएं हुआ करतीं थीं। आरंभिक काल में ऐसी ज्ञान सभाएं शिव निवास कैलाश पर्वत पर होती थीं । जिनमें ऋषिगण भाग लेते थे, वे शिवजी के सामने समाज की स्थिति का चित्रण करते थे फिर भगवान शिव समाधान सूत्र दिया करते थे । इसके बाद ऐसी ज्ञान सभाएं काशी में होने लगीं। ये सभाएं भी शिवजी के सभापतित्व में ही होतीं थीं। और आगे चलकर इन समाजों का केन्द्र नैमिषारण्य बना। यहाँ सभापतित्व का दायित्व ऋषियों के हाथ में आया। इन सभाओं का सभापतित्व सप्त ऋषियों में से कोई अथवा उनके द्वारा आमंत्रित कोई अन्य प्रमुख ऋषि किया करते थे। ये सभाएं चतुर्मास की अवधि में हुआ करतीं थीं जो आषाढ़ की पूर्णिमा से आरंभ होकर शरद पूर्णिमा तक निरंतर चला करतीं थीं। इन ज्ञान सभा परंपरा के शिथिल होने के बाद क्षेत्रीय सभाओं की परंपरा आरंभ हुई और इसी के साथ गुरु वंदन पूजन आरंभ हुआ। यद्यपि शंकराचार्य पीठ, महामंडेश्वर पीठ आदि प्रमुख गुरु स्थानों पर आज भी चतुर्मास में निरंतर व्याख्यान होने की परंपरा है पर समय के साथ यह सीमित हो रही है।
भगवान परशुराम बने थे महादेव के शिष्य
आषाढ़ की पूर्णिमा को गुरु महत्ता स्थापना की पहला विवरण त्रेता युग के आरंभ में मिलता है। इसी तिथि को भगवान् शिव ने भगवान् परशुराम जी को शिष्य के रूप में स्वीकार किया था। भगवान शिव के भक्त तो सभी हैं पर शिष्य अकेले परशुराम जी। और इसी तिथि से भगवान अमरनाथ के दर्शन आरंभ होने की परंपरा भी बनी। इसी तिथि को वशिष्ठ परंपरा में महर्षि व्यास का जन्म हुआ, जिन्होंने वेदों का भाष्य तैयार किया। इस प्रकार इस तिथि का महत्व बढ़ता गया । इस प्रकार हमें गुरु परंपरा और गुरु पूर्णिमा का उल्लेख हर युग में मिलता है।
यह ठीक है कि आरंभिक काल में गुरु परंपरा के वाहक अधिकांश ऋषिगण ही रहे हैं पर समय के साथ इस परंपरा का विस्तार हुआ। केवल ऋषि ही गुरु बनें यह बंधन कभी नहीं रहा। एक से अधिक गुरु और ऋषियों से इतर किसी प्रतीक या घटना को भी गुरु मानने की परंपरा रही है। यहां तक कि पशु पक्षी और सेवक के अतिरिक्त किसी प्रतीक जैसे यज्ञ, ग्रंथ और ध्वज को भी गुरु का मानने की परंपरा आरंभ हुई । भगवान् दत्तात्रेय जी के चौबीस गुरु, भगवान् परशुराम जी के सात गुरु राजा जनक के तीन गुरु होने का वर्णन मिलता है । भगवान् दत्तात्रेय की चौबीस गुरु संख्या में पृथ्वी, जल, अग्नि आकाश के अतिरिक्त मधु मक्खी, कुत्ता आदि पशु पक्षी भी हैं जिनसे उन्होंने कार्य संकल्प की सीख लेने का संदेश दिया। दैत्य गुरु शुक्राचार्य जी ने अपने पिता महर्षि भृगु के साथ यज्ञ को भी गुरु माना। राजा जनक के तीन गुरु संख्या में प्रतीक के रूप में वेद भी गुरु हैं, आगे चलकर राजा जनक ने अन्य राजाओं को वेदज्ञान दिया। ऋषिका देवहूति ने अपने पुत्र कपिल मुनि को गुरु रूप में स्वीकारा। आदि शंकराचार्य जी ने एक चांडाल को गुरु समान आदर दिया और पंचकम की रचना की । स्वामी विवेकानंद ने खेतड़ी की नृत्यांगना को मां कहा और गुरु का सम्मान दिया। इसी परंपरा के अंतर्गत राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने “ध्वज” को गुरु रूप में स्वीकारा।
संघ पूजन की परंपरा
संघ की स्थापना के तीन वर्ष बाद आरंभ यह ध्वज पूजन परंपरा पहली नहीं। राष्ट्र के स्वाभिमान के प्रतीक ध्वज वंदन की परंपरा आचार्य चाणक्य से आरंभ हुई थी । इससे पहले ध्वज नायक या राज्य की पहचान का प्रतीक थे, जैसे गरुड़ ध्वज नारायण की, अरुण ध्वज सूर्य की पहचान रहे हैं । इसी परंपरा के अंतर्गत आचार्य चाणक्य ने भगवा ध्वज को भारत राष्ट्र की पहचान और मान का प्रतीक प्रमाणित किया। ज्ञान के लिये शब्द और स्वर के साथ प्रतीक भी माध्यम होते हैं । जैसे छोटे बच्चे के सामने कबूतर या एप्पल का प्रतीक रखकर अक्षर ज्ञान कराया जाता है ठीक उसी प्रकार व्यक्ति, परिवार समाज और राष्ट्र संस्कृति के स्वत्व की पहचान का प्रतीक ध्वज होता है। गरुड़ ध्वज से नारायण और अरुण ध्वज से सूर्य की पहचान होती है उसी प्रकार भगवा ध्वज भारत राष्ट्र की पहचान है। भगवा अग्नि शिखा का रंग होता है। सूर्योदय की आभा ऊषा का रंग होता है जो समता समानता का द्योतक होता है। अग्नि सभी को एकसा ताप देती है। सूर्य सबको समान प्रकाश और ऊर्जा देता है।
संस्कृति के गौरव का सम्मान
स्वाभिमान के जागरण का प्रतीक ध्वज शब्द संस्कृत की “ध्व” धातु से बनता है। इसका आशय धरती की केन्द्रीभूत शक्ति होता है। इसे धारण करने के कारण ही ऋग्वेद में धरती के लिये “धावा” नाम आया है । भारतीय ध्वज का प्रतीक कोई राजनीतिक सीमा नहीं है। यह शिक्षा संस्कार, सात्विकता और स्वाभिमान का प्रतीक है। भारत ने पूरी धरती के निवासियों को एक कुटुम्ब माना। इसलिए भारत में कभी भी, किसी भी युग में राजनीतिक या साम्राज्य विस्तार के लिये कोई युद्ध नहीं किया। जो युद्ध हुये वे नैतिकता और संस्कृति की रक्षा के लिए हुये। वह भी आक्रामक नहीं सुरक्षात्मक हुये और तब हुये जब शाँति के सभी मार्ग अवरुद्ध हो गये। और युद्ध में सिद्धांत स्वाभिमान के साथ ध्वज का सम्मान सर्वोपरि रहा। ध्वज भूमि पर न गिरे इसके लिये कितने लोगों ने अपने प्राणों की आहुतियाँ दीं हैं यह हमने दाशराज युद्ध, राम रावण युद्ध, महाभारत युद्ध से लेकर भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भी देखा । ध्वज किसी भी राष्ट्र और संस्कृति के गौरव और सम्मान का प्रतीक माना गया है । लेकिन राष्ट्र ध्वज से आत्मगौरव और स्वाभिमान का भी बोध होता है, यह बात आचार्य चाणक्य ने कही थी। इसी बात को आगे बढ़ाया राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार ने।
नहीं हो सकते स्वत्व से दूर
डा. हेडगेवार ने कहा था जो आत्मबोध कराये वह गुरु है। मनुष्य या प्राणी का जीवन तो सीमित होता है। समय और आयु अवस्था उनकी क्षमता और ऊर्जा को प्रभावित करती है। गुरु चिरजीवी होना चाहिए। अष्टावक्र से मिले आत्मज्ञान इसी भाव के अनुरूप राजा जनक ने वेद को भी गुरु तुल्य आसन दिया। गुरुग्रंथ साहिब को गुरु स्थान भी यही परंपरा है। ध्वज को गुरु स्थान पर आसीन करना लेकिन वर्तमान परिस्थिति में जितनी आवश्यकता आत्मज्ञान की है उससे अधिक आवश्यकता स्वत्व के बोध और राष्ट्र के स्वाभिमान जागरण की है। उधार के सिन्दूर से कोई सौभाग्यवती नहीं हो सकती, बैसाखियों के सहारे पर्वत की चोटी पर नहीं जाया जा सकता। उसी प्रकार कोई व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र अपने स्वत्व से दूर होकर प्रतिष्ठित नहीं हो सकता। यह भगवा ध्वज प्रत्येक भारतीय को उसके स्वत्व और स्वाभिमान का बोध कराता है । व्यक्तिगत ज्ञान के लिये भले कोई ऋषि तुल्य विभूति गुरु बनायें, दीक्षा लें पर राष्ट्र के स्वाभिमान जागरण कर्ता के रूप में ध्वज के अतिरिक्त कोई प्रतीक नहीं हो सकता । इसीलिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भगवा ध्वज को गुरु स्थान दिया और गुरु पूर्णिमा पर ध्वज पूजन परंपरा आरंभ की।
आज जीवन की आपाधापी है। भौतिक सुख सुविधाओं के संघर्ष में आत्मगौरव कहीं छूट रहा है। इसके लिये आवश्यक है कि गुरु पूर्णिमा पर केवल गुरु वंदन पूजन तक सीमित न रहे। प्रत्येक व्यक्ति कम से कम एक बार आत्मचिंतन अवश्य करे। स्वयं के बारे में, अपने परिवार के बारे में, अपनी परंपराओं के बारे में और अपने राष्ट्रगौरव के बारे में। और यदि कहीं चूक हो रही है तो उसकी पुनर्प्रतिष्ठा कैसे की जाये इसका संकल्प लिया जाय तभी गुरु पूर्णिमा पर गुरु वंदन पूजन सार्थक होगी।
(लेखक पांच दशक से अधिक समय से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हैं।
मध्यप्रदेश शासन की राष्ट्रीय एकता समिति के उपाध्यक्ष (राज्यमंत्री दर्जा प्राप्त) फिल्म सेंसर बोर्ड के पूर्व सदस्य हैं।)
टिप्पणियाँ