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गुरु पूर्णिमा पर विशेष : भारतीय संस्कृति की अनमोल धरोहर “गुरु-शिष्य परम्परा”

  "गुरु" शब्द का महानता इसके दो अक्षरों में ही समाहित है। संस्कृत में 'गु' का अर्थ है अंधकार (अज्ञान) और 'रु' का अर्थ हटाने वाला। यानी गुरु वह होता है जिसमें जीवन से अज्ञान का अंधेरा हटाने की सामर्थ्य निहित हो।

by पूनम नेगी
Jul 13, 2022, 06:00 am IST
in भारत
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भारत की सनातन संस्कृति में “गुरु” को एक परम भाव माना गया है जो कभी नष्ट नहीं हो सकता। इसीलिए हमारे यहां गुरु को व्यक्ति नहीं अपितु विचार की संज्ञा दी गयी है। संघ का भगवा ध्वज गुरुपद की इसी सर्वोच्च्ता का प्रतीक है।  “गुरु” शब्द का महानता इसके दो अक्षरों में ही समाहित है। संस्कृत में ‘गु’ का अर्थ है अंधकार (अज्ञान) और ‘रु’ का अर्थ हटाने वाला। यानी गुरु वह होता है जिसमें जीवन से अज्ञान का अंधेरा हटाने की सामर्थ्य निहित हो। भारतीय  मनीषियों के मुताबिक जो स्वयं में पूर्ण होगा, वही दूसरों को पूर्णत्व की प्राप्ति करवा सकता है। पूर्णिमा के चन्द्रमा की भांति जिसके जीवन में प्रकाश है, वही अपने शिष्यों के अन्त:करण में ज्ञान रूपी चन्द्र की किरणें बिखेर सकता है, उनके जीवन को सही राह पर ले जा सकता है, कुसंस्कारों का परिमार्जन, सदगुणों का संवर्धन एवं दुर्भावनाओं का विनाश कर सकता है। भारतीय इतिहास में “गुरु” की भूमिका सदा से समाज को सुधार की ओर ले जाने वाले मार्गदर्शक के साथ क्रान्ति को दिशा दिखाने वाली भी रही है।

यूं तो हमारे माता-पिता हमारे जीवन के प्रथम गुरु होते हैं जो हमारा पालन-पोषण करते हैं, हमें बोलना व चलना फिरना सिखाते हैं, जीवन के सामान्य लोकव्यवहार की शिक्षा व संस्कार देते हैं तथा परिवार व समाज में रहने तौर तरीके बताते हैं; मगर जीवन को सार्थकता प्रदान करने के लिए हमें जिस शिक्षा व विद्या की आवश्यकता होती है, वह हमें सद्गुरु से ही प्राप्त हो सकती है। आज जिस तरह स्कूल-कॉलेजों में शिक्षा दीक्षा दी जाती है, वही काम प्राचीन काल में गुरुकुल करते थे। हालांकि पुरातन व आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में एक मूल अंतर है। जहां आज की शिक्षा घोर व्यावसायिक हो गयी है, वहीं प्राचीन काल में विद्यादान का पुण्य कार्य ऋषि आश्रमों में पूरी तरह निशुल्क होता था क्योंकि इसके पीछे त्याग व समर्पण की दिव्य ऊर्जा निहित थी। गुरुकुल में आचार्य अपने शक्तिशाली सूक्ष्म ज्ञान को अटूट विश्वास, पूर्ण समर्पण और गहरी घनिष्ठता के माहौल में अपने शिष्यों को प्रदान करते थे। प्राचीन काल में गुरु और शिष्य के पारस्परिक संबंध आत्मीयता पर टिके होते थे। गुरु और शिष्य के बीच केवल शाब्दिक ज्ञान का ही आदान प्रदान नहीं होता था बल्कि गुरु अपने शिष्य के संरक्षक के रूप में भी कार्य करता था। गुरुओं के शांत पवित्र आश्रमों में अध्ययन करने वाले शिष्यों की बुद्धि भी तद्नुकूल उज्ज्वल और उदात्त हो जाती थी। आचार्य अपने शिष्यों के स्वाभाविक गुणों को परिष्कृत करने के साथ उन्हें जीवन विद्या का प्रशिक्षण देकर भविष्य की चुनौतियों के लिए तैयार करते थे। आज विद्यादान का यह भाव विलुप्तप्राय है।

कुछ वर्ष पूर्व भारत के महान दार्शनिक ओशो ने जब यह कहा कि हमारी शिक्षण संस्थाएं आज अविद्या का प्रचार कर रही हैं तो अनेक लोगों ने आपत्ति की थी; लेकिन वे बात सही कह रहे थे। आज हमारे विद्यालयों में ज्ञान का नहीं बल्कि सूचनाओं का हस्तांतरण हो रहा है। विद्यार्थियों का ज्ञान से अब कोई वास्ता नहीं रहा। इसलिए आज हमारे पास डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, न्यायाधीश, वैज्ञानिक और वास्तुकारों की तो बड़ी भीड़ जमा है लेकिन आत्मज्ञान के अभाव और उज्जवल चरित्र के बिना सुंदर समाज की कल्पना दिवास्वप्न बन कर रह गयी है। समाज में तेजी से बढ़ती मूल्यहीनता का क्षरण इस गुरु-शिष्य परम्परा के पुनर्जीवन से ही रोका जा सकता है।

भारत को “जगद्गुरु” की उपमा इस कारण ही दी गयी थी कि उसने न केवल विश्व मानवता का मार्गदर्शन किया, अपितु ब्राह्मणत्व के आदर्शों को जीवन में उतार कर औरों के लिए प्रेरणास्रोत भी बना। हमारे यहां गुरु को मानवी चेतना का मर्मज्ञ माना गया है। गुरु का हर आघात शिष्य के अहंकार पर चोट कर उसको निर्मल बनाता है। सादा जीवन, उच्च विचार हमारे पुरातन गुरुजनों का मूल मंत्र था। तप और त्याग ही उनका पवित्र ध्येय था। लोकहित के लिए अपने जीवन का बलिदान कर देना और शिक्षा ही उनका जीवन आदर्श हुआ करता था। प्राचीन काल में गुरु ही शिष्य को सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों तरह का ज्ञान देते थे। गुरु के सान्निध्य में रहकर शिष्य साधना का तेजस्वी जीवन बिताते थे।

उनमें संसार की कठिनाइयों से संघर्ष करने की शक्ति होती थी। साधना-स्वाध्याय के सम्मिश्रण से उनको आत्मज्ञान की अनुभूति होती थी। प्राचीन भारत की इस गुरु-शिष्य परम्परा ने ही हमारे देश को “सोने की चिड़िया” बनाया था। जिस प्रकार कुम्हार मिट्टी के बरतनों को मजबूत बनाने के लिए उन्हें आग में पकाता है, ठीक वैसे ही गुरु शिष्य को तराशते थे। इसीलिए तो हमारे शास्त्रकारों, मनीषियों, धर्मग्रंथों सभी ने एक स्वर में गुरु की महिमा का गुणगान किया है। ऋषियों ने गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश से भी बढ़कर परब्रह्म के रूप में अभिनन्दित किया है। सन्त कबीर यूं ही नहीं कहते –

“गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पायं। बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय”

हमारे ऋषि-मुनियों ने गहन शोध के बाद व्यक्तित्व निर्माण की जो समृद्ध जीवन संस्कृति विकसित की थी, वह हजारों वर्षो बाद आज भी उतनी ही उपयोगी है। गुरु शिष्य परम्परा के रूप में हमारे ऋषियों ने शिक्षण की ऐसी पद्धति का विकास किया था जिसके द्वारा प्रत्येक व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का पुनर्निर्माण कर आत्मबोध के द्वार खोल सके। गहराई से विचार करें तो पाएंगे कि हमारी पुरातन गुरु-शिष्य परम्परा निश्चित रूप से मानवीय विकास के सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक है। जब हम भूतकाल की अपनी इस समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर के बारे में विचार करते हैं तो पाते हैं कि वैदिक भारत की सर्वतोमुखी प्रगति की आधारशिला यही गुरु शिष्य परम्परा ही थी। वेदों, उपनिषदों और तंत्रों के रूप में उन्होंने जो बहुमूल्य विरासत आने वाली पीढ़ियों को सौंपी, वह अपने आप में जीवन का एक परिपूर्ण विज्ञान है। वैदिक मनीषियों ने जिस तरह जीवन के धरातल से जुड़ी मौलिक व वैविध्यपूर्ण शिक्षा द्वारा हमें   संयम, आत्मनियंत्रण, अंतर्दृष्टि एवं आत्मज्ञान के द्वारा जीवन की पूर्णता प्राप्त करने हेतु प्रेरित किया; उनके वे जीवन सूत्र आज भी उतने ही उपयोगी व प्रासंगिक बने हुए हैं।

भारतीय दर्शन कहता है कि अज्ञानरूपी अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला और परमात्मा तक पहुंचने का मार्गदर्शन गुरु से ही प्राप्त होता है। इस पृथ्वी पर जब-जब भी भगवान ने अवतार लिया तो उन्होंने भी गुरु का ही आश्रय लिया। भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण, संत कबीर, रैदास, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद सभी ने गुरु की दीक्षा से ही महापुरुष का दर्जा प्राप्त किया। काबिलेगौर हो कि हमारे यहां यह बाध्यता कभी नहीं रही कि किसी देहधारी को ही गुरु माना जाये। मन में सच्ची लगन एवं श्रद्धा हो तो गुरु को कहीं भी पाया जा सकता है। एकलव्य ने मिट्टी की प्रतिमा में ही गुरु को ढूंढ लिया था और उन्हीं के आशीर्वाद से महान धनुर्धर बना था। दत्तात्रेय जी ने प्रकृति के तत्वों से 24 गुरु बनाये थे। उन्होंने संसार में मौजूद हर उस वनस्पति, प्राणी, ग्रह-नक्षत्र को अपना गुरु माना जिससे कुछ सीखा जा सकता था। इतिहास साक्षी है कि गुरु कृपा ने अनेक जिज्ञासुओं को महानता के उच्चतम शिखर पर पहुंचा दिया। श्री रामकृष्ण परमहंस जैसे गुरु को पाकर ही स्वामी विवेकानंद का विवेक जागृत हुआ और उन्होंने देश में ही नही विदेशों में भारत की सनातन संस्कृति का डंका बजा दिया। वे चाणक्य ही थे जिन्होंने चन्द्रगुप्त नाम के एक सामान्य से बालक को देश का चक्रवर्ती सम्राट बना दिया।

समर्थ गुरु रामदास के मार्गदर्शन से ही छत्रपति शिवाजी महाराज ने हिन्दवी स्वराज्य अर्थात हिन्दू पदपादशाही की स्थापना कर इतिहास की दिशा ही बदल दी। गुरु के मार्गदर्शन में जीवन दिशा ही परिवर्तित हो जाती है। गुरु अपनी प्राण ऊर्जा से शिष्य के अन्तःकरण को ओतप्रोत कर उसमें नई शक्ति का संचार करता है, उसे नया जीवन देता है। अज्ञान के अंधकार में फंसे मानव को बाहर निकालने के लिए गुरु अपनी ज्ञान शलाका से उसकी आँखों में वो अंजन लगाता है कि उसे जीवन का वास्तविक उद्देश्य और अपनी भावी भूमिका स्पष्ट नजर आने लगती है।

आषाढ़ मास की पूर्णिमा को “व्यास पूर्णिमा” के रूप में भी मनाया जाता है। यूं तो भारत की पावन धरती पर विश्व मानवता को प्रकाशित करने वाले अनेक विद्वान मनीषी जन्मे किन्तु महर्षि वेद व्यास वे प्रथम विद्वान थे, जिन्होंने न सिर्फ सनातन धर्म (हिन्दू धर्म) के चारों वेदों की व्याख्या की वरन 18 पुराणों एवं उपपुराणों की रचना भी की। इनमें महाभारत एवं श्रीमद्भागवत विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। कहा जाता है कि आषाढ़ पूर्णिमा को आदि गुरु वेद व्यास का जन्म हुआ था। इसीलिए उनके सम्मान में सनातन धर्मावलम्बी इस दिन को महर्षि व्यास पूजन दिवस के रूप में मनाते हैं और उनकी शिक्षाओं पर चलने का संकल्प लेते हैं। महर्षि व्यास को भगवान विष्णु का 18वां अवतार (अष्ट चिरंजीवियों में शुमार) माना जाता है।

आषाढ़ पूर्णिमा की महत्ता पर विदेशी शोध

जानना दिलचस्प होगा कि आज वैज्ञानिक भी आषाढ़ पूर्णिमा की महत्ता को स्वीकार कर चुके हैं। “विस्डम ऑफ ईस्ट” पुस्तक के लेखक आर्थर स्टोक लिखते हैं, जैसे आज भारत द्वारा खोजे शून्य, छंद व व्याकरण की महिमा पूरा विश्व गाता है, उसी प्रकार अगले दिनों समूची दुनिया भारत की विलक्षण गुरु-शिष्य परम्परा तथा आषाढ़ पूर्णिमा की महत्ता को भी जानेगी। आषाढ़ पूर्णिमा को लेकर अध्ययन व शोध करने वाले आर्थर स्टोक का कहना है कि यूं तो भारत में शरद पूर्णिमा, कार्तिक पूर्णिमा, वैशाख पूर्णिमा व पौष पूर्णिमा जैसे अनेक पूर्णिमा उत्सव मनाये जाते हैं मगर इन सभी पूर्णिमाओं में आषाढ़ पूर्णिमा का विशेष महत्व है।

आर्थर स्टोक ने अपनी शोध में पाया है कि आषाढ़ पूर्णिमा दिन बदली में छिपे सूर्य की सौम्य किरणों के दिव्य विकिरणों से साधक का शरीर व मन एक विशेष स्थिति में आ जाता है। यह स्थिति साधना के लिए बेहद लाभदायक मानी गयी है। इसीलिए भक्ति व ज्ञान व साधना के पथ पर चल रहे साधकों के लिए आषाढ़ पूर्णिमा विशेष महत्व रखती है।

 

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