संविधान हम भारतीयों के दैनिक जीवन का हिस्सा है। यह न आग्रह की विषय वस्तु है, न विज्ञापन की। यह सभ्यता की अक्षुण्णता की विषय-वस्तु है। न्याय और न्यायपूर्णता उसका अविभाज्य अंग है। कम से कम उस अक्षुण्णता का तो ध्यान रखा जाना चाहिए
जब ‘सच’ की बात होती है, तो कई बार ‘कड़वा’ शब्द उसके पहले विशेषण के तौर पर जुड़ जाता है- ‘कड़वा सच’। दुनिया के सबसे लंबे-चौड़े संविधानों में से एक भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार का भी उल्लेख है, और मौलिक कर्तव्यों का भी। दुनिया भर के जिन भी संविधानों से प्रावधान, विचार और बाकी चीजें हमने अपने संविधान के लिए उधार ली हैं-उनमें से भी कई में इस तरह की बातें हैं। हमारे संविधान निर्माताओं ने निश्चित रूप से बहुत श्रम और शोध करके इस संविधान का निर्माण किया है। लेकिन शायद कई प्रश्न उस समय तक ‘विजुअल रेंज’ में नहीं थे।
एक सभ्य समाज के लिए संविधान एक मधुर तत्व होना चाहिए। हम संविधान दिवस मनाते हैं, गणतंत्र दिवस पर मिठाई भी खाते-खिलाते हैं। फिर बात ‘कड़वा’ शब्द से शुरू क्यों हो रही है? क्या 72 वर्ष बाद, संविधान का गुब्बारा अब उन इलाकों से, प्रक्रियाओं से, परिस्थितियों और लोगों से गुजर रहा है, जिनकी संविधान का निर्माण करते समय कल्पना करना शायद असंभव ही था?
संविधान सभा में किसने क्या कहा था-इस बहस में पड़ना विषय नहीं है। एक प्रश्न यह है कि क्या हमारे संवैधानिक मौलिक अधिकारों में यह भी प्रावधान है कि हमें संविधान के किस बिन्दु को स्वीकार करना है और किसे स्वीकार करने से हम इनकार कर सकते हैं? जैसे, मान लीजिए कि चोरी करने को मौलिक अधिकार मानने का अधिकार हो, और उसकी सजा वाले प्रावधान को नकार देने-नहीं मानने, मानने से इनकार कर देने का भी अधिकार हो। फिर क्या होगा?
जो होगा, अंग्रेजी में होगा। शायद इसलिए कि देशज प्रजा को उसे न समझने का अधिकार होगा, न उस पर टिप्पणी करने का। जैसे एक बार अंग्रेजी में कहा गया था-संविधान के मूलभूत ढांचे को संविधान में संशोधन करके भी बदला नहीं जा सकता। और यह फैसला सुनाना, फैसला सुनाने वालों का मौलिक अधिकार है। माने यह संविधान का अपना मौलिक अधिकार हुआ। और संविधान के रखवालों ने एक और मौलिक अधिकार स्वयं को दे दिया। वह यह कि यह मूलभूत ढांचे वाला मौलिक अधिकार कब मानना है, और कब नहीं, यह भी उनका मौलिक अधिकार होगा। उदाहरण के लिए कॉलेजियम व्यवस्था किस तरह संविधान के मूलभूत ढांचे के अनुरूप है-यह सवाल खारिज करने का मौलिक अधिकार कॉलेजियम व्यवस्था ने स्वयं ही स्वयं को दिया हुआ है।
एक और उदाहरण देखिए। हम यह तो अपेक्षा रखते हैं कि लोग संविधान के प्रति, न्यायपालिका के प्रति आस्था का भाव रखें, उसे ईश्वर तुल्य सम्मान दें। यह एक मौलिक अधिकार है। लेकिन साथ ही हम कोई ऐसा काम करना जरूरी न समझें, जिससे जन में विश्वास पैदा हो सकता हो, यह भी हमारा मौलिक अधिकार हो।
हम तर्क की जगह कुतर्ककरें-यह एक मौलिक अधिकार होना चाहिए। और हमारे कुतर्कको तर्क की तरह सम्मान दिया जाए- यह भी मौलिक अधिकार होना चाहिए।
हम दुनिया भर से पारदर्शिता की अपेक्षा रखें-यह एक मौलिक अधिकार होना चाहिए।
लेकिन जब हमारे गंदे कपड़ों की सार्वजनिक धुलाई हो, तो लोग नाक-कान-मुख और आंखें बंद कर लिया करें- यह भी मौलिक अधिकार होना चाहिए।
हमारी हर बात को जनता देववाणी माने-यह एक मौलिक अधिकार होना चाहिए। और हम सिर्फ उलझी अंग्रेजी के ऐसे साहित्य की रचना करें, जो किसी के अनुरूप न हो-यह भी मौलिक अधिकार होना चाहिए।
लेकिन समस्या यह है कि अब अनुवाद होने लगा है। जन की भाषा में। सिर्फ भाषा का नहीं, मन्तव्य का भी। संविधान हम भारतीयों के दैनिक जीवन का हिस्सा है। यह न आग्रह की विषय-वस्तु है, न विज्ञापन की। यह सभ्यता की अक्षुण्णता की विषय-वस्तु है। न्याय और न्यायपूर्णता उसका अविभाज्य अंग है। कम से कम उस अक्षुण्णता का तो ध्यान रखा जाना चाहिए। ‘सच’ के साथ ‘कड़वा’ शब्द विशेषण के तौर पर अकारण नहीं जुड़ता है।
@hiteshshankar
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