उत्तर प्रदेश में हाल में सम्पन्न लोकसभा के दो उपचुनावों में भाजपा ने सपा को पराजित किया है। दोनों चुनाव सपा के गढ़ों, रामपुर और आजमगढ़ में थे। अपने गढ़ में सपा की मात बदलते समीकरणों की कहानी कहती है। उत्तर प्रदेश में मुस्लिम-यादव समीकरण ध्वस्त होता दिख रहा है। मुस्लिम नेताओं के सुर में बदलाव आ गया है। परंतु सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव अभी भी अपने अहंकार से मुक्त नहीं हो पा रहे
समाजवादी पार्टी अपने गढ़ आजमगढ़ और रामपुर में उपचुनाव हार गई। पराजय होने पर आत्मचिंतन होता है, मंथन होता है, बड़बोलापन कतई नहीं होता। पर अपना गढ़ गंवा देने के बाद भी सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव अपने दंभ से बाहर नहीं निकल पाए। इस शर्मनाक हार के बाद अखिलेश ने आजमगढ़ लोकसभा सीट के प्रत्याशी धर्मेन्द्र यादव का एक वीडियो, सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हुए लिखा कि ‘हार के भी सबका दिल जीत लिया।’
हार का ठीकरा
चुनाव हारने के बाद सपा प्रत्याशी धर्मेन्द्र यादव ने बसपा पर निशाना साधा और मायावती को मुस्लिम मतों के बंटवारे के लिए जिम्मेदार ठहराया। हार के बाद प्रशासन की भूमिका एवं चुनाव प्रचार के लिए समय कम मिलने जैसे कुछ परम्परागत आरोप लगाने के बाद धर्मेन्द्र यादव ने स्वीकार किया कि ‘हम अपने मुस्लिम भाइयों को समझा नहीं पाए।’ बसपा ने शाह आलम उर्फ जमाली को चुनाव मैदान में उतारा था। धर्मेन्द्र यादव प्रकारांतर से मुस्लिम मतों के बंटवारे के लिए मायावती को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। परंतु यहां सवाल है कि अगर आजमगढ़ में बसपा द्वारा मुसलमान प्रत्याशी उतारने से मुस्लिम मतों का विभाजन हुआ तो रामपुर में सपा क्यों हारी? रामपुर में भाजपा और सपा में आमने-सामने की टक्कर थी। वरिष्ठ सपा नेता और पूर्व मंत्री आजम खान ने इस हार का ठीकरा इशारों में ईवीएम पर फोड़ा। उसके बाद उन्होंने कहा कि ‘900 वोट का पोलिंग स्टेशन और कुल 6 वोट सपा को मिले। बस्तियां मुसलमानों की, मोहल्ला मुसलमानों पर एक वोट सपा को मिला। अरे भाई! हम और क्या वजह बताएं। हम तो पैदाइशी अंधे हैं, हमें क्या दिखेगा और हमने चश्मा भी लगा रखा है।’
आजम खान के बयान से साफ है कि मुसलमानों के गढ़ में भी सपा को वोट नहीं मिले। मुसलमानों को जब सपा के अतिरिक्त विकल्प नहीं दिखा तो वे लोग सपा को वोट देने के लिए घरों से ही नहीं निकले। आजमगढ़ में शाह मुसलमानों को आलम उर्फ जमाली के तौर पर विकल्प दिख रहा था। सो, उन्होंने बसपा प्रत्याशी को वोट दिया। बसपा प्रत्याशी को दो लाख से अधिक मत प्राप्त हुए। कड़वी सचाई यह है कि मुसलमान, सपा से मुंह मोड़ रहे हैं मगर सपा अभी इस सच्चाई से मुंह छिपा रही है।
सपा और मुसलमानों के बीच दरार
वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में मुसलमानों ने अपने पुराने चलन को बरकरार रखते हुए वोट बैंक की तरह एकजुट होकर सपा को वोट दिया था मगर सपा, सत्ता के करीब तक भी नहीं पहुंच सकी। मुसलमानों को यह समझ में आ गया कि केवल मुसलमानों के मत के दम पर सपा, भाजपा को नहीं रोक सकती। भाजपा को सत्ता में आने से रोकना है तो किसी और विकल्प पर विचार करना होगा। उन्हें किसी ऐसे विकल्प पर विचार करना होगा जहां जाति के आधार पर कुछ हिन्दुओं का भी समर्थन हासिल हो सके।
मुसलमानों का सपा से मुंह मोड़ने की बात सोचना, एकतरफा नहीं है। उत्तर प्रदेश की राजनीति को देखते हुए सपा की छवि कट्टर मुस्लिम समर्थक की न बने, इसके लिए अखिलेश यादव, सीएए और एनआरसी के मुद्दे पर बहुत मुखर नहीं रहे और आजम खान के पक्ष में भी खुलकर नहीं खडेÞ हुए। ऐसे में मुसलमानों को लगा कि उनके मुद्दों को लेकर मुखर नहीं हो रहे। वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में पूरा बल लगाने के बाद मुसलमानों ने देख लिया कि सपा, भाजपा को रोकने में सफल नहीं हो पाई।
सो, मुसलमानों को कोई ऐसा विकल्प चाहिए जो भाजपा को रोक सके।
सैयद अहमद बुखारी ने भी इस मुद्दे पर कहा कि ‘उत्तर प्रदेश में 96 प्रतिशत मुसलमानों ने सपा को वोट दिया, लेकिन अखिलेश ने कभी मुसलमानों की आवाज नहीं उठाई।’ जब आजम खान जेल में बंद थे, उस समय उनके करीबियों द्वारा भी यह बात उठाई गई कि अखिलेश ने आजम से किनारा कर लिया है। वर्ष 2020 के अगस्त में आजम के करीबी रिश्तेदार जमीर अहमद खान उनसे मिलने गए थे। मुलाकात के बाद जमीर अहमद खान ने मीडिया से कहा था कि ‘आजम खान, पार्टी नेतृत्व से बेहद नाराज हैं। जब उत्तर प्रदेश सरकार ने विभिन्न मामलों में उनके खिलाफ मुकदमे दर्ज किए तो सपा उनका साथ देने में नाकाम हो रही।
आजम खान मुलाकात के दौरान बेहद नाराज दिखे। जेल में उनसे मुलाकात करने आ रहे सपा नेताओं से वे मिलना नहीं चाहते हैं।’ आजम खान के जमानत पर छूटने के पहले उनके मीडिया प्रभारी फसाहत अली खान ने रामपुर में कहा कि ‘हमारे साथ तो वह सपा भी नहीं है, जिसके लिए हमने अपने खून का कतरा-कतरा बहा दिया। हमारे नेता मोहम्मद आजम खान ने अपनी जिन्दगी, सपा को दे दी लेकिन सपा ने उनके लिए कुछ नहीं किया। हमारे राष्ट्रीय अध्यक्ष को हमारे कपड़ों से बदबू आती है। हमने उनको और उनके पिता को मुख्यमंत्री बनवाया। हमारे वोटों से सपा 111 सीटों पर विजयी हुई। सपा को यादव जाति के लोगों ने भी वोट नहीं दिया। अभी तक केवल एक बार अखिलेश यादव, आजम खान से मिलने गए थे। उन्होंने दूसरी बार मिलने तक की जहमत नहीं उठाई।’
आजमगढ़ वासी को सपा ने छला
1996 से मौजूदा उपचुनाव से पहले तक आजमगढ़ लोकसभा सीट के लिए हुए सात आम चुनाव और एक उपचुनाव में चार बार सपा जीती, तीन बार बसपा और एक बार भाजपा जीती है। 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा न सिर्फ लगातार जीती बल्कि सपा के प्रथम परिवार के मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव यहां से सांसद बने। विधानसभा चुनाव में भी सपा को यहां पर सफलता मिली। इस दृष्टिकोण से आजमगढ़ को सपा का गढ़ माना जाने लगा। मगर यही अति आत्मविश्वास सपा को ले डूबा।
2014 में यहां से सांसद चुने गए मुलायम सिंह यादव पांच वर्षों में कभी भी जनता का दु:ख-दर्द जानने आजमगढ़ नहीं गए। 2019 में सांसद चुने जाने के बाद अखिलेश भी कभी झांकने नहीं गए। इससे आजमगढ़ की जनता खुद को छला हुआ महसूस करने लगी थी। ऐसा सांसद किस काम का, जिससे वहां की जनता मिल भी न सके। यही वजह रही कि इस बार जब सपा ने धर्मेन्द्र यादव को टिकट दिया तब आजमगढ़ के लोगों को लगा कि ये भी चुनाव जीतने के बाद इटावा की जनता से ही मिलेंगे। धर्मेन्द्र यादव को चुनाव जिताने के लिए पूर्व मंत्री बलराम यादव, पूर्व मंत्री राम गोविन्द चौधरी एवं पूर्व मंत्री दुर्गा यादव समेत जमे-जमाए धुरंधर नेता मैदान में उतारे गए मगर कड़ी टक्कर के बाद वे चुनाव हार गए। बसपा प्रत्याशी शाह आलम उर्फ जमाली को 2,66,210 वोट मिले। धर्मेन्द्र यादव 3,04,089 वोट पाकर करीब 8 हजार वोट से चुनाव हारे।
आखिर ऐसी नौबत क्यों आई? दरअसल, मुलायम स्ािंह एक जमाने में अब्दुल्ला बुखारी और आजम खान को काफी महत्व देते थे। इसके साथ ही उन्होंने मुख्तार अंसारी और अतीक अहमद सरीखे माफियाओं को भी अपनी पार्टी से टिकट दिया था। ये सभी चुनाव जीतकर जन प्रतिनिधि बने। 2012 में जब अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, तब उन्होंने अपने पिता के साथ के लोगों को किनारे लगाना शुरू कर दिया। जो लोग पिता की खास पसंद थे, वे बेटे की आंख की किरकिरी बन कर उभरे। इस बीच मुसलमानों का विश्वास अखिलेश के ऊपर से डगमगा गया।
भाजपा की रणनीति
इधर भाजपा की रणनीति पर गौर करें तो आजमगढ़ और रामपुर में पिछले चुनाव में हार के बाद भी भाजपा के नेताओं ने जनता से संवाद बनाये रखा। केंद्र और प्रदेश सरकार की योजनाओं में आजमगढ़ और रामपुर के लोगों के साथ कोई भेदभाव नहीं किया गया। सपा सरकार में पूरे प्रदेश में बिजली कटौती होती थी मगर इटावा को बिजली कटौती से मुक्त रखा गया था क्योंकि वह मुख्यमंत्री का गृह जनपद था। एक सवाल के जवाब में तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने कहा भी था कि ‘इटावा के बारे में मैं सोचूंगा नहीं तो कौन सोचेगा?’ भाजपा की सरकार में क्षेत्र के आधार पर इस तरह का भेदभाव नहीं किया गया।
आजमगढ़ और रामपुर में चुनाव जीतने के बाद अब भाजपा पूरी तरह से कमर कस कर तैयार है। बूथ प्रबंधन का कार्य अभी से शुरू कर दिया गया है। उधर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने रामपुर और आजमगढ़ जनपद को शीर्ष प्राथमिकता में रखते हुए वहां चल रहीं विकास परियोजनाओं की शासन स्तर से समीक्षा के निर्देश दिए हैं। इन जिलों पर अब मुख्यमंत्री कार्यालय की सीधी नजर होगी। इन दोनों जनपदों में औद्योगिक निवेश से लेकर सभी छोटी-बड़ी योजनाओं पर मुख्यमंत्री कार्यालय से निगरानी की जाएगी। भाजपा इन दोनों जनपदों का विकास करके वहां की जनता के विश्वास को और मजबूत करना चाहती है।
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