राजस्थान के उदयपुर में भाजपा की निलंबित नेता नूपुर शर्मा के समर्थन में सोशल मीडिया पर टिप्पणी करने वाले अन्य पिछड़ा वर्ग के कन्हैयालाल की जिस तरीके से हत्या हुई, उसने कई सवाल समाज के सामने रखे हैं। इन सवालों से मुंह नहीं चुराया जा सकता। पहला सवाल तो यही है कि क्या यह हत्या, हत्या की अन्य घटनाओं की भांति एक सामान्य अपराध भर है? वैसे भी हत्या एक क्रूरतम कृत्य है। तिस पर कन्हैयालाल के मामले में की गई बर्बरता सामान्य नहीं है। क्योंकि यह न तो परस्पर बातचीत के दौरान क्षणिक गुस्से में की गई है और न ही आत्मरक्षार्थ।
यह हत्या क्यों की गई?
हत्या के पीछे के कारकों का, उन्मादकारी परिस्थितियों का विश्लेषण तीन दृष्टियों से किया जा सकता है-
- इसे खाद-पानी देने वाली विभाजनकारी राजनीति- जिसके तुष्टीकरण के पैंतरे और समाज को दो फांक करने की कोशिशों का सिलसिला जिन्ना से लेकर आज तक जारी है।
- अपराध के अंदेशों को भांपने में नाकाम ढीला, लचर प्रशासन। गौर कीजिए, विवाद की सूचना होने पर भी पुलिस ने दोनों पक्षों को समझाकर अपनी ओर से सुलह करा दी और घटना की गंभीरता को नजरअंदाज कर दिया, जिस कारण यह हत्या हुई। गुजरात के किशन भरवाड हत्याकांड में भी प्रशासन का यही रुख जिम्मेदार था।
- इस्लाम में अंतर्निहित विरोध – प्रश्न है, यदि इस्लाम शांति का मजहब है तो क्यों नहीं इस्लाम को मानने वाले दुनिया भर में ऐसी घटनाएं होने पर इसके विरोध में खड़े होते हैं?
इसके उलट वे इस्लामवादी शरिया की जिद पर अड़े रहते हैं।
और यह हाल तब है जब दुनिया ने देखा है कि शरिया की जिद करने वाले मुसलमान, तालिबानियों के अफगानिस्तान में शरिया लागू करने पर किस तरह अपनी जमीन, अपना वतन छोड़ कर विमानों पर लटक-लटक कर भागे, आसमान से गिरे। इस्लामवादियों को, मुसलमानों को यह सोचना पड़ेगा कि उन्हें सभ्य समाज के साथ रहना है, शांति के साथ रहना है या ऐसी स्थितियों में रहना है, जहां मनुष्य को मनुष्य नहीं माना जाता और स्त्रियों को महज बच्चे पैदा करने की मशीन माना जाता है।
इस्लामी समाज करे प्रतिरोध
ऐसे बर्बर और घृणित कृत्यों का इस्लामी समाज की ओर से प्रतिरोध होना चाहिए। लेकिन जब प्रतिरोध नहीं होता, तो वे ऐसे कृत्यों के समर्थन में दिखते हैं। ऐसी स्थितियां साफ करती हैं कि मस्जिदों के मौलवियों पर उन्मादियों का कब्जा है। ऐसी स्थिति में दुनिया यह मानती है, तो उसे गलत धारणा कह सकने का भी कोई तो आधार होना चाहिए। आप उसे भले इस्लामोफोबिया कहें, ‘इस्लाम से घृणा करने वालों की जमात’ मानें, परंतु जब इस्लाम मौन या मुखर, प्रत्यक्ष या परोक्ष ढंग से ऐसी हिंसा के पक्ष में दिखते हैं, तो दुनिया को अपने हिसाब से धारणाएं बनाने का मौका आप स्वयं देते हैं। खासकर तब, जब आप नूपुर शर्मा के विरोध के लिए पूरी दुनिया में एकजुट हो जाते हैं, परंतु कन्हैयालाल के हत्यारों के विरोध में वही टाल-मटोल वाला रास्ता पकड़ लेते हैं।
अब यह समय का तकाजा है कि मस्जिदों से मौलवियों की छंटाई की जाए। क्या मस्जिद का मौलवी उन्माद को बढ़ावा देने वाला होना चाहिए? देखें कि क्या जुम्मे की नमाज की अगुआई करने वाला, तकरीर देने वाला, दीनी तालीम देने वाला व्यक्ति या उसकी बातें सभ्य समाज के अनुरूप हैं? मुस्लिम समाज को आजाद होना होगा ऐसे उन्मादी तत्वों से, महिलाओं के अधिकारों की बहाली करनी होगी। यह मुस्लिम समाज की जिम्मेदारी है। प्रशासन को भी इस दिशा में समाज को साथ में लेकर समाधान तलाशना होगा, रास्ता निकालना होगा।
पैरोकार कौन ?
एक बात और, क्या ऐसी हिंसा के लिए सिर्फ हत्यारे जिम्मेदार हैं? जो प्रगतिशीलता का मुलम्मा चढ़ा कर ऐसे तत्वों को खाद-पानी देते हैं, वे क्या कम दोषी हैं? लेफ्ट लिबरल्स के चरित्र को देखिए, ये अपने बयानों में मजहब नहीं मानते, परंतु हमेशा कट्टरपंथियों के साथ दिखते हैं। बुद्धिजीविता और प्रगतिशीलता के अलंबरदारों के बयानों को देखना चाहिए। अब जब यह बात ज्यादा से ज्यादा रेखांकित की जाने लगी है कि लेफ्ट लिबरल या सेक्युलर मंच, भारत ही नहीं, विश्व भर में, अंतत: इस्लाम प्रेरित हिंसा के मददगार साबित हो रहे हैं, जान-बूझकर या नासमझी में इस हिंसा को बढ़ावा देने वाले, इस हिंसा की मानसिकता के लिए माहौल रचने वाले और किसी न किसी ढंग से उसे उचित ठहराने की कोशिश करने वाले सिद्ध हो रहे हैं – तब उन्हें कम से कम अपने हिस्से के झूठ को स्वीकार करने के लिए आगे आना चाहिए। क्या हम केवल उन्हें दोषी मानेंगे जिनके हाथ में छुरा दिखता है? जिन्होंने उन्हें आगे बढ़ाया, वे क्या उनसे कम दोषी हैं?
देखिए, ऐसे तत्वों की घेराबंदी होने पर उनकी पैरोकारी कौन कर रहे हैं?
नुपूर शर्मा के मामले में उनके बयानों को काट कर अफवाहें फैलाने वाला कौन है? ऑल्ट न्यूज के सह संस्थापक और स्वयंभू फैक्ट चेकर मोहम्मद जुबैर को मजहबी भावनाएं फैलाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। इसका बचाव कौन कर रहा है? वे कौन लोग हैं जो अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर ‘आई स्टैंड विद जुबैर’ का हैशटैग ट्रेंड करा रहे हैं जबकि मोहम्मद जुबैर ने नूपुर के खिलाफ जो सांप्रदायिक घृणा फैलाने वाला अभियान चलाया था, उसका परिणाम उदयपुर के एक दर्जी कन्हैया लाल का सिर काटने जैसी घटना से सामने आया। एडीटर्स गिल्ड और प्रेस क्लब आॅफ इंडिया ने जुबैर की गिरफ्तारी की निंदा की और उनकी रिहाई की मांग की। ये दोनों संस्थाएं पत्रकारों के हित और मामले देखने के लिए हैं। क्या जुबैर पत्रकार हैं फिर ये संस्थाएं क्यों उसके बचाव में आगे आ रही हैं? क्या मजबूरी है उनकी?
विडंबना देखिए, यही एडीटर्स गिल्ड एवं प्रेस क्लब ऑफ इंडिया रिपब्लिक टीवी के संपादक अर्नब गोस्वामी को झूठे मामले में फंसा कर महाराष्ट्र पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए जाने पर खामोश रहता है। न कोई विरोध-प्रदर्शन, न कोई बयान, न स्वतंत्र जांच की मांग। यह पूरा तंत्र अर्नब के मामले पर अलग-थलग क्यों रहता है? एक गैर पत्रकार के लिए पत्रकारिता की संस्थाओं का विधवा विलाप और एक नामी चैनल के प्रधान संपादक की गिरफ्तारी पर मौन! आखिर इन संस्थाओं की मजबूरी क्या है?
तो यह क्यों नहीं कहा जाए कि इनकी निष्ठाएं उन्मादियों के यहां रेहन पड़ी हैं और ये अपने राजनीतिक आकाओं के इशारे पर काम करते हैं?
चंदे का धंधा
एक मामला और है— इस पूरे इकोसिस्टम का चंदे का धंधा। आल्ट न्यूज को सबसे अधिक सहारा कांग्रेस पार्टी और एनडीटीवी चैनल से मिला है। चंदा लेने के लिए आल्ट न्यूज के विज्ञापन की सामग्री में भी एनडीटीवी के फुटेज का इस्तेमाल किया गया है। राहुल गांधी, शशि थरुर समेत तमाम बड़े कांग्रेसी नेताओं का बयान जुबैर के समर्थन में आया।
ट्रूनिकल नाम की वेबसाइट ने आल्ट न्यूज को मिलने वाले चंदे पर लिखा है – 2020 में इसे आईपीएसएमएफ (द इंडिपेन्डेंट एंड पब्लिक स्पीरिट मीडिया फाउंडेशन) से 84 लाख रुपये की मदद मिली। 2019 में इसी संस्था ने आल्ट न्यूज को 51 लाख रुपये की मदद की थी। इन्फोसिस से 10 लाख की मदद मिली। अरुंधति राय ने जिन्दाबाद ट्रस्ट के माध्यम से 2019 में छह लाख और 2020 में ढाई लाख जुबैर की वेबसाइट को दिए। 2020 में आल्ट न्यूज को 2 करोड़ रुपये चंदे में मिले, फिर भी ये लोग फैक्ट चेक करने के नाम पर लगातार धन एकत्र करते रहे।
वेबसाइट को एक करोड़ रुपये से अधिक की मदद कर चुके आईपीएसएमएफ के ट्रस्टियों की सूची जुबैर और उसकी वेबसाइट के कांग्रेस आईटी सेल होने की पूरी कहानी को अधिक आसानी से समझाती है। आईपीएसएमएफ में अभिनेता आमिर खान, किरण मजूमदार शॉ, अजीम प्रेमजी फिलांथ्रोपिक इनीशिएटिव प्राइवेट लिमिटेड, सायरस जे. गुजदेर, नेहरूवादी इतिहासकार रामचंद्र गुहा, कांग्रेस परिवार से जुड़ी रोशनी नीलकेणी, रोहिंटन और अनु आगा परिवार आदि इसके ट्रस्टी हैं।
आॅल्ट न्यूज प्रावदा मीडिया फाउंडेशन के तत्वावधान में चलता है। मोहम्मद जुबैर भी 2020 से ‘प्रावदा मीडिया फाउंडेशन’ से 12 लाख वेतन में वृद्धि करके अब 20 लाख रुपये वेतन लेते हैं। कॉरपोरेट स्तर का यह भारी वेतन फैक्ट चेक करने के लिए उठाया जाता है जिसकी व्यवस्था चंदा एकत्र करके की जाती है।
उन्मादियों की पैरोकारी कर इन्होंने मुस्लिम समाज को ज्यादा बड़े खतरों की ओर धकेला है। मुस्लिम समाज को सभ्य समाज के साथ तालमेल, सामंजस्य बनाना होगा। इस दिशा में जहर बोने वालों, संक्रमण फैलाने वालों का इलाज करना जरूरी है। यह जिम्मेदारी प्रशासन, समग्र समाज के साथ ही मुस्लिम समाज की भी है। आप किसी दुश्मन के हाथों का औजार तो नहीं बन रहे हैं, गिरेबान में झांककर जरूर देखिए।
इसी तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और हिंदू विरोध की अलंबरदार राणा अय्यूब का चंदे का धंधा है। केंद्रीय प्रवर्तन निदेशालय ने उन्हें 2.69 करोड़ की चंदा वसूली और उसके दुरुपयोग के आरोपों की जांच की। प्रवर्तन निदेशालय ने उनके खाते से 1.77 करोड़ रुपये की राशि अटैच कर दी। आरोप है कि कोविड काल में प्रवासी मजदूरों और व्यवस्थाओं को लेकर दुनिया भर में भारत सरकार की छवि को खराब करने वाली राणा अय्यूब ने इन्हीं गरीबों के नाम पर चंदा जुटाया और अपने पिता और बहन के नाम पर फिक्स डिपॉजिट कर दिया। इसी चंदे की रकम से गोवा में शाही छुट्टियां बिताईं। प्रगतिशीलता के नाम पर जकात का चंदा भी इन्हीं गरीबों के नाम पर जुटाए गए चंदे से दिया और एफसीआरए कानून को धता-बता करक विदेशी चंदा भी जुटाया।
प्रगतिशीलता की स्वयंभू अलंबरदार और झूठे अभियान चलाने की पुरोधा तीस्ता सीतलवाड़ का तो चंदे का फर्जीवाड़ा भी सामने आया है। गुजरात पुलिस द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को दी गई जानकारी के अनुसार उसने 2007 से 2014 तक सीतलवाड़ और उनके पति के साथ-साथ सीजेपी, सबरंग के बैंक खातों की जांच की। दोनों एनजीओ को इस दौरान देश और विदेश से कुल 9.75 करोड़ रुपये का चंदा मिला। सीतलवाड़ और उनके पति ने दान की इस रकम में से 3.85 करोड़ रुपये का इस्तेमाल व्यक्तिगत खर्चों पर किया।
तीस्ता और उनके पति ने 1 जनवरी 2001 को यूनाइटेड बैंक आफ इंडिया की मुंबई शाखा में दो खाते खुलवाए जिनमें 31 दिसंबर 2002 तक पैसे जमा नहीं किए गए थे। लेकिन, जनवरी 2003 से लेकर दिसंबर 2013 के बीच आनंद ने 96.43 लाख रुपये जबकि सीतलवाड़ ने 1.53 करोड़ रुपये अपने-अपने खाते में जमा कराए। पुलिस का आरोप है कि फरवरी 2011 से जुलाई 2012 के बीच मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने 1.40 करोड़ रुपये का फंड दिया। दोनों ने इसमें से पैसे निकालकर व्यक्तिगत खर्चों पर इस्तेमाल किए। पुलिस का कहना है कि शुरू में उसे सीजेपी और सबरंग के महज तीन खातों की ही जानकारी मिली थी। पुलिस के मुताबिक, ’23 जनवरी 2014 को जैसे ही तीनों खाते सीज हुए, सीतलवाड़ और उनके पति ने तुरंत सबरंग ट्रस्ट के अन्य दो खातों से डिमांड ड्राफ्ट के जरिए एक ही दिन में 24.50 लाख और 11.50 लाख रुपये ट्रांसफर किए। इन दोनों खातों की जानकारी जांचकर्ता को नहीं थी।’
उन्माद के इस इकोसिस्टम को समझिए। यह समय का तकाजा है।
ये लोग मुस्लिम समाज में बारूद बोने का काम कर रहे हैं। उन्मादियों की पैरोकारी कर इन्होंने मुस्लिम समाज को ज्यादा बड़े खतरों की ओर धकेला है। मुस्लिम समाज को सभ्य समाज के साथ तालमेल, सामंजस्य बनाना होगा। इस दिशा में जहर बोने वालों, संक्रमण फैलाने वालों का इलाज करना जरूरी है। यह जिम्मेदारी प्रशासन, समग्र समाज के साथ ही मुस्लिम समाज की भी है। आप किसी दुश्मन के हाथों का औजार तो नहीं बन रहे हैं, गिरेबान में झांककर जरूर देखिए।
@hiteshshankar
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