झारखंड में साहिबगंज जिले के भोगनाडीह गांव में संथाल जनजाति के लोगों ने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध छेड़ा था, जिसे हूल कहते हैं। हूल संथाली भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है क्रांति। इस हूल के पीछे मुर्मू परिवार था।
गत जून को नई दिल्ली में ‘हूल दिवस’ की पूर्व संध्या पर एक कार्यक्रम आयोजित हुआ। इसके मुख्य अतिथि थे झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी। कार्यक्रम का आयोजन ‘माई होम इंडिया’ नामक संस्था ने किया था। उल्लेखनीय है कि 30 जून, 1855 को झारखंड में साहिबगंज जिले के भोगनाडीह गांव में संथाल जनजाति के लोगों ने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध छेड़ा था, जिसे हूल कहते हैं। हूल संथाली भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है क्रांति। इस हूल के पीछे मुर्मू परिवार था। उस परिवार के चार भाई (सिद्धो, कान्हू, चांद और भैरव) और दो बहनों (फूलो और जानो) ने अंग्रेजों के विरुद्ध लोगों को जमा किया और हूल का सूत्रपात किया।
कार्यक्रम में बाबूलाल मरांडी ने कहा कि भारत को स्वतंत्र कराने में जनजाति समाज के लोगों ने बहुत बड़ा योगदान दिया है, लेकिन उनके इस योगदान को लोग याद नहीं करते हैं और जो याद करते भी हैं, तो जमींदारों या महाजनों के शोषण के विरुद्ध हुए के युद्ध के रूप में। वास्तव में ऐसा नहीं था। जनजातियों ने देश की अजादी के लिए सर्वस्व न्योछावर कर दिया।
उन्होंने सिद्धो मुर्मू और कान्हू मुर्मू की चर्चा करते हुए कहा कि इन दोनों भाइयों ने अंग्रेजों के विरुद्ध एक लंबी लड़ाई लड़ी और वे इस लड़ाई को लड़ने के लिए बंगाल तक पहुंच गए। उन्होंने कहा कि तिलका मांझी ने ताड़ के एक पेड़ पर चढ़कर एक अंग्रेज अधिकारी को तीर से मारा। ऐसे ही पूरे झारखंड में अनेक स्वतंत्रता सेनानी हुए, जिन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई लड़ी। उन्होंने कहा कि जनजातियों के पास केवल तीर-धनुष और हौंसला था, वहीं दूसरी ओर अंग्रेजों के पास बंदूकें थीं और वे पढ़े-लिखे भी थे। इसके बावजूद जनजातियों ने उनका डटकर मुकाबला किया, यह कोई छोटी बात नहीं है।
अंग्रेजों ने जबरदस्ती लगान वसूलने की बात की, महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार शुरू किया तो मुर्मू परिवार ने घूम-घूम कर लोगों को अंग्रेजों के विरुद्ध जगाया और उन्हें उनके विरुद्ध लड़ने के लिए तैयार किया। इस परिवार की दो बहनों ने भी इस लड़ाई में योगदान दिया। उन्होंने सूचना देने, हथियार पहुंचाने, क्रांतिकारियों तक भोजन पहुंचाने जैसे कार्य किए और अंत में 21 अंग्रेजों को मारकर इस दुनिया को छोड़ दिया।
‘माई होम इंडिया’ के संस्थापक और भाजपा के राष्ट्रीय सचिव सुनील देवधर ने कहा कि जनजाति समाज के असंख्य लोगों ने देश को आजाद कराने में भूमिका निभाई है, लेकिन वामपंथियों ने इनके योगदान को शोषण करने वालों के विरुद्ध आंदोलन बताया। उन्होंने कहा कि कुछ लोगों ने एक परिवार को खुश करने के लिए स्वतंत्रता आंदोलन में डॉ आंबेडकर, सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस जैसे महानुभावों के योगदान को नकारा।
उन्होंने कहा कि बिरसा मुंडा, रानी गाइदिन्ल्यू, सिद्धो मुर्मू, कान्हू मुर्मू जैसे क्रांतिकारियों के कार्यों को जानबूझकर छुपाया गया। उन्होंने कहा कि बिरसा मुंडा जैसे तेजस्वी क्रांतिकारी ने जनजातीय समाज में अलख जगाया, अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन किया, चर्च का पदार्फाश किया, कन्वर्जन का विरोध किया, लेकिन उनके योगदान को सदैव छोटा दिखाया गया। उन्होंने कहा कि संसद के अंदर बिरसा मुंडा की एक प्रतिमा लगी हुई है, लेकिन उस पर माल्यार्पण करने वाले पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं। ऐसे ही प्रधानमंत्री मोदी ने बिरसा मुंडा की जयंती 15 नवंबर को ‘जनजाति गौरव दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा कर जनजाति समाज को सम्मान दिया है।
श्री देवधर ने सिद्धो और कान्हू को याद करते हुए कहा कि इन दोनों भाइयों के नेतृत्व में लगभग 50,000 जनजातियों ने साहिबगंज जिले में अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन किया। लंबे समय तक चले इस आंदोलन में लगभग 25,000 से ज्यादा जनजातियों ने बलिदान दिया। उन्होंने कहा कि जब अंग्रेजों ने जबरदस्ती लगान वसूलने की बात की, महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार शुरू किया तो मुर्मू परिवार ने घूम-घूम कर लोगों को अंग्रेजों के विरुद्ध जगाया और उन्हें उनके विरुद्ध लड़ने के लिए तैयार किया। इस परिवार की दो बहनों ने भी इस लड़ाई में योगदान दिया। उन्होंने सूचना देने, हथियार पहुंचाने, क्रांतिकारियों तक भोजन पहुंचाने जैसे कार्य किए और अंत में 21 अंग्रेजों को मारकर इस दुनिया को छोड़ दिया।
कार्यक्रम में नागालैंड के शिक्षा मंत्री और राज्य भाजपा के अध्यक्ष तेमजेन इमना अलोंग ने कहा कि आजादी की लड़ाई में देश के हर वर्ग के लोगों ने भाग लिया था। नई पीढ़ी को ऐसे सभी लोगों के बारे में बताने की जरूरत है। इस अवसर पर अनेक गणमान्यजन उपस्थित थे।
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