नारी सशक्तिकरण का नारा एक भावशून्य यांत्रिक प्रक्रिया है, जिसकी आड़ में बराबरी की बात करके स्त्रियां अपने दायित्वों से मुंह मोड़ रही हैं
वचपन की यादों में दादाजी का कचहरी से आना और घर में नौकर-चाकर होते हुए दादी का सिर पर आंचल रख कर उन्हें पानी का गिलास थमाना, यह दृश्य आज कुछ ज्यादा ही मोहक लगता है। दादाजी ने वकालत पढ़ी थी, जबकि दादी की शिक्षा बस दूसरी कक्षा तक ही रही। पर अपनी-अपनी जगह दोनों की अहमियत अतुलनीय थी। हम पर लाड़ लुटाते समय मंद मुस्कान में संवरा उनका चेहरा जितना कोमल लगता, घर के कामकाज को संभालने, तमाम आचार-विचार को निभाने के दौरान उनका धीर-गंभीर भाव एक अनकहे अनुशासन में घर को सुव्यवस्थित रखता। दादी कहीं भी हों, बैठी हों, सो रही हों, गप कर रही हों, घर के कोने-कोने पर उनकी नजर न जाने कैसे पहुंचती रहती थी। मुझे वह सर्वव्यापी, शक्ति संपन्न लगतीं।
पापा अक्सर दौरे पर रहते और घर की सारी व्यवस्था मां को देखनी पड़ती। मां का एक इशारा हमारे लिए निर्देश होता। घर पर पर होने वाली वैचारिक और कला-संगीत की गोष्ठियों में मां, पापा के साथ शामिल रहती और विभिन्न विषयों पर धाराप्रवाह अपने विचार अभिव्यक्त करतीं। मुझे वह गार्गी, विश्ववारा, मैत्रेयी सी लगतीं। वह शक्ति संपन्न लगतीं।
यूं ही नहीं होती थी पूजा
प्राचीन काल की विदुषी महिलाओं के नाम याद करते ही उस समय के समाज की तस्वीर भी मुखर हो जाती है, जिसका वर्णन हमारे वेदों, समृतियों आदि में है।
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्रफला: क्रिया:।।
अर्थात् जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता वास करते हैं। पूजा उसी की होगी जो सभी तरह से श्रेष्ठ, सक्षम और सशक्त हो। स्त्री शक्ति संपन्न थी और समाज पर उसका सकारात्मक और सृजनात्मक प्रभाव था। ‘देवता’ से तात्पर्य सद्गुणों वाले इनसान से है। भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही नारी का स्थान सम्माननीय रहा है। अर्द्धनारीश्वर का स्वरूप इसी भारत भूमि में प्रस्तुत हुआ जो स्त्री-पुरुष के समान अधिकारों और उनके संतुलित संबंधों का परिचायक है। यहां श्रेष्ठता दिखाने की होड़ नहीं, कर्तव्य सिद्धि का गौरव है। विश्व की किसी भी संस्कृति में स्त्री और पुरुष की ऐसी महिमामंडित और गौरवपूर्ण विवेचना है?
मातृ स्वरूपा नारी ही समाज और राष्ट्र के सुधार की मूल प्रेरक बल है और स्त्री की गरिमा का हनन सबसे बड़ा अपराध है। वे लैंगिक समानता नहीं, लैंगिक न्याय के लिए आवाज उठाती हैं और इसके लिए मानव संसाधन का उपयोग करती हैं जिसमें स्त्री-पुरुष, दोनों की भागीदारी है।
सभ्यता की शुरुआत के समय स्त्री-पुरुष की अलग-अलग कुदरती क्षमताओं और जरूरत के हिसाब से श्रम का विभाजन हुआ। स्त्री को प्रकृति ने संतानोत्पत्ति की क्षमता दी है। लिहाजा बच्चों का पालन-पोषण उससे बेहतर कोई नहीं कर सकता। इसलिए उसे घर पर रहना पड़ा और इसी क्रम में गृहस्थी की देखभाल भी उसके कंधे पर आ गई और पुरुष जीवन के संसाधन जुटाने बाहर निकलने लगा। विकास क्रम में उसकी भूमिकाएं बढ़ी और समुदाय-समाज को संवारने का काम किया। वैदिक काल की विदुषियों ने अन्न अनुसंधान से लेकर शास्त्रों को पढ़ाने और प्रशासनिक व्यवस्था तक में भी हाथ बंटाया।
हावी होती पाश्चात्य अवधारणा
ऋग्वेद काल में स्त्रियों को सर्वोच्च शिक्षा यानी ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने का अधिकार था। देवी सरस्वती शास्त्र और कला के क्षेत्र में नारी की निपुणता का प्रतीक हैं। वैदिक काल में परिवार के सभी कार्यों और भूमिकाओं में पत्नी को पति के समान अधिकार प्राप्त थे। शिक्षा के अलावा यज्ञ-अनुष्ठान संपन्न कराने में भी उन्हें बराबर का अधिकार प्राप्त था। भारत में कथित नारीवादी आंदोलन पश्चिमी विचारधारा से प्रभावित हुआ। ऐसे आदोलनों का नेतृत्व करने वाली महिलाएं प्राचीन ज्ञान की बजाय पश्चिम का महिमामंडन करती रहीं। उनका अभियान सृजनात्मक आयामों की व्याख्या और अमल से सर्वथा अलग होता हुआ पुरुष-आलोचना आधारित हो गया। उत्तर वैदिक काल के बाद मध्यकाल और आधुनिक काल के शुरुआती दौर में महिलाओं की स्थिति सोचनीय होती चली गई। हर क्षेत्र में वे हाशिए पर धकेल दी गई।
सनातन परंपरा में जिस नारी को शक्तिरुपेण, विद्यारुपेण, लक्ष्मी रुपेण माना गया, उस दर्शन और चिंतन की गरिमा धूमिल क्यों हो गई? समाज ऐसा क्यों हो गया कि स्त्री के अस्तित्व पर स्याह बादल मंडराने लगे? फिर भी, सुखद बात यह है कि जैसे अंधकार के बाद प्रकाश का उदय होता है, वैसे ही समाज संक्रमण काल से गुजर कर हमेशा जागने का प्रयास करता है। हमें वही संदेश प्रसारित करना है। सशक्त होने का अर्थ है सकारात्मक सोच और कौशल विकसित करते हुए अपने जीवन की परिस्थितियों को नियंत्रित करने की क्षमता का पोषण करना।
न्याय के लिए खड़े होने का आत्मविश्वास जगाना, जिससे आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक शक्ति का विकास हो सके। जिसमें स्त्री-पुरुष दोनों की भागीदारी की दिशा तय हो। समाज का पूर्ण विकास स्त्री-पुरुष के एक साथ चलने से होगा, क्योंकि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, प्रतिस्पर्धी नहीं। आज भारतीय समाज में स्त्रियों का अपनी प्राचीन परंपरा से भटकते हुए व्यवहार, संस्कार, विचारों के उच्च मानकों को भुलाकर पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित आचार-विचार के पोषण से सशक्त होने की राह नहीं मिल सकती।
सशक्त होना है तो उसे मूल संस्कृति का मार्ग ही अपनाना होगा। हमारे धर्म शास्त्रों में वर्णित किरदारों को आप उनके शोषण के तौर पर देखते आए हैं। पर आज दृष्टि बदल कर देखें तो पाएंगे वे समाज को सुधारने के लिए उस भूमिका में चित्रित की गई और यह मजबूत और स्पष्ट संदेश दिया कि मातृ स्वरूपा नारी ही समाज और राष्ट्र के सुधार की मूल प्रेरक बल है और स्त्री की गरिमा का हनन सबसे बड़ा अपराध है। वे लैंगिक समानता नहीं, लैंगिक न्याय के लिए आवाज उठाती हैं और इसके लिए मानव संसाधन का उपयोग करती हैं जिसमें स्त्री-पुरुष, दोनों की भागीदारी है।
समाज कैसा होगा, इसे तय करने की निर्णायक चेतना तो स्त्री को ही मिली है। समाज बिगड़ा तो अन्य कारकों के अलावा स्त्रियां भी दोषी रही होंगी। कहीं न कहीं उनकी भूमिका भी कमजोर रही होगी। बाहरी कारकों से स्त्रियों की दशा जब सोचनीय हुई, तो उसके समाधान के लिए पुरुष समाज ने मजबूत कदम उठाए, चाहे सती प्रथा या बाल-विवाह आदि कुरीतियों की बात हो। आज हर क्षेत्र में महिलाएं बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रही हैं।
तुलनात्मक विमर्श बेमानी
स्त्री ने प्रकृति प्रदत्त और स्वाभाविक और व्यावहारिक कर्तव्यों का निर्वाह करते समय आत्मसंतोष के भाव के साथ अपने अस्तित्व की गरिमा स्वयं महसूस की है। वह स्वयं में पूर्ण है, उसे कभी पुरुष के साथ बराबरी की आकांक्षा लिए किसी तुलनात्मक विमर्श का नारा देने की जरूरत नहीं। आक्रांताओं और विदेशी शासकों के आने से हमारा सामाजिक माहौल खराब हुआ और पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव में स्त्रियों से संबंधित विचारों में बदलाव आया। इससे स्त्री-पुरुष दोनों प्रभावित हुए। हमारे रीति-रिवाज, परंपराएं, शिक्षा पद्धति, सभी को रूढ़िवादी और पुरातन बता कर जिस बहुमिश्रित संस्कृति का उदय हुआ, उसकी सतही बुलबुलों का आवरण हमारे विवेक सम्मत और विकासशील चिंतन पर छद्म आवरण बनकर बैठ गया। प्राचीन चिंतन की सारी व्याख्या उलट-पुलट कर दी गई।
19वीं सदी में यूरोपीय देशो में उभरे नारीवादी आंदोलनों की गूंज यहां भी सुनाई देने लगी। ज्ञान को दकियानूसी, स्त्री-पुरुष की अलग-अलग निर्धारित भूमिकाओं को रुढ़िवादी और शोषक बताकर पश्चिम के प्रभाव वाली महिलाओं को सब कुछ उलटा करना था, क्योंकि उसे पुरुष जैसा बनना था। नाम दिया गया सशक्तिकरण, पर ऐसा क्यों? सशक्तिकरण के नाम पर स्त्रियां जिन मांगों को रख रही हैं उसका बुनियादी और कुदरती सिद्धान्तों के साथ कोई मेल नहीं।
कुदरती तौर पर श्रेष्ठ
सशक्तिकरण सकारात्मक शब्द है, लेकिन कथित आधुनिकता में एक यांत्रिक शब्द बन गया है। सशक्त होना एक मानसिक प्रक्रिया है, शारीरिक शक्ति उसके बाद स्वयं विकसित होने लगती है। शक्ति हासिल करने के लिए स्त्री को नारे लगाने की बजाए उसे प्रकृति प्रदत्त नैसर्गिक क्षमताओं पर गर्व और आत्मसंतोष का भाव जगाना होगा। स्वतंत्रता के नाम पर स्वच्छंदता या निरंकुशता सशक्त बनना नहीं है।
स्त्रियां अपने दायित्वों से मुंह मोड़ रही हैं। सशक्त होने की प्रक्रिया यांत्रिक नहीं, यह एक भाव है जो उनके अंदर बसा है। यह दायित्वों की पूर्ति के साथ जागता है और उन्हें सशक्त बना देता है। बच्चों का पालन-पोषण, गृहस्थी की देखभाल, सनातन परंपरा का पालन गुलामी और शोषण लगता है और पश्चिमी तौर-तरीके सशक्तिकरण। पश्चिम की परंपरा वहां की संस्कृति और चिंतन से उपजी है। उनके लिए वही सही और सारगर्भित होगा।
स्त्री मां है और बुनियादी तौर पर कुशल प्रबंधक। प्रकृति ने उसे परिवार, समाज, राष्ट्र निर्माण का महती कार्य सौंपा है। आत्मसंतोष के भाव तिरोहित कर वे ऐसी होड़ में शामिल हो गईं कि अहसास ही नहीं रहा कि अपने पद से खुद को ही नीचे गिराने लगीं? वे अपनी पहचान सशक्तिकरण के नारों के जरिए बनाने में ही अपनी उपलब्धि मान रही हैं। पर क्या वे सशक्त हैं? कतई नहीं। देखा जाए तो बाहरी ताकतों के प्रभाव से उपजी विसंगतियों को तोड़ कर जो स्त्री आगे बढ़ रही है, वह सच्चे अर्थों में सशक्त है।
वह नारों की भीड़ में नहीं दिखती, वह दिव्यांग होने के बावजूद माउंट एवरेस्ट पर पहुंच कर दुनियाभर में भारतीय महिलाओं की बल का परिचय देती है (अरुणिमा सिन्हा); वह भारतीय मूल की प्रथम अंतरिक्ष यात्री बनती है (कल्पना चावला); वह अकेले मिग-21 उड़ाने वाली पहली भारतीय पायलट बनती है (अवनी चतुवेर्दी); वह मिस वर्ल्ड, मिस यूननिवर्स बनती है, वह रक्षा मंत्री, वित्त मंत्री बनती है, वह समाज सेविका बनती है, शिक्षिका बनती है। न जाने और कितने काम कर रही हैं। एक कुशल गृहिणी के तौर पर वह समाज के लिए सबसे बड़ा काम करती है- एक अच्छे इनसान और नागरिक का निर्माण। इस तरह वे परिवार-समाज का आधार स्तंभ बनती हैं।
सशक्तिकरण का नारा एक भावशून्य यांत्रिक प्रक्रिया है, जिसकी आड़ में बराबरी की बात करके स्त्रियां अपने दायित्वों से मुंह मोड़ रही हैं। सशक्त होने की प्रक्रिया यांत्रिक नहीं, यह एक भाव है जो उनके अंदर बसा है। यह दायित्वों की पूर्ति के साथ जागता है और उन्हें सशक्त बना देता है। बच्चों का पालन-पोषण, गृहस्थी की देखभाल, सनातन परंपरा का पालन गुलामी और शोषण लगता है और पश्चिमी तौर-तरीके सशक्तिकरण। पश्चिम की परंपरा वहां की संस्कृति और चिंतन से उपजी है। उनके लिए वही सही और सारगर्भित होगा।
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